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पड़ताल: जब टायर में लगे 'गोबर' ने मुजरिम को 'काल-कोठरी' के भीतर पहुंचाया

हैरतअंगेज और चकरा देने वाली बात यह थी कि, युवक के बदन से गोली के निकलकर बाहर जाने का रास्ता तो दिखाई दे रहा था. लेकिन गोली बदन में घुसी कहां से है? यह पता नहीं चल पा रहा था

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

‘सीन-ऑफ-क्राइम (मौका-ए-वारदात) चीखता-चिल्लाता है. जरूरत है तो, घटनास्थल पर सबसे पहले पहुंचे पुलिसकर्मी द्वारा एकाग्रचित्त होकर उस आवाज को सुन लेने की.’ उम्दा पड़ताल का यह फार्मूला था दिल्ली पुलिस में 40 साल नौकरी कर चुके बलजीत सिंह का. अब मशहूर पेशेवर वकील (दिल्ली हाईकोर्ट) बलजीत सिंह का दावा था कि, उनके फार्मूले से ‘पड़ताल अंत तक कामयाब रहेगी. मुलजिम ‘मुजरिम' भी साबित होगा.’ दिल्ली पुलिस में एसीपी डिफेंस कालोनी सब-डिवीजन के पद से रिटायर हुए बलजीत सिंह को 20 साल से ज्यादा हो चुके हैं. इसके बाद भी दिल्ली पुलिस की नई पीढ़ी बलजीत सिंह के इस नायाब पड़ताली फार्मूले को आज भी याद रखे हुए है.

‘पड़ताल’ की इस कड़ी में हम जिस पेचीदा-तफ्तीश का चर्चा करने जा रहे हैं, उसके ‘पड़ताली-अफसर’भले ही बलजीत सिंह न होकर दिल्ली पुलिस के खानदानी कोतवाल अशोक कुमार सक्सेना रहे हों, मगर अदालत में पेश इस पड़ताली की ‘पड़ताल’ने साबित कर दिया कि, मौका-ए-वारदात चीखता-चिल्लाता है. ‘पड़ताल’ की इस कड़ी में हम जिस 'ब्लाइंड-मर्डर-केस' के सनसनीखेज खुलासे का जिक्र करने जा रहे हैं, उसमें उस जमाने के नए-नए पड़ताली बने थानेदार ने भी बलजीत सिंह के ही नायाब फार्मूले को आजमाया था. परिणाम यह रहा कि, अदालत ने उसी ‘कामयाब-पड़ताल’ के बलबूते मुलजिम को ‘मुजरिम’ करार देकर उम्रकैद की सजा मुकर्रर कर दी.


35 साल पहले 1983 में बर्थडे पार्टी छोड़ ‘पड़ताल’ को पहुंचा

इस केस के बारे में करीब तीन दशक से थाने-चौकी कोर्ट कचहरी की फाइलों में दबी-कुचली यादों से धूल साफ करते हुए पड़ताली अफसर अशोक कुमार सक्सेना बताते हैं,‘उन दिनों मैं थाना बदरपुर की ओखला फेज-1 पुलिस चौकी इंचार्ज था. तारीख थी 31 जुलाई. पत्नी कल्पना सक्सेना का जन्मदिन मनाने के लिए परिवार के लोग दिल्ली के ग्रेटर कैलाश पार्ट-1 में इकट्ठे हुए थे. समय यही कोई दोपहर बाद चार से पांच बजे के बीच रहा होगा. पुलिस चौकी से टेलीफोन के जरिए सूचना आई कि, तुगलकाबाद शूटिंग रेंज के पास एक युवक मरा पड़ा है. बर्थडे पार्टी बीच में ही छोड़कर, सीधा मौके पर जा पहुंचा. यह सोचकर कि कहीं अनाड़ी या तमाशबीनों की भीड़ मौका-ए-वारदात को छेड़छाड़ करके कहीं ‘पड़ताल’ के लायक ही न छोड़े.’

गोली बाहर तो निकली, घुसी कहां से पता नहीं चला

घटनास्थल पर 24-25 साल के एक लड़के की खून सनी लाश पड़ी थी. मौके के मुआयने से दो बातें साफ हो गई थीं. युवक की हत्या गोली मारकर की गई है. वारदात के वक्त शराब या बीयर का इस्तेमाल घटनास्थल के आसपास हुआ है. हैरतअंगेज और चकरा देने वाली बात यह थी कि, युवक के बदन से गोली के निकलकर बाहर जाने का रास्ता तो दिखाई दे रहा था. लेकिन गोली बदन में घुसी कहां से है? यह पता नहीं चल पा रहा था.

