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बर्थडे स्पेशल: बदलते भारत के साथ जुड़ती है सचिन की कहानी

यह जानना जरूरी है कि उदारीकरण और क्रिकेट के बढ़ते बाजार के वक्त में सचिन का होना किस मायने में अहम था

Rajendra Dhodapkar

सन 1989 में सचिन तेंदुलकर के अंतरराष्ट्रीय करियर की शुरुआत हुई. इसी वक्त आम चुनाव में कांग्रेस को हरा कर विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार बनी. इसके बाद राजनैतिक उथलपुथल और अस्थिरता का दौर चला. अगले कुछ साल मंडल और मंदिर के थे.  सन 1991 में राजीव गांधी की हत्या हुई. इसी साल भारत में आर्थिक उदारीकरण का आगाज हुआ.

उदारीकरण के बाद भारत में क्रिकेट की आर्थिक ताकत का अहसास हुआ. आगे जब जगमोहन डालमिया बीसीसीआई के अध्यक्ष बने तो उनके दौर में भारत विश्व क्रिकेट की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में उभरा. इस दौरान सचिन का कद विश्व क्रिकेट मे लगातार बढ़ता गया.


सचिन के संदर्भ में ये सब याद करने की जरूरत इसलिए है, ताकि हम समझ सकें कि वह वक्त कितना अस्थिर था और थोड़े से वक्त में कितने बड़े बदलाव हो रहे थे. यह भी कि कहना जरूरी है कि उदारीकरण और क्रिकेट के बढ़ते बाजार के वक्त में सचिन का होना किस मायने में महत्वपूर्ण था. सचिन भारतीय क्रिकेट के अब तक के सबसे बड़े सितारे हैं और क्रिकेट की लोकप्रियता और आर्थिक ताकत बढ़ाने में उनकी जो भूमिका है उतनी बड़ी भूमिका शायद ही किसी की हो.

मैच फिक्सिंग कांड के बाद भी बेदाग निकले थे सचिन

यह तथ्य तब ज्यादा मुखर होकर सामने आया, जब मैच फिक्सिंग कांड हुआ. क्रिकेट में अचानक आए पैसे से बौरा कर कई बड़े खिलाड़ी बहक गए और उन्होंने पैसे को खेल से ज़्यादा महत्वपूर्ण माना. जब इन खिलाड़ियों ने खेल की विश्वसनीयता को ही संकट में डाल दिया था तो खेल के सबसे बड़े और लोकप्रिय सितारे के बेदाग बर्ताव ने खेल की विश्वसनीयता को बनाए रखा.

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सचिन ने तब खेल को वह नैतिक आधार दिया जिसकी उसे सख्त जरूरत थी. एक अस्थिरता, संदेह और लालच से भरे वक्त में यह सौभाग्य था कि भारतीय क्रिकेट में सचिन, गांगुली, लक्ष्मण, द्रविड़ और कुंबले जैसे खिलाड़ी थे जिन पर कोई दाग नहीं लग सकता था. सचिन लंबे वक्त तक भारतीय क्रिकेट के प्रतीक पुरुष रहे और उन्होंने इस जिम्मेदारी को मैदान में और मैदान के बाहर पूरी जिम्मेदारी से निभाया. इसके लिए हमें उनका आभारी होना चाहिए.

सार्वजनिक जीवन में सचिन की सौम्यता उन्हें अलग करती है

सचिन के बारे में यह बात कभी भी सुनने में नहीं आई कि किसी से उन्होंने रूखे ढंग से बात की या दुर्व्यवहार किया. इतने लंबे वक्त तक सार्वजनिक जीवन में रहे व्यक्ति के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि है. ऐसा नहीं है कि उनके साथ विवाद नहीं जुड़े. लेकिन जितने बड़े वे सितारे हैं, चौबीस घंटे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया के दौर में ये विवाद बहुत कम हैं. क्रिकेट में ऐसी विश्वसनीयता और सम्मान होना बहुत बड़ी बात है जैसा सचिन का है.

