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फक्कड़ पुलिसिया ‘भगत’ जिसने, पैंट पर लिखे नंबर से ही कर दिया एक रात में चार कत्ल का ‘पर्दाफाश’

जरायम की दुनिया में ‘मौका-ए-वारदात’ तब तक चीखता-चिल्लाता है, जब तक पुलिस टीम और उसका एक बार आमना-सामना न हो जाए.

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

जरायम की दुनिया में ‘मौका-ए-वारदात’ तब तक चीखता-चिल्लाता है, जब तक पुलिस टीम और उसका एक बार आमना-सामना न हो जाए. जरूरत इस बात की होती है कि मौके पर पहुंचने वाला पुलिस अफसर घटनास्थल की उस चीख-पुकार और आसपास के वातावरण में मौजूद मौके के हालातों की ‘अकुलाहट’ को खुले हुए कान और पैनी नजर से सुन-समझ-देख ले.

घटनास्थल पर मौजूद शोर-शराबे से बेपरवाह होकर,‘तफ्तीशी’ (पड़ताली पुलिस अफसर) एक-एक सबूत/हालात को दिल-ओ-दिमाग में रचा-बसा ले. ‘पड़ताल’ की इस कड़ी में मैं ‘एक रात में चार कत्ल’ की तफ्तीश से आपको रू-ब-रू करा रहा हूं. जिसमें, चश्मदीद महिलाओं ने मौके से मिले एक-अदद मगर खास सबूत को इंस्पेक्टर के हाथों में सौंपना गंवारा किया था. मौके पर मौजूद पुलिस अधीक्षक यानि एसपी सिटी के हाथों में देने के बजाए. वो एक-अदद सबूत या रहस्यमयी ‘थैला’, जिसमें छिपा था एक रात में, एक घर में, एक महिला और तीन मर्दों सहित चार कत्ल का ‘राज’. अब से करीब 4 दशक साल पहले यानि सन् 1970 के दशक में.


1977-78 में यूपी का ढिंढावली गांव

गर्मी के दिन थे. थाना तितावी के गांव ढिंढावली में रात के वक्त हथियारबंद डकैतों ने एक घर पर डाका डाल दिया. आधी रात के वक्त डाकुओं के धावे से कोहराम मच गया. घर में घुसे डाकूओं ने कई घंटे जमकर लूटपाट की और कत्ल-ए-आम मचाया. डाकुओं ने महिला बच्चों को भी नहीं बख्शा. गांव में रात के बियाबान सन्नाटे को चीरती आवाजें सुनाई दे रही थीं तो सिर्फ और सिर्फ उस घर से रोने-चीखने-चिल्लाने की जिसे डकैतों ने निशाना बनाया था. बहादुर होने के बाद भी निहत्थे ग्रामीण मोर्चा ले पाने में खुद को बेबस समझ चुके थे. और डाकुओं से निहत्थे ही मोर्चे का मतलब हार के साथ ‘अकाल-मौत’.

एक रात में बिछा दीं एक आंगन में चार लाशें

प्रतीकात्मक तस्वीर

गांव वालों के शुरुआती विरोध से खिसियाये डाकू घर में घुसने के बाद और ज्यादा खूंखार हो उठे. उस काली रात में हथियारबंद डकैतों ने कई घंटे तक खून-खराबे और लूटपाट की वारदात को अंजाम दिया. घर में मौजूद पाई-पाई नकदी, सोना-चांदी सब-कुछ कब्जे में ले लिया. लूटपाट के दौरान आतंकित करने के लिए डाकुओं ने बच्चों और महिलाओं को भी बेरहमी से मारा-पीटा. इतने से भी डाकुओं का मन नहीं भरा. लिहाजा डाका डालने के बाद घर की देहरी से भागते वक्त उन्होंने, एक महिला और तीन मर्दों की हत्या भी कर दी.

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जब पुलिस भी सहम गई

सूचना पाकर थाना तितावी से पुलिस फोर्स मौके पर पहुंच गई. डाका और एक ही रात में चार-चार कत्ल से नाराज ग्रामीण मौके पर पहुंची पुलिस से दो-दो हाथ करने पर उतारू थे. आसपास के गांवों की भीड़ भी मौके पर पहुंच चुकी थी. चौहरे हत्याकांड से बौखलाये ग्रामीण पुलिस को घेरने की जुगत में थे. भीड़ के गरम-दिमाग को भांपकर कुछ चतुर-दिमाग पुलिस वाले मौके से दायें-बायें हो गये. यह सोचकर कि न मालूम कब गुस्साये गांव वालों का दिमाग घूम जाये. पुलिस अधीक्षक मुजफ्फरनगर रण बहादुर सिंह (आर बी सिंह) भी मौके पर रात को ही पहुंच चुके थे.