लाश को पंचनामा के बाद पोस्टमॉर्टम के लिए अस्पताल भेज दिया. मरने वाले युवक की पहचान हुई कुशवंत सिंह निवासी ई-ब्लॉक कैलाश कालोनी, दिल्ली. जो यूटी कैडर के एक आईपीएस (अब रिटायर्ड) का रिश्तेदार था. इस सिलसिले में मैंने उसी दिन (31 जुलाई 1983) थाना बदरपुर में एफआईआर नंबर 150 पर हत्या का मामला दर्ज करके पड़ताल शुरू कर दी.

मौका-ए-वारदात से मिले सबूत जो अंत तक काम आए

घटनास्थल से चंद फर्लांग पेड़ के नीचे दूर बीयर/शराब की कुछ खाली साबूत कुछ फूटी हुई बोतलें पड़ी थीं. रिवाल्वर से चले कारसूतों के कुछ खोल (खोखे) पड़े थे आसपास. मौके पर जानवरों के गोबर के ऊपर से गुजरे अज्ञात वाहन के टायरों के ताजे निशान साफ-साफ नजर आ रहे थे. इससे साबित हो रहा था कि, घटनास्थल पर वारदात के समय कोई वाहन जरूर मौजूद था. लिहाजा शराब की बोतलों, कारतूस के खोखों के साथ-साथ मौके पर मौजूद क्राइम टीम से सब-इंस्पेक्टर और मामले के जांच अधिकारी अशोक कुमार सक्सेना ने, गोबर पर मौजूद वाहन के टायरों के निशान भी उठवा कर जरूरत के वक्त के लिए सुरक्षित रखवा लिए.

इस केस के पड़ताली अफसर अशोक कुमार सक्सेना को उनके कार्यों के लिए सम्मानित करते हुए पूर्व गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी

पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में आया गोली क्लोज रेंज से मारी गई

35 साल पहले की उस पड़ताल के पन्ने पलटते हुए बताते हैं अशोक कुमार सक्सेना, ‘अब तक ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) से पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आ चुकी थी. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट ने हमारे दिमाग में मौजूद उस गुत्थी को सुलझा दिया था कि, गोली युवक के बदन में घुसी कहां से है? गोली बगल से मारी गई थी, जिसकी वजह से पड़ताली टीम को गोली के बदन में घुसने का रास्ता नहीं दिखाई दिया. सीने पर जहां से गोली निकल कर बाहर गई थी, वहां बहुत बड़ा छेद था.’

दोस्तों के संग घूमने निकला था मगर घर लाश पहुंची

कुशवंत सिंह के घर से पुलिस को पता चला कि, सुबह वो दोस्तों के साथ मोटर साइकिल से सूरजकुंड घूमने गया था. दोस्तों ने बताया कि, सूरजकुंड से वापसी के वक्त कुशवंत और उसके दोस्त सड़क किनारे लघुशंका निवृत्ति के लिए रुके थे. पास ही कुछ लड़के शराब पीकर हवा में फायरिंग कर रहे थे. पड़ताली दस्तावेजों में दर्ज जानकारी के मुताबिक, वे आवारागर्द शराब की बोतलों को रखकर उन पर रिवॉल्वर से निशाना भी लगा रहे थे. पेशाब करने को लेकर दोनों पक्षों में कहासुनी हुई. शराबी लड़कों ने कुशवंत को गोली मार दी. दोस्त का कत्ल हुआ देखकर बाकी यार मौका-ए-वारदात से रफूचक्कर हो गए. पुलिस ने उन सबको भी पूछताछ के लिए हिरासत में ले लिया.

मददगार साबित हुए मौके से जब्त कारतूसों के खोखे

कुशवंत के साथी लड़कों से पुलिस को घटना की वजह तो पता चल गई. हत्यारों का मगर कोई सुराग हाथ नहीं आया. बकौल पड़ताली थानेदार अशोक कुमार सक्सेना, ‘मौके से जब्त कारतूस के खोखों से पता चल चुका था कि, रिवाल्वर .357 बोर मैगनम, जोकि स्मिथ एंड वैसम का बना हुआ है (प्रतिबंधित बोर), का इस्तेमाल मर्डर में हुआ है. साथ ही इस तरह के कारतूस .38 बोर स्पेशल मैग्नम रिवॉल्वर में भी चल सकते हैं. उस जमाने में ऐसे बेशकीमती रिवॉल्वर का लाइसेंस भारत में हासिल करना करना दुर्लभ था.

