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पहली बार इमरोज़ संग अमृता को देखकर क्या बोले थे साहिर

अमृता शायद इकलौती महिला थीं जिनके साथ शादी के बंधन में साहिर बंधना चाहते थे

Shivani Bhasin

इश्क अमर होता है. वो सरहदों, जातियों, मजहब या वक्त के दायरे में नहीं बांधा जा सकता. मोहब्बत की कहानियां, किरदारों के गुजर जाने के बाद भी जिंदा रहती हैं. ये एक ऐसी शय है कि इसके खरीदार जमाने के बाजार में हमेशा रहते हैं.

शीरीं-फरहाद, हीर-रांझा, लैला-मजनूं या रोमियो-जूलियट, इन्हें गुजरे हुए जमाने बीत गए. मगर इनकी मोहब्बत आज भी जिंदा है. आज भी इनके इश्क के अफसाने लोगों में प्यार का जुनून पैदा करते हैं. इश्क के बारे में दिलचस्प बात ये भी है कि ये अक्सर मंजिल पर पहुंचते-पहुंचते लड़खड़ा जाता है. राह भटक जाता है.


ऐसी मोहब्बत के लिए मशहूर शायर साहिर लुधियानवी ने लिखा था-

वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन

उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा.

और ये मोहब्बत किसी और की नहीं थी, खुद साहिर की थी. उनकी मोहब्बत थीं मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम. लोग कहते हैं कि जितने तरह के लोग, उतने तरह की मोहब्बत. साहिर और अमृता का प्यार भी जमाने से अलहदा था. इश्क की पहले से खिंची लकीरों से जुदा. अधूरी मोहब्बत का ये वो मुकम्मल अफसाना था, जिसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती.

चाय का एक झूठा कप, जली हुई सिगरेट के टुकड़े, कुछ किस्से, कुछ यादें और ढेर सारे खुतूत. साहिर और अमृता की मोहब्बत की ये कुल जमा-पूंजी थी. इसे बॉलीवुड की सबसे बड़ी लव स्टोरीज में से एक कहा जाता है.

आज की नस्ल को साहिर-अमृता की मोहब्बत का अफसाना एक फिल्म के जरिए सुनाने की तैयारी हो रही है. हाल ही में खबर आई है कि इरफान को साहिर का किरदार निभाने के लिए साइन किया गया है. इस फिल्म को लेकर निर्माता आशी दुआ अपनी चुप्पी नहीं तोड़ते. मगर, फिल्म से पहले हम साहिर-अमृता की अनूठी मोहब्बत को तो याद कर ही सकते हैं.

कैसे हुई अमृता साहिर के रिश्ते की शुरुआत

ये सिलसिला आज से करीब 73 बरस पहले शुरू हुआ था. बात 1944 की है. जब उस वक्त बड़ी तेजी से उभर रहे शायर साहिर लुधियानवी पहली बार लेखिका अमृता प्रीतम से मिले थे. जगह थी लाहौर और दिल्ली के बीच स्थित प्रीत नगर. किस्मत का फेर देखिए कि मोहब्बत के इस अफसाने का आगाज ऐसी जगह से हुआ जिसका नाम ही प्रीत नगर यानी प्यार की नगरी था.

साहिर जुनुनी और आदर्शवादी थे. अमृता बेहद दिलकश. अपनी खूबसूरती में भी और अपनी लेखनी में भी. दोनो एक मुशायरे में शिरकत के लिए प्रीत नगर पहुंचे थे. मद्धम रौशनी वाले एक कमरे में दोनों की आंखें चार हुईं और बस प्यार हो गया. मगर, प्यार की ये कहानी उस दिशा में चल पड़ी, जिसका न कोई ओर-छोर था न इससे पहले कोई मिसाल मिलती है.

जिस वक्त अमृता, साहिर से मिलीं, वो प्रीतम सिंह से ब्याही हुई थीं. ये शादी अमृता के बचपन में ही तय कर दी गई थी. अमृता अपनी शादीशुदा जिंदगी में खुश नहीं थीं. साहिर से मिलने के बाद उनकी जिंदगी में खुशी की एक नई लहर आई.

अमृता दिल्ली में रहती थीं. साहिर लाहौर में. दो मोहब्बत करने वालों के बीच की इस दूरी को दूर किया खतों ने. जिस्म दूर थे. मगर दिल करीब और रूह एक. सो, कागज पर इश्क उकेरा जाता रहा. कभी स्याह तो कभी सुर्ख. रौशनाई ने मोहब्बत में रंग भरे. प्यार के पैगाम की लाहौर और दिल्ली के बीच आमदो-रफ्त रही.