बेहाल-बौखलाई भीड़ और बेबस पुलिस

एक रात में गांव के किसी घर में महिला सहित चार लोगों की लाशें डाकुओं द्वारा बिछा दिये जाने से नाराज भीड़ के गुस्से के आलम का अंदाजा इसी से लग रहा था कि मौके पर पहुंची पुलिस को ग्रामीण सबूत तक एकत्रित करने देने को राजी नही थे. पंचनामा करके लाशों को पोस्टमॉर्टम हाउस भिजवाने में भी पुलिस को पसीना आ चुका था. ऐसे में अनुभवी पुलिस अधिकारी जिला कप्तान (एसपी) मुजफ्फरनगर रण बहादुर सिंह के दिमाग में जो ‘फार्मूला’आया, उसके बारे में गांव वाले और बाकी पुलिस वाले सोच भी नहीं सके थे. यह अलग बात है कि उस रात पुलिस अधीक्षक का अगर वो ‘दांव’ या ‘फार्मूला’ कहिये, फेल हो गया होता तो फिर, वह रात मुजफ्फरनगर पुलिस पर बहुत भारी साबित होती.

मरा सांप ‘भगत’ के गले में लटका दिया!

जिस ढिंढावली गांव में एक रात में चार-चार कत्ल हुए वह, मुजफ्फरनगर के थाना तितावी क्षेत्र में स्थित था. इसके बाद भी चौहरे हत्याकांड-डाके की पड़ताल हवाले कर दी गई, नई मंडी थाने के तेज-तर्रार सब-इंस्पेक्टर सुरेंद्र सिंह लौर को. यह वही दारोगा लौर थे जिन्हें, यूपी पुलिस व राज्य की जनता उनकी ईमानदार और दबंग छवि के चलते ‘भगत जी’ के नाम से जानती-पहचानती थी. जिला कप्तान ने योजना बनाई कि अगर इस पड़ताल को जिले में पुलिस महकमे के पास मौजूद इकलौते तुरुप के पत्ते से ‘भगत-जी’ के हवाले कर दिया जाये तो मुलाजिम की गिरफ्तारी तय है.

थानेदार को बुलाने कप्तान ने भेजी कार

सुरेंद्र सिंह लौर

इस संवाददाता/लेखक ने यूपी पुलिस महकमे में जनता-जनार्दन के पुलिसिया ‘भगत-जी‘ यानि उस जमाने के सख्त मिजाज और अड़ियल तथा अपनी शर्तों पर नौकरी करने के आदी, थानेदार सुरेंद्र सिंह लौर से 48 साल पुरानी उस कामयाब पड़ताल को लेकर बात की. बेबाक सुरेंद्र सिंह लौर के मुताबिक, ‘उन दिनों मैं मुजफ्फरनगर जिले के नई मंडी थाने का इंचार्ज था. सुबह-सुबह कप्तान साहब की कार अपने थाने में, बिना ‘कप्तान’ के देखी तो मुझे हैरत हुई. साहब के ड्राइवर ने बताया कि मुझे कप्तान साहब ने ढिंढावली गांव में तुरंत बुलाया है. मैं ढिंढावली पहुंचा तो गांव में पांव रखने को जगह नहीं थी. ग्रामीणों को जैसे ही मेरे पहुंचने का पता चला, मेरी शक्ल देखने के लिए घटनास्थल पर तमाशबीनों-शुभचिंतकों की भीड़ और ज्यादा बढ़ गयी. कप्तान साहब ने सर-ए-आम ऐलान किया, ‘इस डाके और चौहरे हत्याकांड की तफ्तीश (पड़ताल) 'भगत-जी' करेंगे.’

हत्याकांड का ‘राज’ एसपी को नहीं बताया!

