view all

बॉलीवुड 2018: सत्ता परिवर्तन और महिला विरोध का साल

मिसोजनी (महिला विरोध) भारत की रग-रग में बसा है. 2018 भारत में मीटू के लिए बड़ा साल है, लेकिन समग्र रूप से इसमें बहुत कुछ ऐसा हुआ जिसे महिला विरोधी कहा जाएगा

Animesh Mukharjee

साल 2018 हिंदी सिनेमा के लिए ऐतिहासिक रहा. वैसे तो हर साल के खत्म होने पर ये लाइन दोहरा दी जाती है, लेकिन इस बार मामला अलग है. 2018 की राजनीति और मनोरंजन में काफ़ी समानताए रहीं. साल की शुरुआत तमाम विवादों के बाद 'पद्मावत' से हुई थी. तब धारणा थी कि फिल्म कैसी भी हो, लेकिन बड़े बजट की है तो पैसा कमा ही लेगी. ठीक इसी तरह राजनीतिक परिदृश्य तब में त्रिपुरा में वामपंथ के आखिरी किले के ढहने, कांग्रेस मुक्त भारत के लगभग साकार होने की अवधारणाएं थीं. साल खत्म होते-होते न किसी खान को ईदी मिली, न किसी का दिवाली बोनस आया और क्रिसमस प्रेज़ेंट की उम्मीद भी धरी रह गई. बाकी रही राजनीति की बात तो उसके लिए 2019 में चर्चा करेंगे. फिलहाल 2018 की मनोरंजक यात्रा पर बात करते हैं.

आइटम नंबरों का जाना


पिछले कुछ सालों से आइटम नंबर को फिल्म की सफलता का अनिवार्य अंग बना दिया गया था. रिंगटोन जितनी लंबाई की हुक लाइनें ही सफल हो सकती हैं, जैसे ज्ञान दिए जाते थे. 2018 में 'स्त्री' फिल्म के 'आओ कभी हवेली पे' को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई आइटम सॉन्ग चर्चा में रहा हो. 'स्त्री' में भी ये गाना ही सबसे कम चर्चित चीज़ थी. हालांकि आइटम नंबर की जगह 90 के दशक के पुराने गानों ने ली. 2 दशक पहले इन्हें रीमिक्स कहा जाता था अब रीक्रिएशन कहा जा रहा है. इनमें से 'सिंबा' के 'आंख मारे' जैसे गाने तो खूब चले लेकिन 'बागी 2' के 'सात समंदर पार' को लोगों ने तवज्जो नहीं दी.

इन रीक्रिएशन वाले गानों के अलावा एक और सुकून भरी बात हुई. साल के दो सबसे चर्चित गानों में एक 'राज़ी' का 'ऐ वतन मेरे' है जबकि दूसरा 'अंधाधुन' का 'नैना दा क्या कसूर है' दोनों में ही न क्लब वाला टेक्नो म्यूज़िक था. न बीच में हरयाणवी रैप था और न ही अरिजीत सिंह की नकल में उथले गले से गाने की कोशिश थी.

बड़े नामों का डूबना

हिंदुस्तान में हर 3-4 साल पर कुछ एक अच्छी अप्रत्याशित रूप से फिल्में चल जाती हैं. लोगों को लगता है कि अच्छे सिनेमा का दौर आ गया है लेकिन ऐसा होता नहीं है. डोर, लाइफ इन ए मेट्रो, कहानी जैसी फिल्में तो चलती हैं लेकिन बड़े बजट और खान सितारों से सजी बेसिर पैर की फिल्में और ज़्यादा चलती हैं. इस बार ऐसा नहीं हुआ. औंधे मुंह गिरने वाली फिल्मों में सिर्फ ठग्स ऑफ हिंदोस्तान ही नहीं थी. रेस थ्री और ज़ीरो की लिस्ट में सत्यमेव जयते, बाज़ार, फन्ने खां, धड़क, नमस्ते इंग्लैंड, बागी 2, पल्टन, भैया जी सुपरहिट, यमला पगला दीवाना 2, हेलीकॉप्टर ईला, ब्लैकमेल और कारवां जैसी फिल्में थीं.

