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संगीत को भाषा देने वाले महान कलाकार पंडित विष्णु नारायण भातखंडे की कहानी

जरा सोचिए कि रागों को सीखा कैसे जाता होगा? वर्षों पहले एक वक्त था जब श्रुति परंपरा में चीजें सीखी जाती थीं. यानी अपने गुरु से आपने कुछ सुना और उसे सुनकर सीखा.

Shivendra Kumar Singh

आपने अपनी जिंदगी में कभी न कभी शास्त्रीय संगीत जरूर सुना होगा. यमन, पीलू, भैरव, मल्हार जैसी तमाम रागों में से कुछ का नाम भी आपने जरूर सुना होगा. ये बिल्कुल संभव है कि आपको वो संगीत और राग की बातचीत समझ न आई हो. लेकिन आपको ये जरूर बताया गया होगा कि आप जिस किस्म का भी हिंदुस्तानी संगीत सुनते हैं उसका आधार शास्त्रीय संगीत ही है.

आप गजल सुनें, भजन सुनें, ठुमरी सुनें इन सभी की जड़ में शास्त्रीय संगीत है. यहां तक कि कई लाजवाब सदाबहार हिंदी फिल्मी गाने भी शास्त्रीय रागों पर आधारित हैं. अब जरा सोचिए कि इन रागों को सीखा कैसे जाता होगा? वर्षों  पहले एक वक्त था जब श्रुति परंपरा में चीजें सीखी जाती थीं. यानी अपने गुरु से आपने कुछ सुना और उसे सुनकर सीखा.


ये वो दौर रहा होगा जब गुरु शिष्य परंपरा में शिष्य गुरु के साथ ही रहते होंगे. ये परंपरा अब भी खत्म नहीं हुई लेकिन पहले जैसी भी नहीं है. खैर, हम श्रुति परंपरा पर थे. जरा सोचिए कि आज के जमाने के कलाकार अगर श्रुति परंपरा में संगीत सीखना चाहते तो क्या ये संभव था? शायद बिल्कुल नहीं. आज कलाकार या कोई आम आदमी भी इसलिए संगीत सीख सकता है क्योंकि संगीत की एक भाषा है. उसे लिपिबद्ध किया गया है. आपको राग यमन जानना है तो आप पढ़ सकते हैं कि राग यमन क्या होता है? आज उसी महान कलाकार और संगीत के जानकार का जन्मदिन है जिन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत को लिपिबद्ध करने का श्रेय दिया जाता है. वो महान शख्सियत थे पंडित विष्णु नारायण भातखंडे.

प्रतीकात्मक तस्वीर

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर भी पंडित भातखंडे के समकालीन ही थे. उन्होंने भी संगीत को लिपिबद्ध करने का काम किया था लेकिन उनका तरीका बहुत कठिन माना गया. उनके मुकाबले भातखंडे की लिपियां आसान समझी गईं. पंडित विष्णुनारायण भातखंडे के पहले रागों को एक परिवार की तरह समझा जाता था.

एक परिवार में पुरुष, महिला और बच्चे की तरह राग हुआ करते थे. बाद में पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में थाट को ‘इन्ट्रोड्यूस’ किया. उन्होंने तमाम शास्त्रीय रागों को 10 थाटों में बांट दिया. जो बहुत ही वैज्ञानिक तरीका था. मंद्र सप्तक और मध्य सप्तक के स्वरों के साथ में लगने वाले निशान भी पंडित विष्णुनारायण भातखंडे की ही देन है. कोमल और तीव्र स्वरों के साथ में लगने वाले निशान भी उन्हीं की देन हैं.

पंडित विष्णुनारायण भातखंडे का जन्म 10 अगस्त 1860 को मुंबई के बालकेश्वर में हुआ था. घर का नाम था भातखंडे हाउस. वो जन्माष्टमी का दिन था. बचपन में नाम रखा गया गजानन. गजानन को बचपन से ही घर में संगीत का माहौल मिला. पिता खुद भी कलाकार और संगीत के जानकार थे. उन्होंने गजानन को स्कूली पढाई के साथ साथ संगीत की तालीम देना भी शुरू किया. विष्णु नारायण भातखंडे ने बाद में शास्त्रीय गायन के साथ साथ बांसुरी और सितार वादन में भी तालीम ली.

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ध्रुपद गायन के प्रतिष्ठित कलाकार राव जी बुआ बेलबागकर ने विष्णु नारायण भातखंडे को शास्त्रीय गायकी सिखाई. इसके अलावा उन्होंने अली हुसैन खान और विलायत हुसैन खान से भी सीखा. विष्णु नारायण भातखंडे के सितार गुरु थे वल्लभ दास दामुल. इतने दिग्गज कलाकारों की शिक्षा, घर का माहौल और विष्णु नारायण भातखंडे की काबिलियत का ही परिणाम था कि वो एक संपूर्ण कलाकार के तौर पर तैयार हुए.

शास्त्रीय संगीत की शिक्षा के साथ साथ उन्होंने अपनी पढ़ाई भी पूरी की. वो 1885 का साल था जब विष्णु नारायण भातखंडे ने अपनी वकालत की डिग्री हासिल कर ली. इसके बाद उन्होंने कराची में वकालत भी शुरू कर दी. वकालत और संगीत उनके जीवन के दो अध्याय बन गए थे. सबकुछ अच्छा चल रहा था जब किस्मत ने विष्णु नारायण भातखंडे को बड़ी चोट पहुंचाई.