भीड़ में से पीड़ित परिवार की कुछ महिलाएं बे-झिझक होकर, भगत जी के सामने आ खड़ी हुईं. उन्होंने रात में हुई वारदात का पूरा वाकया सुरेंद्र सिंह लौर को सुनाया-बताया. एक महिला ने भगत जी (थानाध्यक्ष नई मंडी, सब-इंस्पेक्टर सुरेंद्र सिंह लौर) की ओर एक रहस्यमयी थैला बढ़ाया. चूंकि एसपी साहब (पुलिस कप्तान) पास में ही खड़े थे. सो प्रोटोकॉल के लिहाज स्वरूप, भगत जी ने उस थैले को महिला से कप्तान साहब (जिला पुलिस अधीक्षक) के हवाले करने की गुजारिश की. महिलाओं ने कप्तान-साहब और आसपास मौजूद तमाम पुलिस वालों की भीड़ में किसी को भी थैला देने से साफ इंकार कर दिया. मामले की नजाकत को भांपते हुए शहर कप्तान ने महिलाओं के पास मौजूद उस राजदार और रहस्यमयी थैले को खुद ही भगत-जी (पड़ताली) के हवाले करा दिया.

एक थैले में बंद था चार कत्ल का राज

बकौल उस मामले के पड़ताली और रिटायर्ड पुलिस उपाधीक्षक सुरेंद्र सिंह लौर, ‘महिलाओं का कहना था कि वो, रहस्यमयी थैला डाकूओं का था. दौरान-ए-पड़ताल मैंने जब थैले को खोला तो दंग रह गया. उसमें मात्र एक अदद मर्दानी-पैंट और एक जोड़ी चप्पल थी. पैंट पर किसी भी टेलर का ‘मार्का’ मौजूद नहीं था. सिर्फ एक अदद नंबर, पैंट के अंदर की ओर ‘चॉक’ (सफेद खड़िया) से लिखा हुआ था. दौरान-ए- मौका-मुआयना डाकूओं की शिकार महिलाओं ने घर के अंदर ले जाकर मुझे तमाम और भी हालातों से रू-ब-रू कराया. साथ ही उस रात हुई पूरी वारदात तफ्सील से समझायी.’

महीनों गली-गली भटका पुलिसिया ‘भगत’

यूं तो पैंट पर मात्र चॉक से नंबर लिखा हुआ ही नसीब हुआ था. उससे कोई खास मदद मिलने की उम्मीद लगाना बेईमानी थी. पब्लिक के बीच खुद की ‘भगत-जी’ वाली विश्वसनीय छवि और जिला कप्तान की उम्मीदों पर खरे उतरने की कंधों पर आ पड़ी जिम्मेदारी ने पड़ताल में हर रास्ता अख्तियार करने को ‘उकसाने’ में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी थी. ऐसे में चौहरे सनसनीखेज हत्याकांड के पड़ताली सब-इंस्पेक्टर मुजफ्फरनगर और उसके आसपास के कस्बों-गली-मोहल्लों में मौजूद दर्जियों (टेलर) की तीन-सौ से ज्यादा दुकानों पर वो पैंट लेकर कई दिन तक अंधेरे में खाक छानते हुए भटकते रहे.

‘सच’ की तलाश में पड़ताली ने भी बोला ‘झूठ’!

बिना टेलर बैज के भला कौन दर्जी बता पाता कि ‘चॉक’ से पैंट पर लिखा नंबर फलां टेलर/दर्जी के यहां का है! पड़ताल को आगे बढ़ाने में जुटे धुन के धुनी पड़ताली थानेदार सुरेंद्र लौर के मुताबिक, ‘शुरू में जिन-जिन दर्जियो के यहां पैंट लेकर गया वे सब, कुछ भी बताने से साफ मुकर गये. उनका शायद मानना रहा होगा कि, कौन पुलिस के पचड़े में पड़े. सो मैंने आखिर के कुछ दिनों में टेलरों से कहना शुरू किया कि पैंट जिस शख्स की है उसका एक्सीडेंट हो गया है. अगर पैंट से पहचान हो सके तो, पुलिस घायल को उसके 'अपनों' से मिलाने का पुन्य काम कर सकती है. पड़ताली पुलिस अफसर ‘भगत-जी’ की यह कथित फरेबी जुगाड़ (झूठ) पड़ताल को अंजाम तक पहुंचाने में मील का पत्थर साबित हुई.’

