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CBI vs CBI: तमाम छप्परों में आग लगाने वाले भूल गए, खुद का घर भी गांव में ही मौजूद है!

ब्यूरोक्रेसी के मौजूदा और दिल्ली पुलिस में आलोक वर्मा की कमिश्नरी में उनकी मातहती निभा चुके कुछ अधीनस्थ दिल्ली पुलिस मुख्यालय में आज भी बैठकर सीबीआई में चल रही उठा-पटक पर बैठे-बैठे ‘जुमलेबाजी’ करके चटकारे ले रहे हैं

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

इतिहास गवाह है कि आज की ‘सीबीआई’हो या फिर, अतीत का कोई मुगलकालीन बलशाली बादशाह, सब पर वक्त ही भारी साबित हुआ है. वक्त के वजन की औकात मापने की जिस-जिसने हिमाकत की, उसे ही नीचा देखना पड़ा. मौजूदा वक्त में सीबीआई में काठ की कुर्सी की खातिर मची घुड़-दौड़ इसका माकूल और सबसे घिनौना नमूना है! जिसने सीबीआई की साख से लेकर तमाम उच्च-शिक्षित सरकारी हुक्मरानों और ब्यूरोक्रेट्स तक को सड़क पर ला खड़ा करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है. अगर यह कहूं कि सीबीआई की हालत ‘पले हुए सरकारी-तोते’ से भी बतदर हो चुकी है. ठीक वैसी ही जैसे, दूध के पतीले को झपटने की चाहत में बिल्लियों के बीच लड़ाई छिड़ जाए. बिल्लियों की लड़ाई में दूध का पतीला तो किसी भी बिल्ली को नसीब न हो सका. उल्टे उनके झगड़े में पतीले में मौजूद दूध गिरकर जमीन पर फैल गया. अगर यह कहूं तो भी कतई गलत नहीं होगा. आइए नजर डालते हैं, सुप्रीम कोर्ट की देहरी पर. सरकार-सीबीआई और ‘साहिबों’ के बीच मची उठा-पटक पर. जिसमें हर किसी ने खुद की साख बचाने के फेर में दांव पर लगा दी साख मगर दूसरे की.

तब बीजेपी ने छाती पीटी अब कांग्रेस में कोहराम


बात तब की है जब केंद्र में कांग्रेस का राज था. प्रधानमंत्री थे मनमोहन सिंह. सोनिया गांधी कांग्रेस की सर्वे-सर्वा हुआ करती थीं. उन्हीं दिनों (2010-2011) चर्चित/विवादित पीजे थॉमस को मुख्य सतर्कता आयुक्त यानि सीवीसी बनाए जाने की सुगबुगाहट राजनीतिक और सत्ता के गलियारों में ‘सांय-सांय’ करने लगी थी. बात दूर तलक गई तो कोहराम मचना लाजिमी था. तब तक थॉमस भले ही सीवीसी की कुर्सी पर ‘सजाकर’ न बैठाए जा सके हों, लेकिन एक अदद थॉमस ने तमाम कांग्रेसी और भाजपाईयों के दिल की ‘धौंकनी’ जरूर तेज कर दी थी. थॉमस को जल्दी से जल्दी सीवीसी जैसा ‘कांटों का ताज’ पहनाकर कांग्रेस एक तीर से कई निशाने साधने की जुगत में जुटी थी. वहीं कांग्रेस की धुर-विरोधी एक अदद इकलौती भारतीय जनता पार्टी किसी भी कीमत पर विवादित पीजे थॉमस को ‘सीवीसी’ की कुर्सी का ‘दूल्हा’ (सर्वे-सर्वा) न बनाने देने की कसम खाए बैठी थी. बीजेपी के तमाम विरोधों के बावजूद कांग्रेसी-सरकार में आखिरकार एक दिन थॉमस को भारत का मुख्य सतर्कता आयुक्त बना ही दिया गया. लिहाजा ऐसे में बीजेपी मन-मसोस कर खाली हाथ रह गई.