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यह दिखता है कि सचिन को अपनी जिम्मेदारी का अहसास है, बल्कि कुछ ज्यादा ही अहसास है और उसका असर उनके खेल पर भी पड़ा. किसी कलाकार की कला की तरह खिलाड़ी का खेल भी उसकी आत्म अभिव्यक्ति का जरिया होता है.

उन्मुक्त सचिन से जिम्मेदार सचिन तक

शुरू के चार-पांच साल सचिन के खेल का अंदाज बिल्कुल अलग था. उसमें एक उन्मुक्तता और मजे का तत्व था. धीरे-धीरे उन्हें यह अहसास हुआ कि एक पूरे देश की उम्मीदें उन पर टिकी हैं. उनके कुछ वरिष्ठ और साथी खिलाड़ियों की गैरजिम्मेदारी ने उनमें जिम्मेदारी का अहसास और ज्यादा गहरा कर दिया.

उसके बाद उनकी बल्लेबाजी की उन्मुक्त काव्यात्मकता मे कुछ गद्य का तत्व शामिल होने लगा. इस जिम्मेदारी के बोझ को जरूरत से ज्यादा महसूस करने की वजह से ही वे सफल कप्तान नहीं हुए बल्कि बाद मे कप्तानी से बचते रहे.

गावस्कर ने दी सचिन को दबाव से बचने की सलाह

एक वक़्त यह भी आया जब उनकी बल्लेबाजी पर इसका बहुत नकारात्मक असर होने लगा था. तब सुनील गावस्कर ने उन्हें सलाह दी थी कि उन्हें साबित करने के लिए कुछ बचा नहीं है. अगर वे दबाव महसूस किए बिना मजे में खेलना शुरू करें तो वे फिर कामयाब हो सकते हैं.

यह सलाह देने के लिए सुनील गावस्कर सबसे उपयुक्त इंसान थे क्योंकि वे भी ऐसे दौर से गुजर चुके थे. सारी टीम की जिम्मेदारी अपने सिर पर महसूस करने के दबाव में गावस्कर के खेल पर ऐसा असर हुआ कि वे खुद आत्मविश्वास खो बैठे. लोगों को याद होगा कि सन 1984 में कानपुर टेस्ट में कैसे मैलकम मार्शल की गेंद पर गावस्कर के हाथ से बल्ला छूट गया था. वे ओपनिंग छोड़ कर मध्य क्रम में बल्लेबाजी करने की गंभीरता से सोचने लगे थे. लेकिन दिल्ली टेस्ट में उन्होंने सारे दबावों को छोड़कर खुलकर खेलने का फैसला किया और उसके बाद उनके करियर की एक नई पारी शुरू हुई.

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गावस्कर की सलाह पर सचिन अमल नहीं कर पाए. शायद इसलिए कि गावस्कर का बौद्धिक और मानसिक ढांचा सचिन से अलग है. सचिन अपेक्षाकृत सरल और सीधे आदमी हैं. इसके अलावा दोनों का दौर भी अलग है. इस दौर के लोकप्रिय खिलाड़ियों पर दबाव भी ज्यादा हैं. सचिन ने अपनी तरह से दबावों का सामना किया और वे कामयाब भी रहे.

सचिन की बल्लेबाजी के बारे में कुछ कहना इसलिए बेकार है क्योंकि ऐसा कुछ कहने के लिए नहीं होगा जो लोग न जानते हों. जिसे देखकर डॉन ब्रैडमैन को अपने खेल की याद आ जाए उसके बारे में क्या कहा जा सकता है. वैसे भी किसी बड़े खिलाड़ी का प्रभाव किसी बड़े जननेता, विचारक, लेखक या कलाकार की तरह सिर्फ उसकी विधा पर नहीं, बल्कि व्यापक समाज पर होता है. सचिन एक तेजी से बदलते दौर मे भारतीय क्रिकेट की रीढ़ की हड्डी बने रहे. करोड़ों लोगों की उम्मीदों और विश्वास को उन्होंने थामे रखा. यह उनका योगदान असाधारण है.