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जानवरों से अंग ट्रांसप्लांटेशन डाल सकता है इंसानी स्वास्थ्य पर बुरा असर

जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन का मनुष्य प्रजाति पर क्या असर होगा, क्या जानवरों के रोग से मनुष्य को संक्रमित होने दिया जाए- एक ऐसे रोग से जिसका कोई इलाज तक मौजूद नहीं?

Maneka Gandhi

अगर वैज्ञानिकों की चलती रही तो अब से सौ साल बाद बहुत से मनुष्य आंशिक रूप से सुअर या फिर वनमानुष के रूप में नजर आएंगे. मैं ऐसा किसी रूपक के तौर पर नहीं बल्कि शब्द के सटीक अर्थों में कह रही हूं.

वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि जानवरों का हृदय, जिगर, गुर्दा, पैंक्रियाज (अग्नाशय) और फेफड़े को मूल रूप में मनुष्यों में ट्रांसप्लॉन्ट कर दें. उपलब्ध मानवीय अंगों की कमी है और अंगों, उत्तकों, कोशिकाओं की मांग बढ़ते जा रही है. ऐसे में वैज्ञानिकों ने जानवरों से अंग निकालने पर जोर लगाया है. एक प्रजाति के अंग निकालकर दूसरी प्रजाति में लगाने की प्रक्रिया को जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन कहते हैं और अभी तक ऐसा करने में कामयाबी नहीं मिली है. लेकिन पूरा उद्योग जगत लगा हुआ है, जानवरों को टुकड़ों में कतर रहा है ताकि एक दिन मनुष्य आंशिक रूप से सुअर या फिर वनमानुष के रूप में नजर आए.


जानवर के अंग मनुष्य में ट्रांसप्लॉन्ट करने के पीछे तर्क ये दिया जाता है कि जब जरूरत होगी जानवरों के अंग ट्रांसप्लॉन्ट किए जाने के लिए उपलब्ध होंगे और मरीज को महीनों तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा. ट्रांसप्लॉन्टेशन फौरी तौर पर हो तो शायद जीवित रहने की संभावनाएं ज्यादा बलवती होंगी. किसी मृत व्यक्ति के आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त अंग के हासिल होने का इंतजार करने की जगह स्वस्थ जानवर को एनेस्थेसिया (बेहोशी की दवा) देकर उसके अंग निकालकर उन्हें ट्रांसप्लॉन्ट किया जा सकेगा.

आखिर सुअर और वनमानुष ही क्यों?

ज्यादातर कंपनियों के लिए सुअर सबसे पसंदीदा जानवर बन चला है. मनुष्य के शरीर में इस्तेमाल के गरज से हजारों सुअर मारे जा रहे हैं लेकिन मनुष्यों में ट्रांसप्लॉन्ट करने से पहले सुअर के अंग वनमानुष में ट्रांसप्लॉन्ट किए जाते हैं. यह देखा जाता है कि क्या ये अंग किसी दूसरी प्रजाति में ट्रांसप्लॉन्ट किए जाने पर काम कर रहे हैं.

सवाल उठता है आखिर वनमानुष ही क्यों? मनुष्य और वनमानुष के 90 फीसदी डीएनए मेल खाते हैं सो कैद कर लिए गए इस जानवर से एक हद तक मनुष्य का काम लिया जाता है. लेकिन फिर सुअर क्यों? दरअसल सुअर के अंगों का आकार मनुष्य के अंगों के बराबर होता है.

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अंग-प्रत्यारोपण के लिए कौन सा जानवर सबसे आदर्श माना जाए? ऐसे जानवर के शरीर की बनावट मनुष्य के शरीर की बनावट के समान होनी चाहिए ताकि उसके अंग मानव-शरीर में सही तरीके से काम कर सकें. इस जानवर को कोई रोग नहीं लगा होना चाहिए. जानवर में ऐसा कोई जीन नहीं होना चाहिए जो मनुष्य की रोग-प्रतिरोधक क्षमता को कम करे. फिर, ऐसे जानवर का पालन-पोषण भी कम खर्च में होना चाहिए और यह भी जरूरी है कि वह साल में खूब सारे बच्चे जने. और फिर, जानवर ऐसा हो कि उसे मारने में मनुष्य को तनिक भी हिचक ना हो.

(फोटो: रॉयटर्स)

लेकिन ऐसा जानवर कोई है नहीं दरअसल!