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इतिहास खुद को दोहराता है देर से ही सही

अतीत के पन्ने पलटकर देखा जाए तो पता चलता है कि पीजे थॉमस की सीवीसी पद पर नियुक्ति को लेकर बाकायदा उस वक्त भी केंद्र सरकार की एक हाई-लेवल कमेटी गठित की गई थी. ठीक वैसी ही कमेटी जैसी अब सीबीआई के विवादित डायरेक्टर आलोक वर्मा को निपटाने के लिए सलेक्ट कमेटी बनाई गई है. उस जमाने में विवादित थॉमस को सीवीसी न बनाए जाने की बीजेपी की दबंग नेता और तब लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने खुलकर विरोध किया था. सुषमा स्वराज भी तीन सदस्यीय उस हाई लेवल कमेटी की एक (तीसरी) मेंबर थीं. इसके बावजूद सुषमा के ‘मन की बात’ को कांग्रेस ने जान-बूझकर अनसुना कर दिया. नतीजा, तब की कांग्रेस सरकार ने थॉमस को सीवीसी की कुर्सी पर ‘सजा’ कर जमा दिया. यह अलग बात है कि उन्हीं दिनों सुप्रीम कोर्ट ने थॉमस को सीवीसी की कुर्सी पर सजाए जाने के मनमोहन सिंह सरकार के फैसले को ‘अवैध’ करार दे दिया. इससे दो काम हुए. उस वक्त की मनमोहन सिंह सरकार तो बुरी तरह ‘झेंप’ गई. जबकि बीजेपी को खुद के जख्मों पर राहत का अहसास हुआ.

तब बीजेपी की सुषमा स्वराज, अब कांग्रेस के खड़गे!

कहते हैं कि देर-सवेर ही सही मगर इतिहास खुद को दोहराता जरूर है. सो अब सीबीआई में कुर्सी के लिए छिड़ी बंदरबांट की घटिया लड़ाई में जब, बाजी भारतीय जनता पार्टी के हाथ में आई तो, उसने एक तीर से कई निशाने साध लिए. मसलन जिद्दी आईपीएस! आलोक वर्मा के नीचे से सीबीआई की कुर्सी ‘घसीटने’ के लिए गठित तीन सदस्यीय सलेक्ट कमेटी (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, सुप्रीम कोर्ट के नामित जज जस्टिस एके सीकरी और नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे) बना दी गई. आलोक वर्मा को ‘जीवन-दान’ मिल जाए! नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के लाख चाहने पर उनकी बात और कांग्रेस की हसरत को दो-टूक इनकार कर दिया गया. ठीक वैसे ही जैसे साल 2010-11 में पीजे थॉमस को सीवीसी नियुक्त करते वक्त सुषमा स्वराज के साथ किया गया था. मतलब देर से ही सही. फिर भी जब और जैसे ही मौका हाथ लगा. भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस से पिछला बकाया, सब हिसाब-किताब पूरा कर लिया.

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तुमने फैसले पलटे हमने तुम्हें पलट दिया

अब बात करते हैं सरकारी ‘तोता’ यानि केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) में मचे घटिया बवाल की. किसी जमाने में दिल्ली पुलिस के सर्वे-सर्वा यानि पुलिस कमिश्नर रहे आलोक वर्मा ने खुशी-खुशी सीबीआई चीफ की कुर्सी संभाली थी. वहां पहुंचते ही राकेश अस्थाना और आलोक वर्मा में अहम और कुर्सी की लड़ाई ठीक वैसे ही छिड़ गई, जैसे मानो दो बिल्लयों के बीच ‘छींके’ में ऊंचाई पर टंगे दूध को पाने के लिए सिर-फुटव्वल शुरू हो जाती है. यह अलग बात है कि दूध किसी बिल्ली का न होकर जमीन पर फैलकर बर्बाद हो जाता है. कमोवेश यही हालात सुप्रीम कोर्ट और सरकार के शिकंजे आए सीबीआई के दोनों ‘साहिबों’ यानि आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना की हो चुकी है. जमाने में ‘सरकारी तोता’ के नाम से बदनाम सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा कुर्सी को पाने की चाहत पाले-पाले सुप्रीम कोर्ट तक दौड़-भाग कर आए. सशर्त कुर्सी बचा भी लाए. लेकिन खुद की साख बचाने के चक्कर में जल्दबाजी में उठाए गए कदमों ने उन्हें ही लड़खड़ाकर ढहा-गिरा दिया. इसमें भी कोई दो राय नहीं है.