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दिल्ली पुलिस की लाइसेंसिंग ब्रांच से पुष्टि हुई कि, जिस बोर के रिवाल्वर से गोली चली है वो, दिल्ली में कुल जमा तीन-चार लोगों पर है, जिनमें एक धीरेंद्र ब्रह्मचारी, दूसरा संजय सिंह संधू और तीसरा किसी के.एल. शेखर का नाम सामने आया.’

टायर पर गोबर के निशानों ने संदेह को जब सच में बदला

तीन दशक पुरानी अविस्मरणीय ‘पड़ताल’ की फाइलों के पन्ने उलटते-पलटते याद करते हैं पड़ताली थानेदार अशोक कुमार सक्सेना, ‘वारदात के अगले दिन पुलिस टीमों ने संजय सिंह संधू और के.एल. शेखर के ठिकानों पर छापा मार दिया. संजय सिंह संधू घर पर नहीं मिला. मगर उसकी गैराज में खड़ी एंबेसडर कार को मैंने (पड़ताली) देखा तो चौंक पड़ा. मेरे चौंकने की वजह थी, कार के पहियों में लगा कुछ समय पुराना गीला गोबर. मैंने तुरंत क्राइम टीम से गोबर लगे टायरों का इंस्पेक्शन कराया. मेरा शक सच में बदलने लगा. क्योंकि घटनास्थल पर सफेद रंग की एंबेसडर कार की मौजूदगी की पुष्टि कुशवंत सिंह के डरपोक दोस्त, जो दोस्त की हत्या होते ही भाग गए, मुझसे पहले ही कर चुके थे. अब तक मैंने कुशवंत के दोस्तों को पूछताछ से फ्री नहीं किया था. वे सब थाने-चौकी में ही थे.’

दिल्ली के पूर्व पुलिस कमीश्नर अजय राज शर्मा के साथ अशोक सक्सेना

...वो चौधरी कौन था? 35 साल बाद भी न-मालूम!

उस कामयाब ‘पड़ताल’ के अफसर अशोक कुमार सक्सेना के शब्दों में, ‘उन दिनों खुद को ‘चौधरी’ बताने वाला एक आदमी इस पूरी पड़ताल के दौरान मुझसे कई मर्तबा टकराया. मुलजिम को अदालत ने मुजरिम करार दिया. मुजरिम उम्रकैद की सजा काट गया. मैं 40 साल दिल्ली पुलिस की नौकरी करके रिटायर हो चुका हूं. इसके बाद भी वो रहस्यमय शख्सियत 'चौधरी' कौन था? मुझे आज तक नहीं पता लगा.

बकौल अशोक सक्सेना, ‘जब मैंने कुशवंत सिंह के साथ मौजूद और वारदात के बाद मौके से फरार हुए कुशवंत के दोस्तों को पूछताछ के लिए बुलाया हुआ था, उसी वक्त काले रंग का 40-45 साल की उम्र दरम्यानी कद-काठी का खादी का सूट पहने एक आदमी मेरे पास आया. वह कुशवंत के दोस्तों की ओर देखकर बोला, 'बस यो ही ठीक पकड़े हैं. इन्हें ही क़त्ल में अंदर दीये रहिय्यो...बोत (बहुत) बढ्ढिया काम कियो है. मुलजिम इन्हीं को बनैय्यो (बनाना). मुबारक हो. हम तेरो (आपका पड़ताली अफसर अशोक सक्सेना का) पूरो (पूरा) ध्यान राख्खेंगे (रखेंगे).’ उस रहस्यमयी चौधरी की कहानियां सुनाते हुए अशोक कुमार सक्सेना बेसाख्ता हंस पड़ते हैं.

‘चौधरी’ पीछे-पीछे और मैं मजिस्ट्रेट के साथ आगे-आगे

पुलिस का प्रेशर बढ़ता देख और बचने का कोई रास्ता न मिलता देख आरोपियों संजय सिंह संधू और के.एल. शेखर ने तत्कालीन दक्षिणी जिला पुलिस उपायुक्त (डीसीपी साउथ) चंद्रप्रकाश के सामने मय- लाइसेंसी-रिवॉल्वर सरेंडर कर दिया. आरोपियों को पटियाला हाउस कोर्ट में पेश किया गया. वो रहस्यमयी ‘चौधरी’ कोर्ट भी पहुंच गया. कोर्ट ने दोनो आरोपियों की पुलिस रिमांड दे दी.

