view all

विज्ञान के मोर्चे पर भारतीय महिलाओं के फतह की कहानी

पुरुषवादी मानसिकता ने कामयाब महिलाओं को काफी तंग किया है.

Nandita Jayaraj

किसी वैज्ञानिक या रिसर्चर का तसव्वुर करते ही, अधपके बालों वाले खब्ती आदमी का खयाल आता है. बरसों से वैज्ञानिकों और रिसर्च करने वालों की यही इमेज हमारे जहन में बसी है.

वैज्ञानिकों के लिए तमाम अवार्ड समारोह हों या फिर किसी मुद्दे पर बहस, मंच पर वैज्ञानिकों की जमात में मर्द ही नजर आते हैं. यूं लगता है कि आधी आबादी यानी महिलाएं न तो वैज्ञानिक हैं और न ही किसी रिसर्च में उनका कोई योगदान है.


जबकि हकीकत में बिल्कुल ऐसा नहीं. महिलाओं ने भी साइंस के कई मोर्चे फतह किए हैं. कामयाबियों के कई शिखर पर अपने झंडे गाड़े हैं. आज हम आपको ऐसी ही महिलाओं से रूबरू कराते हैं, जो विज्ञान और रिसर्च के मोर्चे पर कामयाबी की ओर कदम बढ़ा रही हैं.

एलिजाबेथ और जिस की कहानी 

ऐसी ही एक महिला हैं एलिजाबेथ वी मैथ्यू. वो एक बार तमिलनाडु के जंगलों में अनजान मर्दों के साथ ट्रेकिंग पर निकली थीं. उनका मकसद मकड़ियों की एक खास नस्ल की कुदरती माहौल में तलाश का था. मगर उन्हें जंगल में डर उन लोगों से ज्यादा लग रहा था, जो उनके साथ इस मिशन पर निकले थे.

एलिजाबेथ कहती हैं कि उनके पास उन अनजान मर्दों पर भरोसा करने के सिवा कोई विकल्प नहीं था. अगर उनके बद इरादे होते, तो वो उन जंगलों में कहां गुम हो जातीं, किसी को पता भी नहीं चलता. एलिजाबेथ कहती हैं कि जब महिलाएं रिसर्च के ऐसे खतरनाक मिशन पर निकलती हैं, तो उन्हें बेहद सावधानी बरतनी पड़ती है.

यह भी पढ़ें: मोदी बनाम राहुल: दोनों खेल रहे हैं कीचड़ से सनी 'चुनावी' होली

ऐसी ही वाइल्डलाइफ रिसर्चर हैं जिस सेबेस्टियन. जिस ने बरसों तक अरुणाचल प्रदेश और कश्मीर में गिबोन पर खोज की थी. वो अब केरल में काम कर रही हैं.

जिस बताती हैं कि अरुणाचल प्रदेश में रिसर्च के दौरान, वन विभाग के अधिकारियों ने उन्हें जंगल में अकेले जाने से रोका. अधिकारियों ने कहा कि जिस को अपने किसी परिजन या रिश्तेदार को साथ लाना चाहिए. जिस सेबेस्टियन ने कहा कि वो अकेले ही ठीक हैं.

जिस और एलिजाबेथ, दोनों ही काबिल इकोलॉजिस्ट हैं. उनका काम अक्सर जंगलों में रिसर्च का होता है.

जिस कहती हैं कि उनके रिसर्च के दौरान सबसे बड़ी चुनौती इंसान की बनाई बाधाओं से पार पाना ही होता है. मैंने और मेरी सहयोगी आशिमा डोगरा ने अपने एक साल के मिशन के नतीजे में यही सबक पाया है.

'लाइफ ऑफ साइंस' महिला वैज्ञानिकों को दुनिया के सामने लाने वाला प्रोजेक्ट

तस्वीर: लाइफ ऑफ साइंस की वाल से साभार

हम दोनों ने (जिस और आशिमा ने) पिछले साल फरवरी में लाइफ ऑफ साइंस प्रोजेक्ट शुरू किया था. हमारा मकसद, विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं के योगदान को दुनिया के सामने रखना था. हम लोगों को ये भी बताना चाहते थे कि महिलाएं इस काम में कैसी-कैसी चुनौतियों का सामना करती हैं.

पिछले एक साल में हमने पचास से ज्यादा संस्थानों का दौरा किया है. हमने महिला रिसर्चर से सैकड़ों घंटे बात की है. हम इस बातचीत के आधार पर हर हफ्ते अपनी रिपोर्ट अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित करते हैं.