अब तो दरवाजे से अपने नाम की तख्ती उतार…!

तमाम बेइज्जतियों का बोझ ढोने के बाद हासिल हुई कुर्सी पर दोबारा विराजते ही आलोक वर्मा ने कार्यवाहक सीबीआई डायरेक्टर नागेश्वर राव के तमाम फैसले वैसे ही पलट दिए. जैसे तेज पंखे की हवा में मेज पर बिछे कागज तितर-बितर होकर इधर-उधर फैल जाते हैं. भला यह बात केंद्र में राजकाज संभाल रही सरकार को कैसे बर्दाश्त होती? सो तीन सदस्यीय सलेक्ट कमेटी के सदस्यों ने 2-1 के बहुमत से (नरेंद्र मोदी और जस्टिस एके सीकरी) आलोक वर्मा को सीबीआई दफ्तर से ही ‘फायर’ कर दिया. परिणाम यह रहा कि महीनों से वर्मा के जिद्दी स्वभाव से जूझ रही केंद्र सरकार ने उन्हें (आलोक वर्मा) अब ‘फायर-सर्विस’ और होमगार्ड जैसे ‘सूखे’ महकमों का डायरेक्टर बना डाला. जब से आलोक वर्मा के नीचे से सीबीआई सी ‘मलाईदार’ कुर्सी खिंची है, उनके धुर-विरोधी खेमों में (आईपीएस लॉबी, दिल्ली पुलिस, केंद्रीय गृह-मंत्रालय, इंटेलीजेंस ब्यूरो, RAW और सीबीआई) अधिकांश अफसर-कर्मचारी चटकारे ले-लेकर कहते देखे-सुने जा रहे हैं, दबी जुबान में ही सही कि....

‘अब तो दरवाजे से अपने नाम की तख्ती उतार, शब्द नंगे हो गए शोहरत भी हो गई!’

सुप्रीम कोर्ट का इशारा न समझना भारी पड़ा!

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने कुछ बंदिशों के साथ ही सीबीआई की कुर्सी तक पहुंचने के लिए आलोक वर्मा की ‘लगाम’ कुछ हद तलक ढीली की थी. वो भी वर्मा और उनके तमाम काबिल वकीलों की महीनों सुप्रीम तक की गई सांस फुला देने वाली बेतहाशा भागदौड़ और सीबीआई की गरिमा को महफूज रखने के ख्याल के मद्देनजर. सीबीआई में अपने मातहत और धुर-विरोधी आईपीएस राकेश अस्थाना से खार खाए बैठे, अलोक वर्मा शायद सुप्रीम कोर्ट के कुछ इशारों को या तो समझ नहीं पाए, या फिर अब तक जमाने में हुई छीछालेदर के चलते बौखलाखहट में उन्हीं सही-गलत का अंदाजा लगा पाना ही मुश्किल सा हो गया. सो दुबारा कुर्सी पर काबिज होते ही उन्होंने कार्यवाहक सीबीआई डायरेक्टर के जरिए किए गए तमाम फैसले चंद घंटों में ही पलट डाले. बिना यह सोचे-विचारे कि सरकार के हाथ बहुत लंबे होते हैं. इसी का खामियाजा उन्हें सरकार ने भुगतवा भी दिया. दोबारा 36 घंटे में ही उनके नीचे से सीबीआई की ‘कुर्सी’ को खिसकाकर, जोकि किसी सीबीआई डायरेक्टर के लिए पिछले करीब 55 साल में सबसे बुरा कहिए या फिर शर्मनाक अनुभव साबित हुआ है.

