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नोटबंदी@एक साल: 1991 की तरह 2016 भी कोई भूल नहीं पाएगा

1991 में जब मनमोहन सिंह अर्थव्यवस्था खोलने का फैसला किया था तब उनकी खूब आलोचना हुई, वही नजारा 2016 में मोदी के नोटबंदी के फैसले के साथ देखा गया

Pratima Sharma

नोटबंदी के एक साल हो गए हैं. इसके असर की बात करें तो यह हर तबके के लिए अलग है. दो जून की रोजी रोटी का इंतजाम करने वालों के लिए अब नोटबंदी कहानी बन चुकी है. नोएडा में मजदूरी का काम करने वाले भोला प्रसाद अपनी याद्दाश्त पर जोर डालते हुए कहते हैं कि हां, तब बड़ी दिक्कत हो गई थी. उन्होंने कहा, 'बड़ी मुश्किल से जमा की गई 10 हजार रुपए की जमा पूंजी थी. जिसमें 6 नोट 500 रुपए के थे.'

भोला दिहाड़ी मजदूर हैं और अपने ठेकेदार के साथ उनकी जगह बदलती रहती है. इस वजह से उनके पास कोई बैंक खाता नहीं था. लेकिन नोटबंदी के बाद उन्हें मजबूरी में खाता खुलवाना पड़ा.


मिट्टी में खेल रही अपनी चार साल की बेटी की तरफ इशारा करते हुए भोला कहते हैं, 'सरिता की तब तबीयत खराब थी. लेकिन पहले मैंने अपने 500 के 6 नोट बदलवाए. उसके बाद सरिता को डॉक्टर के पास ले गया.' थोड़ा हिचकते हुए वह कहते हैं, 'डर था कि कहीं ये नोट ना बदलवा पाया तो 3000 रुपए का हर्जा हो जाता.' भोला का अब एक बैंक एकाउंट है. लेकिन फिर भी वो एहतियातन अपने पास छोटे नोट रखते हैं. कहते हैं मोदी जी ने किया है तो कुछ सोचकर ही किया होगा. अब मुझे कोई दिक्कत नहीं है.

अच्छा कहें या बुरा?

नोटबंदी से फायदा हुआ या नुकसान? इसका नुकसान सिर्फ हां या ना में नहीं दिया जा सकता है. इसकी आलोचना करने वालों का भी कहना है कि इससे कुछ तो फायदा हुआ है. वैसे यह अलग बात है कि वो मानते हैं कि नोटबंदी का ऐलान जिस मकसद के साथ हुआ, वह पूरी तरह नाकामयाब रहा.

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अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री ऋतिका खेरा का कहना है, 'सरकार ने चूहा मारने के लिए पूरा घर जला दिया.' उन्होंने कहा, 'सरकार ने पहले दावा किया था कि नोटबंदी के बाद दो तिहाई पैसा बैंक में वापस आएगा. एक तिहाई जो ब्लैकमनी है वो नहीं आएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.' करीब 99 फीसदी रकम सिस्टम में वापस लौट आए. इससे ब्लैकमनी के खिलाफ सरकार का यह सर्जिकल स्ट्राइक उस तरह असरदार नहीं हो पाया, जैसी उम्मीद थी.

कुछ तो बात है

इस बात का कोई पक्का सबूत नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी का फैसला कब लिया. लेकिन कहा ये भी जाता है कि इस बात की खबर फाइनेंस मिनिस्टर अरुण जेटली तक को नहीं थी. लेकिन इस बारे में कुछ पक्का नहीं कहा जा सकता है.

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नोटबंदी भारत के इतिहास की एक ना भूलने वाली घटना बन गई है. बिना वक्त दिए प्रधानमंत्री ने एक झटके में 500 और 1000 रुपए के नोट बैन करने का फैसला दे दिया. भले ही इस फैसले का असर उस तरह नहीं हुआ जैसा सरकार उम्मीद कर रही थी. लेकिन इस फैसले की अहमियत भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुत ज्यादा है. यह कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था में जिस तरह मनमोहन सिंह का जिक्र आता है. उसी तरह आने वाले दिनों में नरेंद्र मोदी का नाम दोहराया जा सकता है.

1990 के दशक में मनमोहन सिंह ने जब वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला तब भारत की अर्थव्यवस्था की हालत बेहद खस्ता थी. 1947 से 1990 के बीच भारत में कारोबार करना बहुत मुश्किल था. चालू खाता घाटा जीडीपी का 8 फीसदी तक पहुंच गया था. होलसेल महंगाई 13 फीसदी और रिटेल महंगाई 17 फीसदी थी. उस वक्त मनमोहन सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था खोलने और निवेश बढ़ाने का फैसला किया.

उन्हें उस वक्त चौतरफा आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा. लेकिन उसके सकारात्मक असर को भुलाया नहीं जा सकता. मुमकिन है कि नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले का आकलन भी आने वाले दिनों में इसी तरह किया जाएगा.

बदलाव का कुछ तो असर होगा 

इसमें कोई शक नहीं है कि नोटबंदी से छोटे कारोबारियों पर तगड़ी चोट पड़ी है. लेकिन एक साल में हालात काफी बेहतर हो गए हैं. अगर जीएसटी इस साल 30 जून की आधी रात से लागू नहीं होता तो शायद नोटबंदी का दर्द और कम होता. नोटबंदी के बाद कुछ लोगों का दबा हुआ पैसा सामने आया. उन्हें आयकर विभाग के सवालों का जवाब भी देना पड़ रहा है.

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नोटबंदी की जरूरत भारतीय अर्थव्यवस्था को थी या नहीं, इस पर बहस हो सकती है. लेकिन नोटबंदी से ठीक एक दिन पहले अरुण जेटली ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके यह भरोसा जताया कि ऐसा करने की सख्त जरूरत थी. उन्होंने कहा, 'देश की अर्थव्यवस्था की यथास्थिति को बदलना बहुत जरूरी थी. किसी भी अर्थव्यवस्था कैश बहुत ज्यादा नहीं होना चाहिए. लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था में कैश जीडीपी का 12.2 फीसदी था.'

उन्होंने यह भी कहा, 'कैश ज्यादा होने से भ्रष्टाचार की आशंका बढ़ जाती है.' नोटबंदी से भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म हुआ हो गया हो ऐसा नहीं है लेकिन मोदी ने अर्थव्यवस्था में एक फर्क तो जरूर पैदा कर दिया है.