अमृता के खतों को पढ़ें तो मालूम होता है कि वो साहिर के इश्क में दीवानी हो चुकी थीं. अमृता उन्हें मेरा शायर, मेरा महबूब, मेरा खुदा और मेरा देवता कहकर पुकारती थीं.

अमृता के साथ बंध सकते थे साहिर

साहिर की जीवनी, साहिर: अ पीपुल्स पोएट, लिखने वाले अक्षय मानवानी कहते हैं कि अमृता वो इकलौती महिला थीं, जो साहिर को शादी के लिए मना सकती थीं. एक बार साहिर लुधियानवी ने अपनी मां सरदार बेगम से कहा भी था, 'वो अमृता प्रीतम थी. वो आप की बहू बन सकती थी'.

लेकिन, साहिर शायर भी थे. और शायर का जुनून किसी बंदिश में बंधने को राजी नहीं होता. यही साहिर के साथ भी हुआ. उन्होंने अमृता से मोहब्बत तो की, मगर अधूरी. वो दिलों के फासले तय नहीं करना चाहते थे. वो एक दूसरे को खत तो लिखते थे. मगर दोनों की मुलाकात बमुश्किल ही होती थी. और जब दोनों मिले तो खामोशी के साए में.

अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में अमृता प्रीतम ने साहिर के साथ हुई मुलाकातों का जिक्र किया है. वो लिखती हैं कि, 'जब हम मिलते थे, तो जुबां खामोश रहती थी. नैन बोलते थे. दोनों बस एक टक एक दूसरे को देखा किए'. और इस दौरान साहिर लगातार सिगरेट पीते रहते थे. मुलाकात के बाद जब साहिर वहां से चले जाते, तो अमृता अपने दीवाने की सिगरेट के टुकड़ों को लबों से लगाकर अपने होठों पर उनके होठों की छुअन महसूस करने की कोशिश करती थीं.

साहिर और अमृता

अमृता प्रीतम और साहिर की मोहब्बत की राह में कई रोड़े थे. एक वक्त था जब अमृता और साहिर दोनों लाहौर में रहा करते थे. फिर मुल्क तकसीम हो गया. अमृता अपने पति के साथ दिल्ली आ गईं. साहिर मुंबई में रहने लगे.

अमृता अपने प्यार के लिए शादी तोड़ने को तैयार थीं. बाद में वो अपने पति से अलग भी हो गईं. दिल्ली में एक लेखिका के तौर पर वो अपनी पोजीशन और शोहरत को भी साहिर पर कुर्बान करने को तैयार थीं.

साहिर ने अमृता को जहन में रखकर न जाने कितनी नज्में, कितने गीत, कितने शेर और कितनी गजलें लिखीं. वहीं अमृता प्रीतम ने भी अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में खुलकर साहिर से इश्क का इजहार किया है.

मगर, साहिर कभी अमृता को पूरी तरह अपनाने के लिए जहनी तौर पर तैयार नहीं हो सके. उन्हें इस प्यार का मुकम्मल मुस्तकबिल नजर नहीं आता था. वो अमृता के लिए जो प्यार महसूस करते थे, उसे वो अपने कलम से तो जाहिर कर लेते थे. आखिर वो एक शायर जो ठहरे. उस दौर में साहिर तमाम सामाजिक और सियासी मसलों पर जमकर लिखा करते थे. इश्किया शायरी का नंबर बाद में आता था.

फिर भी अमृता से अपनी मोहब्बत को लेकर उन्होंने 1964 में आई फिल्म दूज का चांद में एक गीत लिखा था...महफिल से उठकर जाने वालो.

इमरोज़ को देख कर साहिर ने लिखा

अक्षय मानवानी बताते हैं कि ये गीत साहिर और अमृता की एक मुलाकात के किस्से से जुड़ा हुआ था. उस वक्त अमृता अपने लंबे वक्त साथी रहे पेंटर इमरोज के साथ हुआ करती थीं. 1964 में इमरोज और अमृता साहिर से मिलने मुंबई पहुंचे थे. अमृता को किसी और मर्द के साथ देखकर साहिर ने लिखा था-

महफिल से उठकर जाने वालो

तुम लोगों पर क्या इल्जाम

तुम आबाद घरों के वासी

मैं आवारा और बदनाम.

अमृता के साथ अपने रिश्ते में साहिर ने खुद को लुटे-पिटे, हारे हुए आशिक के तौर पर पेश किया था. मगर मोहब्बत का ये सिलसिला उस वक्त टूट गया था, जब साहिर, 1960 में गायिका सुधा मल्होत्रा पर फिदा हो गए थे.