प्राइमेटस् यानि मनुष्य के आदि-पूर्वज वनमानुष बेशक शरीर की बनावट के लिहाज से मनुष्य के करीब पड़ते हैं लेकिन उन्हें मनुष्यों से संक्रमण भी बहुत जल्दी लगते हैं. उनके जल्दी-जल्दी बच्चे भी नहीं होते और मनुष्यों को (बशर्ते इसमें वैज्ञानिकों को शामिल ना करें) वनमानुषों की जान लेना भी अच्छा नहीं लगता.

सुअर साल में कई दफे बच्चे जनता है और उसे कम खर्चे में पाला जा सकता है. मुश्किल यह है कि इसका खून और इसके तमाम आणुवांशिक बनावट मनुष्य से बहुत ज्यादा अलग है. सुअर बिल्कुल ही अलग प्रजाति है. विकास-क्रम में मनुष्य और सुअर को एक-दूसरे से जुदा हुए 8 करोड़ वर्ष से भी ज्यादा का असर गुजर गया. तो क्या प्रजातियों के विकास-क्रम को झुठलाना आसान है?

अभी तक कोई सफलता नहीं मिली है वैज्ञानिकों को

ना, अभी तक ऐसा नहीं हो सका है. लाखों की तादाद में जानवर मार दिए गए लेकिन वैज्ञानिक जेनो-प्लॉन्टेशन की दिशा में एक कदम आगे नहीं बढ़ सके हैं. उनका बुनियादी मकसद है वनमानुष के हृदय को हटाकर उसकी जगह सुअर का हृदय ट्रांसप्लॉन्ट करना लेकिन यह मकसद अभी तक पूरा नहीं हो सका है.

अंग-प्रत्यारोपण नाकाम रहते हैं क्योंकि हर स्तनधारी प्रजाति का शरीर एक खास प्रणाली पर काम करता है और उसका खून भी विशिष्ट किस्म का होता है. हर प्रजाति की रोग-प्रतिरोधक प्रणाली अपने से अलग किसी और प्राणि का अंग स्वीकार करने से मना करती है जैसे ही मनुष्य का खून सुअर के अंगों से प्रवाहित होता है, मनुष्य के खून के एंटी-बॉडी सुअर की कोशिकाओं के विरुद्ध सक्रिय हो जाते हैं. कंपनियां कोशिश कर रही हैं कि मनुष्य में पाए जाने वाले थ्रोम्बोमोडोलिन नाम के प्रोटीन को सुअर की कोशिकाओं में जोड़ दें ताकि सुअर की कोशिकाएं बहुत कुछ मानव-कोशिका जैसी हों. ऐसा होने पर मानव-कोशिका का सुअर की कोशिका नामंजूर करने की आशंका कम होगी. माइक्रो-इंजेक्शन और इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन की तकनीक के सहारे मनुष्यों में पाए जाने वाले पांच जीन सुअर के जिगर, गुर्दे तथा हृदय में जोड़े गए हैं.

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सुअरों में ग्लैक्टोज ओलिगोसैक्राइड एन्जाइम (गेल) होता है. यह मनुष्यों मे नहीं पाया जाता. जब सुअर का कोई अंग या काशिका मनुष्य में ट्रांसप्लॉन्ट किया जाता है, यह एन्जाइम तुरंत ही इस प्रत्यारोपण को नकार देता है. वैज्ञानिकों ने आणुवांशिक प्रविधियों के सहारे एक ऐसा सुअर तैयार कर लिया है जिसमें गेल तकरीबन ना के बराबर है. लेकिन अभी प्रयोगशाला में चलने वाले परीक्षण पूरे नहीं हुए हैं. आणुवांशिक प्रविधियों के सहारे तैयार किए गए इस सुअर को गेलसेफ पिग का नाम दिया गया है.

क्या हैं जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन के खतरे?

अब इसे वैज्ञानिकों का दुर्भाग्य कहिए कि सुअर की हर कोशिका की आणुवांशिक संरचना में रेट्रोवायरस होते हैं. ये रेट्रोवायरस भी ट्रांसप्लॉन्ट किए जा रहे ऊतक के सहारे मनुष्य के शरीर में पहुंच जाएंगे. यह गंभीर खतरे की स्थिति है क्योंकि रेट्रोवायरस अपने मूल पालनहार के शरीर में तो कोई रोग पैदा नहीं करते लेकिन मनुष्य के शरीर में पहुंचकर एकदम विध्वंसक साबित हो सकते हैं. वैज्ञानिकों ने सुअर की कोशिका में एक रेट्रोवायरस खोजा है जिसका नाम है पीईआरवी.

