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क्या अकेला बैल निपट सकेगा क्रिकेट के इस संकट से!

गाय के चमड़े की कमी से क्रिकेट बॉल बनाने वाली कंपनियां उजड़ने की ओर

Jasvinder Sidhu

विराट कोहली की टीम ने वनडे के बाद टी-20 में भी ऑस्ट्रेलियाई टीम का बुरा हाल करना शुरू कर दिया है. टीम अच्छा खेल रही है और इसके लिए उसे पूरा श्रेय मिलना चाहिए. लेकिन इस सबके बीच देश में खेल का सामान बनाने वाले उद्योग जगत की हालत भी ऑस्ट्रेलिया जैसी हो गई है. इस समय वह उजड़ने की ओर बढ़ रहा है.

पिछले दो सालों में गौ रक्षा के अभियानों के तहत काफी लोगों पर हमले हुऐ और कुछ को इसमें अपनी जान भी गंवानी पड़ी. इस सब का परिणाम यह हुआ कि क्रिकेट बॉल बनाने वाली मेरठ और जालंधर की यूनिटों में चमड़े की भारी कमी हो गई है और सैकड़ों कारीगरों की नौकरी जा चुकी है.


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बड़ी और निर्यात करने वाली यूनिटों ने किसी भी विवाद से बचने के लिए चमड़ा इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया से मंगवाना शुरू कर दिया है और कस्टम लगने की वजह से क्रिकेट बॉल का दाम दोगुना होने के करीब है.

गाय की जगह बैल की खाल का इस्तमाल

जैसा कि भारत में होता है कि कोई भी संकट हो तो कोई न कोई जुगाड़ करके बाहर निकलने का रास्ता निकाल लिया जाता है. कई कंपनियां ने जो आयात करने में सक्षम नहीं हैं, गाय के चमड़े की जगह क्रिकेट बॉल के लिए बैल की मोटी खाल का इस्तेमाल शुरू कर दिया है. लेकिन बैल की खाल काफी मोटी होती है और घास पर ओस या पानी के कारण जल्दी फूलने के साथ भारी हो जाती है. इसके अलावा इसकी फिनिशिंग भी काफी खराब है. लेकिन इस समय इंडस्ट्री के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है.

उत्तर भारत में क्रिकेट बॉल के सबसे बड़े सप्लायरों में से एक बताते हैं कि देश में मेड इन इंडिया का नारा लगाया जा रहा है, लेकिन हजारों लोगों को रोजगार देने वाली क्रिकेट बॉल इंडस्ट्री पूरी तरह से डूब गई है. विदेश से गाय की खाल आ रही है और उससे गेंद बन रही हैं. समझ से बाहर है कि सरकार अपनी चलती हुई इंडस्ट्री को डूबता हुआ देख रही है और बात हो रही है मेक इन इंडिया की.

यहां बताना जरुरी है कि आम जनमानस की भावनाओं को देखते हुए इंडस्ट्री यहां गाय की खाल की मांग नहीं कर रही है. इस पेशे से जुड़े हुए जानकार चाहते हैं कि सरकार बैल की खाल को गाय के लेदर की तरह सॉफ्ट करने के लिए आधुनिक मशीने और इसके लिए जरूरी अन्य चीजे मुहैया करवाए.

बैल का लेदर मोटा होता है और हाथ से सिलाई करना काफी मुश्किल भरा है. सामान्य लेदर में एक कारीगर दिन में 20-25 गेंद बना सकता है, जबकि बैल की खाल की 8-10 ही बन पाती हैं. इस कारण कम उत्पादन के बाद भी ज्यादा मजदूरी देनी पड़ रही है.

जीएसटी से भी पड़ा है असर

इससे इंडस्ट्री में काफी असंतोष है, क्योंकि जीएसटी की वहज से कारोबार आधे से भी कम हो गया है. उस पर खाल का संकट और मुश्किल में डाल रहा है.

सरकार उद्योगों में कम से कम मजदूरी 18 हजार रुपए करने पर विचार कर रही है. यह अच्छा कदम है, लेकिन संकट झेल रही क्रिकेट बॉल इंडस्ट्री के लिए यह बुरी खबर है. क्योंकि पिछले दो साल में खाल की कमी के कारण पहले ही काफी लोग अपनी नौकरी गंवा बैठे हैं और अगर कंपनियों को ज्यादा पैसा देना पड़ा तो वे और लोगों को बाहर करेंगी.

इसलिए जरुरी है कि जितने भी क्रिकेट प्रेमी विराट कोहली की टीम के लिए दुआ करते हैं, वे बॉल बनाने वाले मजदूरों के लिए भी ऊपर वाले से विनती करें तो शायद कुछ मदद हो जाए.