11 फरवरी को हमारे इस मिशन की पहली सालगिरह थी. इसी दिन संयुक्त राष्ट्र विज्ञान के क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं का अंतरराष्ट्रीय दिवस भी मनाता है. तो ये एक मौका हमारे लिए भी था कि हम पिछले साल भर में किए गए अपने काम का हिसाब रखें.

मेरी और आशिमा की मुलाकात उस वक्त हुई थी जब हम बच्चों की एक लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका के लिए बेंगलुरु में काम कर रहे थे.

उस दौरान जब हम वैज्ञानिकों के इलस्ट्रेशन बनाते थे तो हमारे सामने वही खब्ती बुजुर्ग वाला चेहरा होता था. उस पत्रिका के जरिए हमने वैज्ञानिकों की ऐसी इमेज से बाहर निकलने की कोशिश की. हमें ये पता था कि हमारे आधे पाठक लड़कियां थीं, तो हमारे पास उन तक पहुंचने का सुनहरा मौका था.

विधानसभा चुनावों की खबरों को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें 

हम महिला वैज्ञानिकों की कहानियां भी पाठकों को बता सकते थे. ताकि वो उनसे प्रेरित हों. इसी वजह से हमने 'द लाइफ ऑफ साइंस प्रोजेक्ट' शुरू किया.

हमने उन महिलाओं की तलाश शुरू की जो विज्ञान की दुनिया में कामयाबी के झंडे बुलंद कर रही हैं. इनकी तलाश करना बेहद आसान काम था. आप ये जानकर हैरान रह जाएंगे कि आज की तारीख में हर मोर्चे पर महिलाएं काम कर रही हैं.

महिला वैज्ञानिकों की संख्या इतनी कम क्यों?

न्यूरोसाइंटिस्ट डॉक्टर विदिता वैद्य

फिर भी चाहे तो विज्ञान के बड़े अवार्ड जैसे, शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार, इन्फोसिस प्राइज हों या फिर साइंस कांफ्रेंस और मीडिया कवरेज, हर मोर्चे पर महिलाओं के योगदान की अनदेखी हो रही थी.

शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार जीतने वाली न्यूरोसाइंटिस्ट डॉक्टर विदिता वैद्य कहती हैं कि किसी भी साइंस कांफ्रेंस में जाएं तो आपको मंच पर मर्द ही बैठे दिखते हैं. संदेश यूं जाता है जैसे आप एक भी महिला वैज्ञानिक को तलाश नहीं पाए. पूरी प्रक्रिया में कोई न कोई गड़बड़ी तो है.

आखिर क्या वजह है कि बड़े रिसर्च संस्थानों में महिलाओं को बराबरी की तवज्जो नहीं मिलती? इसकी सबसे बड़ी वजह तो ये है कि ज्यादातर महिलाएं तो उस मुकाम तक पहुंचने से पहले ही पढ़ाई छोड़ देती हैं.

यह भी पढ़ें: वैलेंटाइन डे स्पेशल: मीरा से भी बड़ी कृष्ण दीवानी थी मुगलिया ताज बीबी

घर के काम-काज में व्यस्त हो जाती हैं. जो गिनी चुनी महिलाएं रिसर्च जारी रखती हैं, उनकी शादियां भी ऐसे लोगों से होती हैं जो रिसर्च का काम कर रहे होते हैं. तो उन्हें ही तरजीह मिलती है. महिलाओं के ऊपर ही घर की जिम्मेदारी आती है.

पिछले साल आईआईटी दिल्ली में डॉक्टर नीतू सिंह ने बताया कि उनके और उनके पति के लिए भारत में एक साथ आकर काम करने में कितनी मुश्किल हुई थी. क्योंकि ज्यादातर संस्थान उन दोनों को एक साथ रखने को तैयार नहीं थे. इस मामले में नीतू अकेले नहीं हैं.

महिलाओं से ही हमेशा बलिदान की उम्मीद क्यों?

बायोलॉलिस्ट की डॉक्टर लिपि ठुकराल

भारत की मशहूर रिसर्च संस्था काउंसिल ऑफ साइंटिफिक रिसर्च में ये अनलिखा नियम है कि वहां पति-पत्नी को एक साथ काम पर नहीं रखा जाता. सीएसआईआर को लगता है कि इससे वहां भाई-भतीजावाद पनपेगा. हालांकि ज्यादातर लोग इस डर को सिरे से खारिज करते हैं.

असल में भारत में घर चलाने का जिम्मा अक्सर महिलाओं का ही माना जाता है. ऐसे में वो चाहे कितना ही बड़ा रिसर्च क्यों न कर रही हो, जब बलिदान की बारी आती है तो अक्सर महिलाओं से ही उम्मीद होती है. यही वजह है कि विज्ञान की दुनिया में महिला रिसर्चर की हम इतनी कमी देखते हैं.