बताते हैं जांच अधिकारी अशोक कुमार सक्सेना, ‘मैं बदरपुर के लिंक मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के साथ आरोपियों की टेस्ट आइडेंटिफिकेशन परेड (टीआईपी) के लिए तिहाड़ जेल पहुंचा. जेल में कुशवंत के दोस्तों ने आरोपियों को पहचान लिया. टीआईपी करके जैसे ही मजिस्ट्रेट बाहर आए, वो रहस्मयी चौधरी जेलर से खड़ा पूछ रहा था कि, क्या टीआईपी में लड़कों (मुलजिमों) की पहचान हो गई है. रिपोर्ट क्या रही? चौधरी को जेल पर देखकर मेरा माथा चकरा गया. जबकि मेरे साथ मौजूद मजिस्ट्रेट बोले यहां (जेल पर) मत रूको सीधे गाड़ी कोर्ट की ओर दौड़ा दो. मजिस्ट्रेट ने बंद लिफाफे में सील टीआईपी रिपोर्ट कोर्ट के हवाले की. साथ ही उन्होंने उस चौधरी से बचने के लिए सुरक्षा भी कोर्ट से माँगी. बाद में पुलिस सुरक्षा में ही मजिस्ट्रेट साहब कोर्ट से बाहर गए.’ बताते हुए जोरदार ठहाका मारकर हंस पड़ते हैं अशोक सक्सेना.

पुलिस कमिश्नर बोले ‘चौधरी’ मेरा कोई रिश्तेदार नहीं!

‘चौधरी इस कदर पुलिस टीम के पीछे पड़ा था कि, बात उस समय के पुलिस कमिश्नर तक भी जा पहुंची. दिल्ली पुलिस मुख्यालय को खबर मिली कि वह, रहस्यमयी चौधरी खुद को उस समय के पुलिस कमिश्नर का करीबी और रिश्तेदार बताता था. हद तो तब हो गई जब ‘चौधरी’ से बचने के लिए पुलिस कमिश्नर ने एक स्पेशल सर्कुलर निकलवा कर दिल्ली पुलिस को सूचित किया कि, इस टाइप का कोई भी चौधरी उनका रिश्तेदार नहीं है. तब तक उस मर्डर केस की पड़ताल भी पूरी हो चुकी थी. साथ ही वो रहस्यमयी प्राणी चौधरी भी गायब हो चुका था.’ बताते हुए ठहाका मारकर हंस पड़ते हैं पड़ताली अफसर अशोक कुमार सक्सेना. और कहते हैं कि '...यह सब बातें छापने की नहीं होती हैं. छाप मत दीजिएगा. मैं क्या उस वक्त वो अजीब-ओ-गरीब सिरफिरा पूरी पुलिस के लिए सिरदर्द बना हुआ था....बस इसलिए जिक्र कर लिया आपसे आज 35 साल बाद. ’

गवाह-सबूत जिनसे अदालत में नजीर बनी ‘पड़ताल’

केंद्रीय विधि-विज्ञान प्रयोगशाला (सीएफएसएल) के बैल्सिटिक विशेषज्ञ रूप सिंह ने इस बात को साबित किया कि गोली, बरामद हथियार (रिवॉल्वर) से ही चलाई गई. प्रयोगशाला में यह भी मिलान सही साबित हुआ कि, एक आरोपी के घर की गैराज में गोबर से सने हुए टायरों में खड़ी दिखी एंबेसडर कार घटनास्थल पर मौजूद थी. बदरपुर थाने की एफआईआर इंडेक्स और तमाम अदालती कागजातों में दर्ज रिकार्ड के मुताबिक बतौर गवाह अदालत में तत्कालीन डीसीपी चंद्रप्रकाश (अब रिटायर्ड आईपीएस), कुशवंत सिंह के दोस्त राजन जैकब, अर्नेस्ट दीपक को भी पेश किया गया.

दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत में कई साल चले इस आपराधिक मामले में अंतत: एडिशनल सेशन एंड डिस्ट्रिक्ट जज श्रीमती कंवल इंद्रजीत ने 4 नबंवर 1992 को मुख्य आरोपी संजय सिंह संधू को हत्या और 25/54/59 आर्म्स एक्ट में उम्रकैद और पांच हजार रुपए जुर्माने की सजा मुकर्रर कर दी. जबकि अरविंद पासी, निखिल कुमार और के.एल. शेखर को सबूतों के अभाव में बाइज्जत बरी कर दिया.

