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पीएम मोदी का इजरायल दौरा: इतिहास की केंचुली छोड़ नए संबंधों की शुरुआत

इजरायल ने भारत को हमेशा खास माना, लेकिन भारत के लिए ऐसा कभी भी आसान नहीं रहा

Piyush Pandey

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज शाम जब इजरायल के किंग डेविड होटल पहुंचेंगे तो होटल की छत के ऊपर भारतीय तिरंगा शान से लहरा रहा होगा. ऐसा संभवत: पहली बार है, क्योंकि अमूमन दूसरे देशों के राष्ट्र प्रमुख जब इजरायल के इस होटल में रुकते हैं तो उन्हें इजरायल का ही झंडा देखने को मिलता है.

इजरायल के लोग बेसब्री से मोदी का इंतजार कर रहे हैं तो इसकी बड़ी वजह वो मान्यता है, जो इजरायल को भारत से आज तक नहीं मिल पाई है.


जबकि सच यह है कि इजरायल और भारत का संबंध सिर्फ दो देशों का संबंध नहीं है. दोनों देशों के बीच दो सभ्यताओं का आपसी जुड़ाव भी है. संस्कृत के शब्द 3000 साल पुरानी हिब्रू बाइबल में दिखाई देते हैं. इजरायल के जन्म से पहले उसके संस्थापक डेविड बेन गुरियन ने भारत को महान सभ्यता करार दिया था. उन्होंने इजरायल के लोगों से बार बार आग्रह किया कि वो भारत जाएं और भारत को समझें.

तस्वीर: http://www.pmindia.gov.in से साभार

इजरायल के लिए भारत हमेशा खास रहा है

इजरायल ने भारत को हमेशा खास माना, लेकिन भारत के लिए ऐसा कभी भी आसान नहीं रहा. इजरायल के अस्तित्व को ही भारत की तरफ से चुनौती मिली. आलम यह कि महात्मा गांधी ने 26 नवंबर 1938 को 'हरिजन' पत्रिका में यहूदियों को अपना दोस्त बताते हुए लिखा-

'यहूदियों के लिए धर्म के आधार पर अलग देश की मांग मुझे ज्यादा अपील नहीं करती. फिलीस्तीन अरबों का है, जिस तरह इंग्लैंड ब्रिटिश का और फ्रांस फ्रेंच लोगों का है और अरबों पर यहूदियों को थोपना गलत और अमानवीय है.'

ऐसा नहीं है कि गांधी के मन में यहूदियों के प्रति सहानुभूति नहीं थी, लेकिन उन्हें अलग इजरायल न्याय के सिद्धांत के मुताबिक नहीं लगता था. लेकिन महात्मा गांधी के विचार भारत की आजादी से पहले के थे. वैसे, ये भी संयोग है कि भारत और इजरायल को ब्रिटेन से आजादी सिर्फ 9 महीने के अंतराल पर मिली.

भारत को 9 महीने पहले और इजरायल को 9 महीने बाद. डेविड बिन गुरियन ने 14 मई 1948 को इस्राइल राष्ट्र की स्थापना की घोषणा की गई और उसके साथ ही इस्राइल संयुक्त राष्ट्र में शामिल हो गया. अमेरिका के राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमेन ने उसी दिन इस नए राष्ट्र को मान्यता भी दे दी. लेकिन संयुक्त राष्ट्र में भारत ने फिलीस्तीन के विभाजन की योजना के विरोध में मतदान किया था. हालांकि, विभाजन की योजना को दो तिहाही बहुमत मिला. इसके पक्ष में 33 और विपक्ष में 13 मत पड़े. ब्रिटेन समेत 10 देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया.