साइंस नाम के जर्नल में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक पीईआरवी सुअर से मनुष्यों में पहुंच सकता है. जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन के विरोधियों को भय है कि ये वायरस मनुष्य के शरीर में पहुंचकर महामारी का सबब बन सकते हैं और इन महामारियों के लिए ना तो हमारे शरीर में प्रतिरोधक क्षमता पैदा हुई है ना ही उनका अभी तक कोई इलाज निकला है.

ई-जेनेसिस सरीखी बड़ी व्यावसायिक कंपनियों का दावा है कि जानवर के डीएनए से इन खरनाक वायरसों को हटा लिया गया है. पीईआरवी फ्री सुअर तैयार करने के लिए उन्होंने कुछ जीन्स तो निकाल लिए हैं जबकि बाकी को एकबारगी खत्म कर दिया है.

वैज्ञानिक की मानें तो बड़ी बाधा अभी बनी हुई है. वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर आणुवांशिक रूप से दुरुस्त कर दिए गए सुअरों के अंग से वायरस जनित रोग लगने का खतरा खत्म हो जाए तो भी एक बड़ी बाधा बनी रहती है कि मनुष्य की रोग-प्रतिरोधक प्रणाली दूसरे प्रजाति का अंग ना स्वीकार करे या फिर सुअर के अंग मनुष्य के शरीर से बेमेल बैठें तो क्या होगा.

इस क्षेत्र के विशेषज्ञों को चिंता है कि आणुवांशिक रूप से दुरुस्त कर दिए गए सुअर के अंग चूंकि अपनी आण्विक संरचना में सुअर की भांति नहीं रह जाते सो उनमें वायरस जनित रोग लगने की आशंका ज्यादा है. जिन मनुष्यों में ये अंग ट्रांसप्लॉन्ट किए जाएंगे उन्हें अपने शेष जीवन के लिए इम्यूनोसप्रैसेंट के भरोसे रहना होगा. बेशक जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन से जीवन की अवधि बढ़ जाएगी लेकिन अभी तक यह बात स्पष्ट नहीं हो पायी है कि पशुओं के अंग मनुष्यों में ट्रांसप्लॉन्ट करने पर जीवन की गुणवत्ता पर जो नकारात्मक असर पड़ेगा उसे देखते हुए ऐसा ट्रांसप्लॉन्टेशन कराना ठीक होगा या नहीं.

जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन की सूरत में मनुष्य को रोग लगने और समाज में उस रोग के फैलने की आशंका है. ऐसे खतरे का अभी सही तरीके से आकलन नहीं हो सका है. आखिर जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन का मनुष्य प्रजाति पर क्या असर होगा, क्या जानवरों के रोग से मनुष्य को संक्रमित होने दिया जाए- एक ऐसे रोग से जिसका कोई इलाज तक मौजूद नहीं? इबोला और एड्स से लाखों लोग मौत के शिकार हो चुके हैं.

उठेंगे ये सवाल

अगर आगे के वक्त में कभी सुअर के अंग मनुष्य के शरीर में इस्तेमाल किए जा सके तो फिर कई सवाल उठेंगे, जैसे:

क्या अगर इलाके में जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन करवाया कोई व्यक्ति मौजूद हो तो वहां रहने वाले समुदाय के सदस्यों से इस बाबत सलाह-मशविरा किया जाना चाहिए ? कोई व्यक्ति कोर्ट पहुंच सकता है, वह मांग कर सकता है कि समाज के व्यापक हित के मद्देनजर ऐसे व्यक्ति को जो अपने शरीर में जावनर का अंग ट्रांसप्लॉन्ट करवा चुका है, लोगों से हेम-मेल करने और शारीरिक संबंध बनाने से रोका जाए ताकि लोगों को जानवरों के रोग लगने का खतरा ना रहे. ऐसा हुआ तो जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन करवा चुका व्यक्ति अस्थायी तौर पर अपने घर में नजरबंद किया जा सकता है—जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन करवाने से पहले उससे इस आशय के अनुबंध पर हस्ताक्षर करवाए जा सकते हैं.

आखिर कोई मरीज अपनी आजादी पर भविष्य में आयद की जाने वाली पाबंदियों के बारे में ठीक-ठीक सहमति कैसे दे सकता है. क्या वह ऐसे कानूनी प्रावधान को आगे के समय में चुनौती नहीं देगा. ऐसा मरीज तर्क दे सकता है कि मैंने दबाव में सहमति दी क्योंकि जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन का कोई कारगर विकल्प मौजूद नहीं था.