कम उम्र में ही उनकी पत्नी और बेटी का निधन हो गया. पत्नी और बेटी का साथ छूटने के बाद विष्णु नारायण भातखंडे भावनात्मक तौर पर कमजोर हो गए. वकालत में उनका मन नहीं लगता था. उन्होंने वकालत छोड़ दी. कराची भी. विष्णु नारायण भातखंडे मुंबई आ गए. अब उन्हें किसी चीज में सुकून मिलता था वो बस संगीत में. असल मायने में यहीं से उनके जीवन का दूसरा अध्याय शुरू हुआ.

मुंबई आने के बाद विष्णु नारायण भातखंडे गायन उत्तेजक मंडली से जुड़े. इसके साथ ही साथ उन्होंने संगीत के तमाम पहलुओं पर विचार के लिए पूरे देश में घूमना शुरू कर दिया. अपनी यात्राओं के दौरान विष्णु नारायण भातखंडे अलग-अलग कलाकारों से मिले. उन्होंने अलग-अलग घरानों के नुमाइंदों से बातचीत की. विचार-विमर्श किया. सैकड़ों लोगों से उनका मिलना जुलना हुआ. इस प्रक्रिया के बाद विष्णु नारायण भातखंडे देश के अलग अलग हिस्सों में संगीत से जुड़ी बातों पर लेक्चर देने लगे.

करीब 15 साल का वक्त उन्होंने इन यात्राओं में बिताया. संस्कृत, तेलुगु, गुजराती, अंग्रेजी और उर्दू जैसी भाषाओं में संगीत की शिक्षा का इंतजाम किया. इन 15 सालों में विष्णु नारायण भातखंडे ने बड़ौदा, ग्वालियर और मुंबई में ज्यादा वक्त बिताया. इस दौरान उनका खुद का सीखने का सिललिसा भी चलता रहा. वो विष्णु नारायण भातखंडे ही थे जिन्होंने सबसे पहले कॉम्पोजीन को नोट किया.

उन्होंने बहुत ही दुर्लभ बंदिशों को इकट्ठा किया. वो भी कोई एक दो नहीं बल्कि 300 से ज्यादा बंदिशें उन्होंने इकट्ठा की थी. इन्हीं बंदिशों को उन्होंने बाद में प्रकाशित भी किया. इसमें उनकी खुद की कंपोज की हुई बंदिशें भी थीं. जो उन्होंने चतुर पंडित और विष्णु शर्मा के नाम से तैयार की थीं. इसी दौरान विष्णु नारायण भातखंडे ने महसूस किया कि संगीत की जानकारी को लेकर बहुत सी विचारधाराएं थीं. उन्हें समझ आ गया कि इस पूरी व्यवस्था को फिर से बनाना होगा. विष्णु नारायण भातखंडे जानते थे कि उन्हें इसके लिए कुछ नियम बनाने होंगे ऐसे नियम जो सभी को स्वीकार्य हों.

संगीत से जुड़े तमाम कलाकारों और घरानों के नुमाइंदों से सलाह मशविरे के मकसद से ही उन्होंने संगीत कॉन्फ्रेंस की शुरुआत की. उन्हें संगीत कॉन्फ्रेंस का जनक माना जाता है. इस कॉन्फ्रेंसों की कड़ी में उन्होंने 1916 में बड़ौदा, 1918 में दिल्ली, 1919 में बनारस और 1924-1925 को लखनऊ में कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था. जो एक तरह से शास्त्रीय संगीत से जुड़े सभी पक्षों के लिए बातचीत करने और सलाह मशविरे का मंच था.

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इन कॉन्फ्रेंस का सबसे बड़ा फायदा ये हुआ कि इसमें तमाम विचारधाराओं को लेकर चल रहे विवाद सुलझते गए. जिससे कई बातों को लेकर एक राय बनी. जो शास्त्रीय संगीत के लिए बहुत अच्छी बात थी. विष्णु नारायण भातखंडे अपने इन प्रयासों के साथ-साथ लगातार लिखने में भी व्यस्त रहे. उन्होंने संस्कृत, मराठी, हिंदी और अंग्रेजी में किताबें लिखीं. उनकी पहली किताब थी स्वर मालिका.

गुजराती में प्रकाशित इस किताब में रागों के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई थी. बाद में इस किताब का हिंदी संस्करण भी प्रकाशित हुआ. उन्होंने मराठी में भातखंडे संगीत शास्त्र भी लिखा, जो चार हिस्सों में छपा. विष्णु नारायण भातखंडे का ये प्रयास था कि इन किताबों के जरिए संगीत कॉमन लोगों तक पहुंचेगा.

विष्णु नारायण भातखंडे के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने करीब दो हजार बंदिशें इकट्ठा की थीं. इसके अलावा उन्होंने करीब 200 राग तैयार किए थे. उनकी पुस्तकों को राग का खजाना भी कहा जाने लगा. अपने इसी लेखन से उन्होंने हिंदुस्तानी संगीत पद्धति को एक नई पहचान दिलाई. इसके बाद ही उन्होंने संगीत की ‘सिस्टमेटिक’ शिक्षा पर जोर दिया.

सयाजी राव गायकवाड़ ( तस्वीर : विकीपीडिया )

उन्होंने बड़ौदा में महाराज के सयाजी राव गायकवाड़ की मदद से विद्यालय की शुरुआत की. ग्वालियर में भी उन्होंने विद्यालय की शुरुआत की. इसके बाद उन्होंने लखनऊ में राय उमानाथ बली राय राजेश्वर बली की मदद से लखनऊ से संगीत विद्यालय खोला. उस वक्त लखनऊ का विद्यालय सर विलियम सिंक्लेयर मैरिस के नाम पर था लेकिन बाद में विष्णु नारायण भातखंडे के नाम पर भातखंडे कहलाया. जो आज भी संगीत के क्षेत्र में देश के अग्रणी संस्थानों में से एक है. 19 सितंबर 1936 को पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने अंतिम सांस ली.