ये भी पढ़ें: अलविदा 2018: वो 5 विवादित बयान, जिनसे शर्मसार हुई भारतीय राजनीति

किसी में पर्फेक्शन वाले खान थे, किसी में पुराने सीक्वेंस को भुनाने की कोशिश, किसी का डायरेक्टर दमदार था तो किसी में शानदार ऐक्टिंग करने वाले इरफ़ान खान. मगर इन सबकी कहानी रद्दी, ट्रीटमेंट खराब और पुराने फॉर्मूलों पर आधारित था. अच्छी फिल्मों का थिएटर में शानदार बिज़नेस होने से ज़्यादा अच्छा इन खराब फिल्मों का पिट जाना रहा.

इस पूरे बदलाव की नींव में इस साल नेटफ़्लिक्स और एमेज़ॉन प्राइम जैसे स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म रहे. पहली बार बड़े स्तर की वेब सीरीज़ बनीं. ट्रेन, बस, लोकल, मेट्रो, ऑटो में सफर के दौरान इयरफोन लगाकर मोबाइल पर मनोरंजन तलाश रहे लोग नए ग्राहक बने. इसलिए सोशल मीडिया पर सबसे चर्चित डायलॉग्स सेक्रेड गेम्स और मिर्ज़ापुर के रहे. नेटफ्लिक्स की सेक्रेड गेम्स अपनी सारी अच्छाइयों और कमियों के बाद भी सभी अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरी उतरती है, वहीं उसके बाद उसी ढर्रे पर बने ज़्यादातर शो हिंसा और गालियों की लीक को दोहराते नज़र आते हैं.

2019 में सिनेमा बनाम वेब सीरीज़ की जंग तेज़ होगी. लेकिन इसमें अभी भी कई चुनौतियां हैं. एक ओर अलग-अलग प्लेटफ़ॉर्म का खर्च बड़ा मुद्दा है, वहीं दूसरी तरफ सेंसरशिप की मांग भी एक कारक होगी. बाज़ार पकड़ के मामले में जहां एमेजॉन आगे है वहीं गुणवत्ता की कसौटी पर नेटफ़्लिक्स खरा उतरता है. ऐसे में सबसे ज़्यादा मार अपने वास्तविक कद से बहुत ज़्यादा बड़े माने जाने वाले उन सुपर स्टार को पड़ने वाली है, जिनका कद और मिजाज़ मोबाइल की स्क्रीन में समाता नहीं है. वैसे इस पूरे बदलाव के बीच फैंटम फिल्म्स का टूट जाना थोड़ा दुखद रहा.

महिलाओं को हाशिए पर ढकेलने का साल

मिसोजनी (महिला विरोध) भारत की रग-रग में बसा है. 2018 भारत में मीटू के लिए बड़ा साल है, लेकिन समग्र रूप से इसमें बहुत कुछ ऐसा हुआ जिसे महिला विरोधी कहा जाएगा. बस फर्क इतना है कि कई बार यह प्रगतिशीलता और मनोरंजन की चाशनी में लपेटकर परोसा गया. साल की शुरुआती फ़िल्म 'सोनू के टीटू की स्वीटी' को ही ले लीजिए. लव रंजन अपनी पिछली फिल्मों की तरह ही प्रेमिकाओं के खिलाफ मोर्चा खोलने में पीछे नहीं हटे. इस बार की कहानी को तो ज़हर उगलना भी कहा जा सकता है. इसी फ़िल्म के गाने 'बॉम डिगी-डिगी' के बोल वीडियो में घोर द्विअर्थी तरीके से फ़िल्माए गए हैं. सैक्रेड गेम्स में सेक्स के साथ जिस तरह की हिंसा जोड़ी गई है, वो भयावह है. एक प्रमुख महिला किरदार नायक को उकसाती है कि वो हिंसा करे. दो हत्याओं के बाद नायक अपनी पत्नी के साथ हिंसक तरीके से संबंध बनाता है.