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तब का विलेन ‘सीवीसी’ अब बना ‘तुरुप’ का पत्ता!

साल 2011 में पीजे थॉमस को बहैसियत सीवीसी नियुक्त करना, उस वक्त की कांग्रेस सरकार के लिए किसी ‘विलेन’ सा साबित हुआ था. वक्त और हालात बदले तो, सब कुछ बदल गया. जब बात अड़ियल आईपीएस और सीबीआई प्रमुख की कुर्सी के लिए किसी भी हद तक जाने पर उतारू बैठे आलोक वर्मा को निपटाने की आई, तो केंद्र में मौजूदा मोदी सरकार के लिए वही ‘सीवीसी’, हाथ से निकलती हुई बाजी को जीतने के लिए किसी ‘तुरुप’ के पत्ते से कहीं ज्यादा माफिक साबित हुआ. सुप्रीम कोर्ट के जरिए गठित तीन सदस्यीय सलेक्ट कमेटी के एक मेंबर और नेता-प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़के लाख दलील देते रहे कि आलोक वर्मा को उनका पक्ष रखने के लिए एक बार तो सलेक्ट कमेटी के सामने जरूर बुलाया जाना चाहिए.

खास ‘कुर्सी’ है न कि उस पर बैठा अफसर

इसके बावजूद उनकी बात को साइड-लाइन कर दिया गया. इस तर्क के साथ कि मौजूद सीवीसी की रिपोर्ट में जो गंभीर आरोप ब-सबूत आलोक वर्मा पर जड़े गए हैं. या फिर सीवीसी में आलोक वर्मा के धुर-विरोधी राकेश अस्थाना ने जो कुछ सीवीसी के सामने रखा है. आलोक वर्मा को सीबीआई की कुर्सी से अलग करने के लिए वही पर्याप्त है. मतलब साफ है कि ‘सरकारी-कुर्सी’ कभी किसी की सगी नहीं होती. उस पर कौन बैठा है? कौन बैठा था? कौन बैठेगा? यह सब सवाल बेईमानी हैं. मतलब की बात और सर्वोपरि यह होती है कि सरकारी-कुर्सी कब, कहां, कैसे और किसके काम आएगी? दूसरे और खुले शब्दों में अगर यह कहा जाए कि, साल 2010-11 में सीवीसी बनाए जाने पर जिन पीजे थॉमस का बीजेपी ने जीना मुहाल कर दिया था. अब उसी सीवीसी (पद) की रिपोर्ट को ‘ढाल’ बनाकर केंद्र सरकार ने हौले से ही सही, एक ‘पंथ’ से कई ‘काम’ साध-समेट या निपटा लिए हैं, ये कहना भी गलत नहीं होगा.

एक के चक्कर में हिल गई पूरी सीबीआई!

एक ब्यूरोक्रेट्स की हैसियत से जोड़-तोड़ की राजनीति करके आलोक वर्मा बाकी तमाम को पीछे धकेल कर सीबीआई डायरेक्टर बन तो गए. इसके बाद उनकी जो छीछालेदर हुई, वो जमाने के सामने है. आलोक वर्मा से पहले, ऐसी छीछालेदर शायद ही सीबीआई के इतिहास में किसी दूसरे डायरेक्टर की हुई होगी. देखा जाए तो, खुद की कुर्सी बचाने के साथ-साथ आलोक वर्मा, सीबीआई में परदे के पीछे से झांक रहे दुश्मनों को भी निपटाने की ‘नौकरी’ में काफी वक्त जाया कर रहे थे. इसका सर्वोत्तम नमूना सामने निकलकर आए राकेश अस्थाना. अगर यह कहा जाए कि, एक राकेश अस्थाना और उनके तमाम चहेतों को निपटाने के चक्कर में उलझे आलोक वर्मा बाकी सबकुछ भूल गए थे. तो भला इसमें भी गलत क्या? शायद इसी का नतीजा रहा उनसे सीबीआई की कुर्सी का जबरिया छीन लिया जाना. जिसे वे लाख कोशिशों के बाद भी हाल-फिलहाल तो बचा पाने में पूरी तरह नाकाम ही रहे हैं.