अगर जानवर के अंग ट्रांसप्लॉन्टेशन के लिए उपलब्ध हो जाएं तब भी उपचार करना बहुत खर्चीला साबित होगा. जानवरों के विषाणु-मुक्त अंगों के उत्पादन के लिए जरुरी होगा कि उन्हें बहुत नियंत्रित परिवेश में पाला जाए. इसके मायने हुए कि ट्रांसप्लॉन्टेशन और ट्रांसप्लॉन्टेशन के बाद के समय में मरीज की निगरानी के लिए एक नियमित कार्य-बल की व्यवस्था करनी पड़ेगी और ऐसा करना बहुत खर्च की मांग करेगा. बहुत संभव है बीमा कंपनियां जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन का खर्च वहन ना करें.

सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने वाले यह उपचार प्रदान करने से मना कर सकते हैं क्योंकि उपचार की लागत ज्यादा होगी. केवल बहुत धनी लोग ही ऐसा उपचार कराने के बारे में सोच सकते हैं और तब भी इसके साथ नैतिकता के कुछ अहम सवाल जुड़े रहेंगे. अगर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने वाले जेनो-ट्रांसप्लॉन्टेशन सरीखा महंगा उपचार उपलब्ध कराते हैं तो समाज के लिए कहीं ज्यादा फायदेमंद साबित होने वाली दूसरी रोजमर्रा की चिकित्सा-सुविधाओं पर असर पड़ेगा.

इस्लाम और यहूदी धर्म में सुअर को अपवित्र माना जाता है. बहुत संभव है, ये धर्म सुअर के अंग ट्रांसप्लॉन्ट करवाए लोगों को स्वीकृति ना दें. ऐसे में क्या सुअर के अंग ट्रांसप्लॉन्ट करवाए हुए लोगों को समाज में स्वीकृति मिल सकेगी?

नैतिकता का तकाजा तो यही है कि मनुष्यों की तरह जानवरों के भी अधिकार हैं. जानवरों को शारीरिक तौर पर लगातार प्रयोग की दशा में रखना, समुदाय के शेष जानवरों से अलग-थलग करना और फिर मार देना क्या नैतिक दृष्टि से उचित है? आणुवांशिक रूप से बदलाव करके जो भेड़ ज्यादा ऊन देने की नीयत से तैयार की गई है वह जन्मना अंधी होती है और उसके पैर इतने कमजोर होते हैं कि वह चल भी नहीं सकती. सोचना होगा कि आणुवांशिक बदलाव के सहारे तैयार किए गए सुअर में ऐसे कौन से नतीजे देखने को मिल सकते हैं.

क्या है सही विकल्प?

क्या आसान रास्ता यह नहीं कि जानवरों को ज्यादा से ज्यादा तादाद में मारते जाने या मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने के लिहाज से जानवरों में बदलाव करने की जगह मनुष्यों के अंगों का ही निर्माण किया जाए? आज थ्री-डी की तकनीक मौजूद है. मीट सेल्स का संवर्धन किया जा चुका है और इसके सहारे नॉन-एनीमल मीट हैम्बर्गर बनाए जा रहे हैं. अच्छा हो कि किसी मनुष्य के अंगों और उत्तकों का संवर्धन किया जाए और फिर जिस मनुष्य का वह अंग या उत्तक है, उसमें ट्रांसप्लॉन्ट किया जाय.

बड़ी विचित्र दुनिया है यह जहां सारे मनुष्य गलत खान-पान करते हैं, कसरत नहीं करते, अपने शरीर का साथ बदपरहेजी का बरताव करते हैं और हर जगह कीटनाशकों का छिड़काव कर रहे हैं. फिर जब शरीर के अंग जवाब देने लगे हैं तो महिलाओं, गरीब लोगों और अब जानवरों से उम्मीद लगाए बैठे हैं कि इनके अंग मिल जायें तो कुछ दिन और जी लें.

जान मारने के इस बड़े धंधे के मैं एकदम खिलाफ हूं, बहाना यह किया जा रहा है कि वैज्ञानिकों को काम मिल रहा है और वे मानवता के व्यापक फायदे के लिए प्रयोग कर रहे हैं. आखिर ऐसी नई दुनिया में हम क्यों नहीं बढ़ रहे जहां कोई नैतिक बाधा ना हो, जिसमें मनुष्यों को इस नाते पाला जाए कि उनके अंग निकालने हैं दूसरे मनुष्यों में ट्रांसप्लॉन्ट करने हैं!