मौके पर कातिल खुद ही छोड़ आये सबूत

‘पैंट की पहचान होने से एक्सीडेंट में घायल किसी इंसान की मदद हो सकती है’, पुलिस के मुंह से सुनते ही इलाके का एक दर्जी खुलकर सामने आ गया. सब-इंस्पेक्टर सुरेंद्र सिंह लौर के शब्दों में, ‘एक दर्जी ने मुझे बताया कि पैंट पर मौजूद चॉक से लिखा हुआ नंबर उसी की हैंडराइटिंग में है. यह पैंट सिलवाने कुछ समय पहले चार पांच लड़के आये थे. जिसकी पैंट थी उस लड़के ने नाप देने और रसीद कट जाने के बाद पैंट एक-दो दिन में ही सिलकर मांगी. उस टेलर ने समयाभाव के कारण जल्दी पैंट सिलकर देने से इंकार कर दिया. इस पर वो लड़के पैंट का कपड़ा (चॉक से लिखे नंबर सहित) वापस ले गये. कपड़ा वापसी करते वक्त टेलर ने लड़के के कपड़ा-वापसी के दस्तखत बतौर सबूत रसीद पर ले लिये थे. उसी पैंट और एक जोड़ी चप्पल का थैला डाकू, वारदात वाली रात मौके पर छोड़ आये थे. उसी थैले को बाद में घर की महिलाओं ने मेरे हवाले कर दिया था. मैंने टेलर की वो रसीद जब्त कर ली जिसमें, पैंट का कपड़ा लेकर आने वाले का नाम पता लिखा था.’

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कातिल ने खुद लिखी गिरफ्तारी की ‘रसीद’

बिना टेलर-बैज-एड्रेस के भी कपड़े पर किसी टेलर द्वारा चॉक से लिखा गया एक अदद अदना सा नंबर चार-चार हत्याओं के जिम्मेदार कातिलों तक पुलिस को पहुंचा सकता है, इस पड़ताल की यही सबसे हैरतंगेज बात थी. मामले के पड़ताली पुलिस अफसर ने टेलर से जब्त रसीद पर देखा कि उसके ऊपर नरेंद्र भैंसी गांव खतौली लिखा था. इतना पढ़ते ही पड़ताली अफसर की आंखों में चमक आ गयी. भैंसी गांव खतौली थाने के अंतर्गत ही स्थित था. जबकि उस जमाने में जरायम की दुनिया में पश्चिमी उत्तर-प्रदेश में नरेंद्र भैंसी जैसे खूंखार बदमाश की तूती बोलती थी. नरेंद्र भैंसी के नाम से पुलिस वालों के चेहरों पर सफेदी उतर आती थी. जबकि आम-आदमी का हलक सूख जाता था.

पुलिसिया भगत की भाग-दौड़ ‘नजीर’ बन गयी

वो थाना तितावी जिसके इलाके में एक रात में हुए चौहरे हत्याकांड की वारदात को सुरेंद्र सिंह लौर ने बजरिये पैंट पर लिखे एक नंबर से सुलझा दिया था

‘वो रसीद हाथ लगने के बाद चार-पांच दिन के भागीरथ प्रयासों से मैंने नरेंद्र भैंसी सहित 9 डाकूओं को गिरफ्तार कर लिया. काफी साल बाद मैंने सुना कि जिस चौहरे हत्याकांड का मुझसे या मेरे थाने से (नई मंडी थाना) दूर-दूर तलक वास्ता ही नहीं था, उस जघन्य मामले की मेरी पड़ताल ने अदालत की नजरों में ‘नजीर’ कायम कर दी. कालांतर में डाकुओं में से अधिकांश को ब-मशक्कत उम्रकैद अदालत से सुनाई गयी.’ उस बेहद पेचीदा मगर, पुलिस महकमे द्वारा गले में मरा हुआ सांप समझकर पहनाई गयी बेहद उलझी हुई पड़ताल के पन्नों से धूल हटाकर, पुलिसिया नौकरी में कामयाबी का वो किस्सा बयान करते वक्त, सुरेंद्र सिंह लौर के माथे पर गर्व तो साफ झलकता है मगर, घमंड की खुरेंचें कहीं नजर नहीं आतीं.