नाकाबिले बर्दाश्त है आसमान से जमीन पर देखना!

बैच के तमाम आईपीएस की भीड़ को न मालूम कैसे-कैसे पछाड़ कर बेचारे आलोक वर्मा दिल्ली पुलिस कमिश्नर की कुर्सी से सीधी ‘कुलांच’ भर कर तो सीबीआई जैसी ‘मलाईदार’ कुर्सी पर जाकर जम पाए थे. कार्यकाल पूरा होने में कुछ ही दिन बाकी बचे तो दुश्मनों की नजर लग गई. तमाम नाकाम कोशिशों के बावजूद वर्मा से उनकी तमाम धींगामुश्ती के बाद आखिरकार कुर्सी छीन ली गई. दबंगई के संग सरकार से सीधा मुचैटा लेने के एवज में उन्हें थमाया गया फायर एंड सेफ्टी विभाग के निदेशक का ‘झुनझुना’! ताकि वे अपनी सरकारी सेवा के बचे-खुचे दिन जैसे-तैसे अज्ञातवास में ही सही. बिता-काटकर सरकार के कंधों से उतरकर रुखसत हो सकें. अड़ियल आईपीएस वर्मा ने मगर ऐसा होने नहीं दिया. वजह साफ है कि कहां सीबीआई जैसी अच्छे-अच्छों की चूलें हिला देने वाली संस्था और कहां बेचारा फायर एंड सेफ्टी जैसा सूखा महकमा. वाकई बुजुर्गों ने सही ही कहा है कि आसमान से जमीन पर देखना हर किसी के बूते की बात नहीं होती है. शायद इसीलिए सीबीआई से धकियाकर फायर एंड सेफ्टी में भेजा जाना आलोक वर्मा को भी भला कैसे ‘रास’ आता? सो उन्होंने सरकारी सेवा से ‘इस्तीफा’ देकर सरकारी नौकरी में थोड़ी-बहुत बाकी रही ‘इज्जत’ को महफूज रखने के लिए आखिरकार आखिरी ‘दांव’ खेल दिया है.

सीबीआई में बवाल पर दिल्ली पुलिस में रौनक!

ब्यूरोक्रेसी के मौजूदा और दिल्ली पुलिस में आलोक वर्मा की कमिश्नरी में उनकी मातहती निभा चुके कुछ अधीनस्थ दिल्ली पुलिस मुख्यालय में आज भी बैठकर सीबीआई में चल रही उठा-पटक पर बैठे-बैठे ‘जुमलेबाजी’ करके चटकारे ले रहे हैं. भले ही सीबीआई से दिल्ली पुलिस का सीधा कोई वास्ता दूर-दूर तलक न हो. दिल्ली पुलिस मुख्यालय में तमाम ऐसे भी मातहत हैं जिन्हें अपनी कमिश्नरी में आलोक वर्मा ने पुलिस-मुख्यालय की इमारत से निकाल कर बाहर (दिल्ली में ही पुलिस मुख्यालय की मुख्य बिल्डिंग से बाहर करके) तैनाती दे दी थी. वे भी अब आपस में चटकारे ले लेकर सीबीआई बिल्डिंग में मची ‘हाय-तौबा’ पर हंसी-ठिठोली करके ही सही अपना मन खुश कर ले रहे हैं. यह कह-सुन-सुनाकर...

‘बड़े बे-आबरु होकर तेरे कूचे से निकले....

मय भी मयस्सर नहीं कि दिल से मेरे गम निकले’!

(लेखक वरिष्ठ खोजी पत्रकार हैं)