साल 1936 की बात है. उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के हरिहरपुर गांव में एक तबला वादक रहा करते थे. नाम था बद्री प्रसाद मिश्र. हरिहरपुर इलाके का जाना माना गांव था. पूरे इलाके में अपनी कला की वजह से उनका मान सम्मान भी था. उनके घर फरवरी महीने की 3 तारीख को एक बच्चा पैदा हुआ. बच्चे का नाम रखा गया मोहन लाल मिश्र.
पिता ने बचपन से ही बच्चे को संगीत की तालीम देना शुरू किया. उनकी ख्वाहिश थी कि बेटा एक गुणी कलाकार बने. बड़ा होकर परिवार का नाम करे. परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी लेकिन पंडित बद्री प्रसाद मिश्र अपने बेटे के संगीत पर पूरा ध्यान रखते थे. बेटा अभी 8-9 साल का ही हुआ था कि पंडित जी का तबादला मुजफ्फरपुर हो गया. नया शहर था. नया माहौल था. वहीं पर पंडित बद्री प्रसाद मिश्र अपने बेटे को लेकर किराना घराने के कलाकार अब्दुल गनी खान के पास गए. पंडित जी ने उनसे गुजारिश की कि वो उनके बेटे को अच्छी तरह शास्त्रीय संगीत सिखाएं. गुरु जी मान तो गए लेकिन उनसे संगीत सीखना इतना आसान नहीं था.
इसका किस्सा अभी आपको आगे बताएंगे. वहीं पर इस बच्चे का नाम उसकी गुरु मां ने बदल दिया. मोहन लाल मिश्र को बुरी नजर से बचाने के लिए के लिए गुरु मां ने उनका नाम रख दिया छन्नू. आज वही छन्नू दुनिया भर में छन्नू लाल मिश्र के नाम से विख्यात हैं.
दरअसल, छन्नू नाम रखे जाने के पीछे की सोच थी कि उन्हें 6 तरह के विकारों से दूर रखा जाए. उस जमाने में बच्चों की लंबी उम्र के लिए इस तरह के नाम रखे जाते थे. पिता जी छन्नू को लेकर बहुत ‘प्रोटेक्टिव’ थे. उनके जेहन में हमेशा एक ही बात रहती थी कि इस बच्चे को बड़ा होकर परिवार का नाम करना है.
अपने बचपन का एक किस्सा छन्नू लाल जी बड़े चाव से बताते हैं, 'वैसे तो मैं बचपन में ज्यादा शरारती नहीं था लेकिन एक किस्सा मुझे याद है कि एक बार हम कुछ बच्चे लोग गांव के एक तालाब के पास से कहीं जा रहे थे. गर्मी के दिन थे. मेरे साथ के लड़के तालाब में कूद गए और तैरना शुरू कर दिया. गर्मी थी ही, हमको भी पानी में कूदने का मन कर गया. गांव में तैरना ज्यादातर बच्चों को आता है, हमें भी आता था. हम पानी में तो कूद गए. पानी में मौज मस्ती भी कर ली, लेकिन पीछे से हमारे तालाब में तैरने की खबर पिता जी तक पहुंच गई. पिता जी आए और उन्होंने हमारी पिटाई कर दी. हमको लगा कि तालाब में तो इतने बच्चे तैर रहे थे, लेकिन पिटाई हमारी ही क्यों हुई. लेकिन बाद में जब पिता जी ने कहा कि अभी तालाब में डूब जाते तो बड़े होकर नाम कैसे करते। तब समझ आया कि पिटाई क्यों हुई थी.'
खैर, संगीत सीखने का क्रम भी छन्नू लाल मिश्र के लिए आसान नहीं था. छन्नू लाल भरी दोपहरी में गुरु के यहां जाते थे. वहां पहुंचने पर उस्ताद जी कहते थे जाओ खाना बनाने के लिए लकड़ी ले आओ. छन्नू लाल वापस उसी जबरदस्त गर्मी में जाते थे और गुरु के लिए लकड़ी लेकर आते थे. कंधे पर लकड़ी लादकर छन्नू लाल वापस पहुंचते तो उस्ताद जी बड़े अनमने भाव से लकड़ी देखकर कहा करते थे कि ये तो गीली लकड़ियां हैं, इन्हें कैसे जलाया जाएगा? इतना कहने का मतलब ही यही होता था कि दोबारा जाकर लकड़ियां ले आई जाएं. इतनी मेहनत करके पसीने-पसीने होकर आने के बाद दोबारा पूरी मेहनत करना.
एक दिन गुरु मां ने खां साहेब से पूछ ही लिया कि इस लड़के को इतना परेशान क्यों करते हो, उस्ताद जी ने तुरंत जवाब दिया कि मैं संगीत सीखने की उसकी लगन को परखना चाहता हूं. गुरु मां छन्नू को बहुत प्यार करती थीं, लेकिन वो भी चुप हो गईं. देखते-देखते कब 8-9 साल निकल गए पता ही नहीं चला. छन्नू लाल मिश्र ने करीब 9 साल तक उस्ताद जी से शास्त्रीय संगीत की बारीकियों को सीखा. धीरे-धीरे उस्ताद जी को छन्नू लाल की लगन और काबिलियत पर भरोसा हो गया. छन्नू लाल की गायकी के अंदाज की चर्चा भी होने लगी.