अक्खड़ दिमाग-फक्कड़ प्रवृत्ति का अजब ‘भगत’

अलीगढ़ जिले के गौरौला गांव के मूल निवासी सुरेंद्र सिंह लौर 1966 बैच (सब-इंस्पेक्टर) के उत्तर प्रदेश पुलिस के ‘टॉपर’ हैं. 31 अगस्त सन् 2004 को सुरेंद्र सिंह लौर पीएसी डिप्टी कमांडेंट (डिप्टी एसपी यूपी पुलिस) पद से (गाजियाबाद) रिटायर हो चुके हैं. चार दशक की पुलिसिया नौकरी में खाना बनाने के लिए एक अदद स्टोव, जमीन पर सोने के लिए चटाई साथ लेकर चलते रहे. सोते वक्त बतौर तकिया सिर के नीचे (सिरहाना) पत्थर का इस्तेमाल करते रहे. पुलिस ड्यूटी के उपरांत हमेशा पांवों में (आज भी) ‘खड़ाऊं’ (काठ की चप्पल) पहनते रहे. ‘अख्खड़’ दिमाग और ‘फक्कड़’ प्रवृत्ति के मनमौजी सुरेंद्र सिंह लौर की इन्हीं तमाम खासियतों ने उन्हें, ख्वाहिशों की संकरी-मलिन बस्तियों से तमाम उम्र दूर ही रखा.

खाकी में ‘कमाई’ का हैरतंगेज ‘हिसाब-किताब’

बेइंतिहाई सख्त मिजाज मगर मिलनसार रिटायर्ड डिप्टी एसपी सुरेंद्र सिंह लौर के ही शब्दों में,‘पुलिस महकमे की नौकरी में और उसके बाद की ‘कमाई’ में अगर आज भी कुछ साथ है तो, 55-60 साल पुरानी ‘उधार-खाते-खर्चे’ की सहेजकर रखी हुईं काली-पीली पड़ चुकीं हिसाब-किताब की फटेहाल नीली स्याही-निब वाले कलम से लिखी हुईं डायरियां. पब्लिक और पुलिस महकमे से हासिल ‘भगत-जी’ की वो उपाधि जो, मेरे बाद भी जमाने में मौजूद रहेगी. हाड़तोड़ मशक्कत और ईमानदारी की कमाई से उच्च शिक्षित की गई बेटी डॉक्टर (श्रीमती) लीना सिंह लौर. उच्च शिक्षित पुत्र धर्मेंद्र सिंह लौर और पुत्रवधू प्रतिज्ञा लौर. प्रतिज्ञा लौर, भारत सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के अधीन संचालित इंडियन नेशनल एकेडमी ऑफ इंजीनियरिंग में बहैसियत अनुसंधान-अधिकारी (रिसर्च-ऑफिसर) कार्यरत हैं. अर्धांगिनी (पत्नी) सुरेंद्री लौर जो, जमाने में मेरी पैदा की हुई तमाम मुसीबतों में भी किसी मासूम बालक सी खिलखिलाती और किले की गहरी नींव सी मजबूत आज तलक साथ खड़ी हैं.’

तमगे बदरंग हुए मैं आज भी अपने ‘रंग’ में हूं

1970 के दशक के उत्तर प्रदेश पुलिस के मशहूर ‘पड़ताली’ पुलिस अधिकारी रहे सुरेंद्र सिंह लौर ने कमाई के नाम पर 40 साल की पुलिसिया नौकरी में और जो कुछ कमाया उसमें शामिल है, सन् 2001 में डिप्टी एसपी रहते हुए यूपी के गवर्नर के हाथों मिला राष्ट्रपति पुलिस पदक, इंस्पेक्टर की वर्दी में कठिन सेवा पुलिस पदक. सुरेंद्र लौर बताते हैं कि ये सब (मेडल प्रशस्ति पत्र) वक्त के साथ-साथ रंग बदलने लगे हैं. कोई पीला पड़ चुका है और कोई काला. बस मैं जैसा जन्म के समय था वैसा ही बुढ़ापे में भी हूं. मैं नहीं बदला.’

(इस ‘संडे क्राइम स्पेशल’ में जरूर पढ़ें: ‘अपनी सी आधी उम्र की पुत्रवधूओं के साथ एम.ए. (पोस्ट-ग्रेजुएशन) में पढ़ रहा यह इंस्पेक्टर, स्टूडेंट है या 56 साल पुरानी अंधाधुंध चलने वाली पुलिस की स्वचालित मशीनगन!’)

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. फ़र्स्टपोस्ट पर इनके अन्य लेख पढ़ने को लिए यहां क्लिक करें)