...और यह हैं इस पड़ताल के ‘पड़ताली-अफसर’

अशोक कुमार सक्सेना मूलत: उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले की तहसील सिकंदराराऊ थाना अकराबाद के अंतर्गत स्थित मऊ गांव के मूल निवासी हैं. 15 अक्टूबर सन् 1948 को जन्मे अशोक कुमार सक्सेना ने 22 अक्टूबर सन् 1969 को दिल्ली पुलिस में मात्र 21-22 साल की उम्र में डायरेक्ट सब-इंस्पेक्टर बने अशोक कुमार सक्सेना दिल्ली पुलिस में ‘खानदानी-कोतवाल’ के नाम से मशहूर रहे हैं. खानदानी कोतवाल इसलिए क्योंकि, अशोक कुमार सक्सेना के छोटे बाबा छन्नू लाल सक्सेना यूपी पुलिस में दारोगा और दिल्ली पुलिस में एसपी थे. पिता ओम प्रकाश सक्सेना यूपी पुलिस में डिप्टी एसपी. छन्नू लाल सक्सेना के बड़े बेटे और अशोक कुमार सक्सेना के चाचा शील कुमार सक्सेना दिल्ली पुलिस में एसएसपी/डीआईजी से रिटायर हुए.

मां विद्यावती सक्सेना और पूर्व आईपीएस और पारिवारिक मित्र सरदार बी.जे.ए. स्याल (रिटायर्ड नेशनल सिक्योरिटी गार्ड महानिदेशक) की सलाह पर अशोक सक्सेना ने अनमने मन से (न चाहते हुए भी) दिल्ली पुलिस की थानेदारी कुबूल की थी. 17 साल बाद जनवरी 1986 में अशोक कुमार सक्सेना दिल्ली पुलिस में प्रमोट होकर इंस्पेक्टर बन गए. इंस्पेक्टर बनने के बाद कालांतर में अशोक सक्सेना दिल्ली के सुलतानपुरी, रूप नगर, हौजखास, कोतवाली, गीता कालोनी थाने के एसएचओ रहे.

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सन् 2005 में सहायक पुलिस आयुक्त (एसीपी) प्रमोट होने के बाद वे उत्तरी जिला ऑपरेशन सेल-जिला मुख्यालय प्रमुख, एसीपी सब-डिवीजन सदर बाजार भी रहे. सन् 1973 में दिल्ली में हुए देश को हिला देने वाले ‘विद्या जैन हत्याकांड’ से ‘पड़ताल’ का क-ख-ग सीखने वाले अशोक कुमार सक्सेना 30 अक्टूबर सन् 2008 को 40 साल की दिल्ली पुलिस की सर्विस के बाद दरियागंज सब-डिवीजन एसीपी पद से रिटायर हो गए.

60 साल पहले की दिल्ली पुलिस का दबंग दारोगा बलजीत सिंह अब मशहूर वकील के रूप में

‘कल्पना’, जो प्रेरणा थी मेरे द्वारा की गई ‘पड़तालों’ की

दिल्ली पुलिस की 4 दशक लंबी नौकरी में तमाम यादगार पड़तालों की नजीरें पेश करने का पूरा श्रेय आज 40 साल बाद यह खानदानी कोतवाल उस अर्धांगिनी (धर्मपत्नी) कल्पना सक्सेना को देता है, जो 16 जनवरी 1974 को उनके साथ विवाह बंधन में बंधी थीं. 14 मई 2013 को एक अदद बीमारी का बहाना लेकर कल्पना सक्सेना ने इतना लंबा साथ एक झटके में छोड़ दिया. बताते-सुनाते कल के इस बहादुर खानदानी कोतवाल की आंखे आज भी डबडबा जाती हैं. होंठ फड़फड़ा उठते हैं बहुत कुछ कहने को...मगर अल्फाज होंठो पर आकर भी होंठो के ही बीच भिंचकर खामोश हो जाते हैं.

पड़ताल का जिक्र हो और वो पत्नी कल्पना याद न आए, जो दिल्ली में पथराव (दिल्ली का बदनाम और चर्चित उमा खुराना प्रकरण) में अशोक सक्सेना के घायल होने पर अस्पताल में घंटों बेटे अमन सक्सेना और बेटी गुंजन सक्सेना के साथ एक पांव पर खड़ी रही थीं. किसी पड़ताल में ज्यादा व्यस्त होने पर कल्पना खाना लेकर थाने-चौकी में खुद ही पहुंच जाती थीं. बताते हुए गला भर्रा उठता है कल के उसी बहादुर ‘पड़ताली’ अफसर और खानदानी कोतवाल का आज. बकौल अशोक कुमार सक्सेना,‘मेरी हर पुलिसिया पड़ताल पर मौजूद है पत्नी कल्पना का सहयोग, जिसके साथ-सहयोग-प्रेरणा-समर्पण के बिना, शायद तमाम पड़तालें अधूरी रह जातीं बीते कल की पुलिस की नौकरी में.’