छन्नू लाल जी अपने उस्ताद को याद करके कहते हैं, 'आज भी उस्ताद जी को याद करता हूं तो आंखे नम हो जाती हैं. मेरे कमरे में अब भी उनकी तस्वीर है. कई लोग उस्ताद जी को चुपचाप समझाते भी थे कि घर से बाहर के लड़के को सबकुछ नहीं बताया जाता, लेकिन उस्ताद जी ने मुझे अपनी सगी संतान की तरह सिखाया. मुझे याद है कि जब वो आखिरी सांस ले रहे थे, तो उन्होंने मुझे पुकारा-छन्नू. मैं भागता हुआ गया और उनके सर को अपनी गोद में रख लिया. कुछ ही क्षणों बाद उन्होंने मेरी गोद में ही दम तोड़ दिया, उनके जनाजे को मैंने कंधा दिया.
उस्ताद जी के जाने के बाद छन्नू लाल मिश्र को ठाकुर जयदेव सिंह से सीखने का सौभाग्य भी मिला. वो भी संगीत के अद्भुत जानकार थे. उन्होंने छन्नू लाल मिश्र को और तराशा. छन्नू लाल अभी मुजफ्परपुर में ही थे, तभी एक और दिलचस्प किस्सा घटा. हुआ यूं कि छन्नू लाल की गायकी के कुछ साल ही बीते होंगे जब चंपानगर के राजा कुमार श्यामानंद तक उनकी चर्चा पहुंची. उन्होंने खास तौर पर छन्नू लाल का गाना सुना, उन्हें उनकी गायकी बहुत पसंद आई.
उन्होंने पिता जी से कहाकि छन्नूलाल को यहीं छोड़ दीजिए हम उसको राजगायक बनाना चाहते हैं. लेकिन पिता जी बेटे से बहुत प्यार करते थे. उन्होंने बहुत ही विनम्रता से कुमार श्यामानंद जी से मना कर दिया. उन्होंने कहा कि वो अपने बेटे के बिना नहीं रह सकते हैं, इसलिए वो छन्नूलाल को राजगायक बनने के लिए वहां नहीं छोड़ सकते हैं. इसके बाद पिता जी उन्हें लेकर बनारस आ गए. उसके बाद यहीं के होकर रह गए. वो आज भी सभी से कहते हैं कि आजमगढ़ मेरी जन्मभूमि है, लेकिन बनारस मेरी कर्मभूमि है.
पंडित छन्नू लाल मिश्र की गायकी का सबसे मजबूत पक्ष है- श्रोताओं से उनका कनेक्ट. वो मानते हैं कि शास्त्रीयता दिखाने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन वो श्रोताओं को अच्छी लगनी चाहिए. उन्हें समझ आनी चाहिए. उनके दिल को छूनी चाहिए. शास्त्रीय गायन में बंदिश होती है, लेकिन अब बंदिश को सोच कर बनाना चाहिए, वो सुंदर हो...लोगों को अच्छी लगे.
उनका उद्देश्य यही है कि शास्त्रीय संगीत को इतना सरल करके गाया जाए कि साधारण जनता को भी बात समझ में आ जाए. 'ना गोप ना गोपी ना श्याम ना राधा...ना साजन ना गोरी...खेले मसाने में होरी, दिगंबर खेले मसाने में होली' की लोकप्रियता इसी बात का सबूत है. आप पंडित छन्नू लाल मिश्र का कोई कार्यक्रम सुनने जाइए. आप पाएंगे कि वो श्रोताओं को बताते हैं कि स्वर, मींड, मुर्की, खटका इन शब्दों के क्या मायने होते हैं. वरना होता ये है कि बड़े-बड़े कलाकार अपना कार्यक्रम करके चले जाते हैं, श्रोताओं को समझ कुछ नहीं आता है.
पंडित छन्नू लाल मिश्र ने देश दुनिया में शास्त्रीय कार्यक्रम करने के अलावा फिल्म- आरक्षण में गाना गाया था 'कौन सी डोर छोड़े- कौन सी काटे रे. इस गाने के बोल प्रसून जोशी ने लिखे थे. प्रकाश झा को प्रसून जी ने ही कहा था कि वो इस गाने के लिए पंडित छन्नू लाल मिश्र से संपर्क करें. गाने की धुन शंकर एहसान लॉय ने बनाई थी और पंडित जी ने ये गाना श्रेया घोषाल के साथ गाया था.
अमिताभ बच्चन की गायकी को हर कोई जानता है, वो कई बार कह चुके हैं कि उन्होंने छन्नू लाल जी को सुन कर बहुत कुछ सीखा है. अभिषेक बच्चन, ऐश्वर्य राय की शादी में उन्होंने खास तौर पर छन्नू लाल जी को आमंत्रित किया था. इन सारे परिचयों के अलावा पंडित जी का एक अहम परिचय ये भी है कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब बनारस से चुनाव लड़ रहे थे तो पंडित छन्नू लाल मिश्र उनके प्रस्तावक थे.
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