जिस वक्त अमृता से प्यार का किस्सा तमाम हुआ, उस वक्त साहिर के दिल में क्या चल रहा था, ये कहना मुश्किल है. क्योंकि साहिर खुलकर बोलने के आदी नहीं थे. जबकि वो अक्सर महिलाओं की तरफ आकर्षित हो जाते थे. लेकिन वो कभी खुलकर हाल-ए-दिल कह नहीं पाते थे.

जब साहिर और अमृता के बीच इश्क उरूज पर था, तो अमृता ने एक कहानी लिखी. इसमें उन्होंने साहिर से अपनी पहली मुलाकात का जिक्र किया था. अमृता को उम्मीद थी कि साहिर इस बारे में जबान से नहीं तो कलम से तो कुछ बोलेंगे. मगर साहिर तो साहिर थे. वो खामोश ही रहे. न तो उन्होंने अपने दोस्तों से कुछ कहा. न ही कुछ लिखा.

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बाद में साहिर ने अमृता को बताया कि उन्हें वो कहानी पसंद आई थी. मगर, वो इसलिए खामोश रहे क्योंकि उन्हें डर था कि कुछ कहेंगे या लिखेंगे तो दोस्त उनका मजाक उड़ाएंगे.

साहिर को जानने वालों का मानना है कि उनकी जिंदगी में उनकी मां सरदार बेगम का बड़ा दखल रहा था. औरतों से उनके रिश्ते सरदार बेगम के असर के हिसाब से तय होते थे. सरदार बेगम ने अपने पति को छोड़कर अकेले ही साहिर की परवरिश की थी. साहिर ने देखा था कि उन्हें पालने के लिए मां ने कितनी दिक्कतें झेलीं. इसीलिए वो मां का बहुत सम्मान करते थे.

फिल्मकार विनय शुक्ला ने अपनी पहली फिल्म के गीत साहिर से लिखवाए थे. विनय कहते हैं कि साहिर औरतों के साथ स्थायी रिश्ते में बंधने से डरते थे. इसकी बड़ी वजह उनकी जिंदगी में मां की बहुत ज्यादा अहमियत थी. साहिर अपनी मां से बहुत प्यार करते थे. उनका बहुत सम्मान करते थे. इसी वजह से वो किसी और औरत को ज्यादा तवज्जो नहीं दे पाते थे. मां के बाद अमृता ही वो इकलौती औरत थीं, जिन्हें साहिर की इतनी तवज्जो हासिल हुई.

अमृता का गंदा कप

हालांकि साहिर और अमृता के इश्क का खात्मा साहिर के सुधा मल्होत्रा की तरफ झुकाव से हुआ. मगर वो कभी अमृता को दिल से निकाल नहीं पाए. विनय शुक्ला, संगीतकार जयदेव से सुना एक किस्सा बताते हैं. एक बार जयदेव, साहिर के घर गए. दोनों किसी गाने पर काम कर रहे थे. तभी जयदेव की नजर एक गंदे कप पर पड़ी. उन्होंने साहिर से कहा कि ये कप कितना गंदा हो गया है, लाओ इसे साफ कर देता हूं. तब साहिर ने उन्हें चेताया था, 'उस कप को छूना भी मत. जब आखिरी बार अमृता यहां आई थी तो उसने इसी कप में चाय पी थी'.

साहिर और अमृता की मोहब्बत वो अफसाना रही, जो खूबसूरत अंजाम तक नहीं पहुंच सकी. मगर ये इश्क एकदम अलहदा था, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. अपने दौर में साहिर और अमृता ने जैसा प्यार किया, उसे समाज में पाप माना जाता था. मगर ये रिश्ता बेहद पाक था, जिसे खतों और खामोशी के जरिए दोनों ने बड़ी खूबसूरती से निबाहा.

अधूरी रह गई ख्वाहिशों वाले इस किस्से ने दो दिलों को मोहब्बत से लबरेज कर दिया. ये एक ऐसा अफसाना है, जो हमारे जहन में हमेशा रहेगा. भले ही साहिर ने इसे गुपचुप निभाया.

अमृता प्रीतम ने अपनी आत्मकथा में एक घटना का जिक्र किया है, जब वो और साहिर साथ में थे. साहिर बीमार थे. अमृता प्रीतम ने उनके बिस्तर के बगल में बैठकर उनके सीने और बाहों पर विक्स लगाया. इस नजदीकी का जिक्र करते हुए अमृता ने लिखा है कि, 'काश! मैं उस लम्हे को हमेशा जी सकती'.

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भले ही अमृता को साहिर का साथ हमेशा के लिए नहीं मिल सका, मगर दशकों बाद भी, लोगों की यादों में ये किस्सा आबाद है. और जो कहीं साहिर उन यादों से टकरा जाते तो शायद यही कहते-

किस दर्जा दिल-शिकन थे मोहब्बत के हादसे

हम जिंदगी में फिर कोई अरमां न कर सके.