आईआईटी हैदराबाद की डॉक्टर वंदना शर्मा जब वहां नौकरी के लिए अर्जी दे रही थीं, तो उनसे बार-बार पूछा गया कि आपके पति तो नीदरलैंड में रहते हैं, आप परिवार की जिम्मेदारी कैसे निभाएंगी.

डॉक्टर वंदना कहती हैं कि लोगों ने बार-बार उनकी निजी जिंदगी में झांकने की कोशिश की. लोग इतनी बुनियादी बात नहीं समझ सके कि मैंने सब कुछ सोच-समझकर ही भारत आने का फैसला किया होगा. मुझे चुनौतियों का अंदाजा तो होगा ही.

हम जितने भी महिला वैज्ञानिकों से मिले, कमोबेश सबका ये कहना था कि उन्हें अपने पतियों से काफी मदद मिली, सहयोग मिला. साथ ही उन्हें परिवार का सहयोग भी खूब मिला.

हालांकि बच्चों को संभालने के लिए नैनी और उनके लिए डे केयर सेंटर की सुविधा सबके लिए नहीं मौजूद है. ये महिलाएं मानती हैं कि उनकी कामयाबी से कैरियर में उन्हें ज्यादा आजादी हासिल हुई.

पुरुषवादी मानसिकता सबसे बड़ा रोड़ा 

लेकिन पुरुषवादी मानसिकता ने कामयाब महिलाओं को काफी तंग किया है. दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ इंटीग्रेटिव बायोलॉजी की डॉक्टर लिपि ठुकराल कहती हैं कि उनके मर्द सहयोगी इस बात से जलते थे कि वो भी उनके बराबर ही पैसे कमाती हैं. लोग अपनी बीवियों से उनकी तुलना करते थे. जबकि दोनों के काम और पढ़ाई में बहुत फर्क था.

अपने कैरियर के शुरुआती दौर में भी महिला वैज्ञानिकों को मर्दो के बराबर मौके नहीं मिलते. जैसे कि डॉक्टर रमादेवी टीएस जब इसरो में कैरियर शुरू कर रही थीं, तो उन्हें अपने मर्द सहयोगियों के साथ लद्दाख जाने का मौका नहीं मिला.

जबकि जिस रिसर्च के लिए वो लद्दाख जा रहे थे, उसमें रमादेवी का भी पूरा योगदान रहा था. मगर वो सिर्फ 22 साल की युवती थीं, इसलिए उन्हें नहीं जाने दिया गया.

हालांकि आगे चलकर डॉक्टर रमादेवी ने कामयाबी की कई सीढ़ियां चढ़ीं. वो इसरो के डिप्टी डायरेक्टर पद से रिटायर हुईं. मगर मर्दो और औरतों में ये फर्क कई वैज्ञानिकों को हताश कर देता है.

तमाम मुश्किलों के बावजूद आगे बढ़ती महिलाएं

रमा देवी

महिलाएं, विज्ञान की दुनिया में तरक्की की सीढ़ियां चढ़ें, इसके लिए जरूरी है कि उनके बॉस सबको बराबरी के मौके देने वाले हों. फिर चाहे वो रिसर्च में हो या तरक्की देने में, या फिर किसी इंटरनेशनल कांफ्रेंस में जाने का मौका हो.

कुछ मामलों में ऐसा होता भी है. जैसे कि बीएचयू की डॉक्टर रमादेवी निम्मानपल्ली हैं. उन्हें करियर में कमोबेश हर बार ऐसे सीनियर्स के साथ काम करने का मौका मिला, जो सबको बराबर अवसर देते थे.

हालांकि एक बार ऐसा भी हुआ जब वो तेजी से तरक्की कर रही थीं तो उनकी यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर बदल गए और उनकी आगे बढ़ने की रफ्तार धीमी हो गई. उन्हें इस तरह की चिट्ठियां भी मिलीं कि उनका पिछले वाइस चांसलर से अफेयर था.

हमारे प्रोजेक्ट के दौरान हमने जितनी भी महिलाओं से बात की, सब इंसान की जानकारी बढ़ाने में बढ़-चढ़कर योगदान दे रही हैं. तादाद में बहुत कम होने, तमाम चुनौतियां झेलने के बावजूद वो कामयाबी के सफर में आगे बढ़ रही हैं.

वो जिन चुनौतियों का सामना कर रही हैं वो सिर्फ विज्ञान की दुनिया में नहीं हैं और न ही ऐसा है ये भेदभाव सिर्फ हिंदुस्तान में होता है. उनकी कोशिशों से ही हम आने वाली पीढ़ियों को काम करने का बराबरी का मौका दे सकेंगे.