आइंस्टीन का नेहरू के नाम लिखा खत

इजरायल भारत का समर्थन चाहता था, और यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग से कुछ महीने पहले इजरायल ने भारत का समर्थन हासिल करने के लिए प्रमुख यहूदी चेहरा और दुनिया के जाने माने वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन को मैदान में उतारा. आइंस्टीन जवाहरलाल नेहरू का बहुत सम्मान करते थे, और उनके बीच पहले भी कुछ मुलाकातें हो चुकी थीं. 13 जून 1947 को अपने चार पेज के खत में आइंस्टीन ने नेहरू को लिखा-

'प्राचीन लोग, जिनकी जड़ें पूरब में है, अरसे से अत्याचार और भेदभाव झेल रही हैं. उन्हें न्याय और समानता चाहिए.'

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नेहरू का आइंस्टीन को लिखा जवाब

इस खत में यहूदियों पर हुए अत्याचारों का विस्तार से जिक्र था. इसके अलावा कई तर्क थे कि क्यों यहूदियों के लिए अलग राष्ट्र चाहिए. नेहरू ने करीब एक महीने तक खत का जवाब नहीं दिया. फिर 11 जुलाई 1947 को जवाब देते हुए लिखा-

'मुझे यहूदियों के प्रति बहुत सहानूभूति है तो अरब लोगों के लिए भी है. मैं जानता हूं कि यहूदियों ने फिलिस्तीन में बहुत शानदार काम किया है और उन्होंने वहां के लोगों का जीवनस्तर सुधारने में बड़ा योगदान दिया है. लेकिन एक सवाल मुझे परेशान करता है. आखिर इतने बेहतरीन कामों और उपलब्धियों के बावजूद वो अरब का दिल जीतने में क्यों कामयाब नहीं हुए. वो अरब को उनकी इच्छा के खिलाफ क्यों अपनी मांगे मानने के लिए विवश करना चाहते हैं.'

वैसे इसी खत में नेहरू ने अपनी विवशता का यह कहते हुए जिक्र भी कर दिया कि देशों को अपने हित देखने पड़ते हैं और उन्हें स्वार्थी नीतियां अपनानी पड़ती है. दरअसल, भारत इजरायल का समर्थन कर अरब मुल्कों के खिलाफ नहीं जाना चाहता था, और नेहरू को डर था कि इससे भारतीय मुसलमान भी खासे नाराज हो जाएंगे. यह डर अरसे तक कायम रहा.

आलम ये कि 23 जनवरी, 1992 को जब इजरायल के साथ कूटनीतिक संबंध का भारतीय कैबिनेट ने अनुमोदन किया तो मानव संसासन विकास मंत्री अर्जुन सिंह को इस बात का डर था कि इससे कांग्रेस का मुस्लिम वोट प्रभावित हो सकता है. इस बात का जिक्र तत्कालीन विदेश सचिव जे एन दीक्षित ने अपने संस्मरण में किया है.

दरअसल, कांग्रेस का शुरुआती दौर से स्टैंड ही यही था. कांग्रेस ने फिलीस्तीन को लेकर 1916 में सबसे पहले और 1922, 1924, 1928, 1930, 1938 में स्थाई रूप से प्रस्ताव को दोबारा पास किया. भारत अलग-अलग अरब-इजरायल युद्धों में अरबों के साथ खड़ा रहा.

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पहली बार भारत के प्रधानमंत्री इजरायल दौरे पर

यूं भारत इजरायल के बीच राजनयिक संबंध बने 25 साल हो गए हैं. कृषि, तकनीक और रक्षा क्षेत्रों के बीच भारत के संबंध धीरे धीरे ऊंचाई छू रहे हैं.

इजरायल के हथियार निर्यात का तो 48 फीसदी भारत को होता है. लेकिन इजरायल दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की जिस मान्यता को अपने जन्म के साथ चाहता था, वो शायद उसे आज मिल रही है.

भारत का कोई प्रधानमंत्री पहली बार इजरायल जा रहा है. इतना ही नहीं, पहली बार कोई राजनेता इजरायल के दौर पर जाते हुए फिलीजस्तीन नहीं जा रहा. यानी संबंधों के संतुलन का पुराना ढर्रा भारत छोड़ रहा है. प्रधानमंत्री मोदी इतिहास का केंचुल उतारकर नए संबंधों का आगाज कर रहे हैं.