पत्नी बेहद खुश और संतुष्ट होती है. मैरिटल रेप और घरेलू हिंसा के अनगिनत मामलों के बीच इस सीन ने कइयों को 'डेयरिंग' करने के लिए उकसाया होगा. सिनेमा के पर्दे का यह भेदभाव उसके बाहर भी दिखा. इस साल की सबसे बड़ी हिट फ़िल्मों में 'बधाई हो' रही. तमाम मीडिया संस्थानों में साल के सफ़ल कलाकारों को बातचीत के लिए बुलाया गया, इंटरव्यू हुए. केदारनाथ जैसी फ्लॉप से शुरुआत करने वाली सारा अली खान को भी बुलाया गया, मगर 200 करोड़ से ज़्यादा कमाई करने वाली इस फ़िल्म की रीढ़ नीना गुप्ता हर जगह से नदारद रहीं. खुद नीना ने ट्वीट कर कहा कि फ़िल्म तो उनकी भी हिट हुई लेकिन वो बूढ़ी हैं तो उन्हें किसी ने बुलाया नहीं.

ये भी पढ़ें: अलविदा 2018: जाते हुए साल के वो हसीन पल तो देख लीजिए जिन पर बने कई मीम

इसके बीच 'वीरे दी वेडिंग' भी रही जहां चार अमीर महिलाएं पुरुषों की तरह महिला सूचक गालियां देती हैं और इसे सशक्तिकरण कहा जाता है. वीरे दी वेडिंग जैसी फिल्म के शोर में 'भावेश जोशी सुपरहीरो' जैसी ढंग की फ़िल्म का गुमनाम रह जाना भी एक कसकने वाली बात रही. साथ ही साथ मीटू ने नाना पाटेकर और आलोकनाथ जैसे कथित अच्छी छवि रखने वाले कलाकारों के दामन पर भी दाग लगाए. लेकिन लगभग 1 महीने के हंगामे के बाद मीटू बेअसर ही रहा. विकास बहल फिर से अपनी सुपर 30 में काम कर रहे हैं.

नाना पाटकेर अपनी फ़िल्मों के शूट निपटा रहे हैं. सुभाष कपूर, पीयूष मिश्रा, वरुण ग्रोवर जैसे तमाम नाम अपने काम में व्यस्त हैं. अधिकतर के ऊपर कोई कानूनी मामला नहीं है, न कोई दोषी साबित हुआ है. फिलहाल सिर्फ़ आलोकनाथ को ही काम मिलने में समस्या है, संभव है कुछ समय बाद वो भी पर्दे पर दिखें. 2018 में जैसे ही शादियों का मौसम शुरू हुआ तमाम बड़ी शादियों की चमक-दमक में मीटू का शोर दब गया.

2018 के अंत में कुछ ट्रेलर नया चलन लेकर आए हैं. शायद आज़ाद भारत में यह पहली बार होगा कि चुनावी प्रोपोगैंडा के मद्देनज़र फ़िल्में बन रही हैं. पिछले साल कुछ फिल्मों में देशभक्ति के नाम पर सरकारी योजनाओं का ज़िक्र किया गया था. मगर अगली बार फिल्म से प्रचार होगा. अच्छे दिन कब आएंगे और नोटबंदी पर बनी फिल्मों पर तो सेंसर बोर्ड की कैंची चल गई थी. इन फिल्मों का क्या हश्र होगा ये देखने वाली बात होगी. साल की शुरुआत श्रीदेवी के निधन से हुई थी. इसके बाद हमने कल्पना लाज़मी, मोहम्मद अजीज़, रीता भादुड़ी, नर्गिस रबाड़ी और विनोद अग्रवाल (भजन गायक) को भी खो दिया. उम्मीद है कि 2019 में हमें कुछ सुखद बदलाव देखने को मिलेंगे. नववर्ष मंगलमय हो.

नए साल के अवसर पर हमने अपने पाठकों से Quiz पूछा था. इन सवालों के जवाब इस तरह हैं...

1. एस्टोनिया

2. आयरलैंड

3. समोआ, टोंगा और क्रिसमस आयलैंड

4. अफगानिस्तान

5. साउथ अफ्रीका

6. मेसोपोटामियन सिविलाइजेशन

7. 8 प्रतिशत

8. भारत

9. बेकर आयलैंड और हाउलैंड आयलैंड, अमेरिका

10. यह सभी देश