पिछले कई साल से वैज्ञानिक ये कहते रहे हैं कि कुत्तों पर किए जाने वाले तजुर्बे बेकार होते हैं. बहुत से वैज्ञानिक ये कहते हैं कि फार्मा कंपनियां जो कॉस्मेटिक प्रोडक्ट बनाती हैं, उनके लिए कुत्तों पर प्रयोग करना बेमानी है.
30 साल पहले मैंने पर्यावरण मंत्रालय में सीपीसीएसईए का गठन किया था. इसका मकसद ये तय करना था कि भारत में किन जानवरों पर कैसे प्रयोग किए जा सकते हैं. सीपीसीएसईए के जरिए नए विचार और जानवरों पर होने वाले प्रयोगों को बढ़ावा देने का इरादा था. अफसोस की बात ये रही कि इस वैज्ञानिक संस्था में वैज्ञानिकों के बजाय निचले स्तर के अधिकारी हावी हो गए. अब ये एक बेकार सा सरकारी दफ्तर बन कर रह गया है. सीपीसीएसईए में अब कभी-कभार बैठकें हो जाती हैं. पुराने प्रयोगों पर मुहर लगाने का काम होता है. हां, इन बैठकों से जरूरी दवाओं की कीमतें जरूर बढ़ जाती हैं. इनके जनता तक पहुंचने में भी काफी वक्त लगता है.
कुत्तों समेत और भी कई जानवरों पर होता है प्रयोग
अक्टूबर 2017 में तजुर्बों और प्रयोगों में कुत्तों के इस्तेमाल पर पहली कांफ्रेंस हैदराबाद में हुई थी. इन बैठक का आयोजन पीपुल्स फॉर एनिमल्स इंडिया ने किया था. लंदन स्थित संस्था क्रुएल्टी फ्री इंटरनेशनल भी इसमें भागीदार थी. इस कांफ्रेंस का मकसद लैब में कुत्तों पर होने वाले प्रयोगों में उन पर जुल्म की तरफ लोगों का ध्यान खींचना था. इस कांफ्रेंस में सरकारी अधिकारियों के अलावा उन सोलह भारतीय कंपनियों ने भी हिस्सा लिया, जो कुत्तों पर प्रयोग करते हैं.
पूरी दुनिया में हर साल करीब दो लाख कुत्तों पर दवाओं और कॉस्मेटिक के प्रयोग होते हैं. दुनिया भर की नियामक एजेंसियां हर साल तमाम दवाओं और कॉस्मेटिक के जहरीले असर को जानने के लिए चूहों के अलावा दूसरे जानवरों को चुनती हैं. इन प्रयोगों से ये पता लगाया जाता है कि शरीर में ऐसी दवाओं के जाने के बाद कैसा असर होता है. ताकि ये पता चल सके कि इन्हें इंसान इस्तेमाल कर सकते हैं या नहीं. ऐसे प्रयोग सिर्फ दवाओं के ही नहीं, कीटनाशकों और खेती में इस्तेमाल होने वाले दूसरे केमिकल के भी होते हैं.
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ऐसे प्रयोगों में कुत्ते की बीगल नाम की नस्ल का सब से ज्यादा इस्तेमाल होता है. असल में वो ज्यादा विरोध नहीं करते. उनका आकार भी बहुत बड़ा नहीं होता. तजुर्बों के लिए इन कुत्तों को कई बरस तक पिंजरों में कैद करके रखा जाता है. इस दौरान इन्हें बेहद तकलीफदेह तजुर्बों से गुजरना पड़ता है. कई दफे उनकी आवाज निकालने वाली नली काट दी जाती है, ताकि वो भौंक कर शोर न मचा सकें. इन कुत्तों के इलाज के लिए डॉक्टर भी नहीं होते, तकलीफ होने पर इन्हें दर्द निवारक दवाएं भी नहीं दी जातीं. ऐसे कुत्ते जब भी जुल्मी प्रयोग करने वाली कंपनियों से छुड़ाए जाते हैं, तो ये पाया गया है कि उनके दिल बड़े हो गए होते हैं. तनाव की वजह से इन कुत्तों को कई बीमारियां भी हो जाती हैं. वो इंसानों से बहुत घबराए हुए होते हैं. ऐसे कुत्तों को फिर से सामान्य जिंदगी जीने लायक बनाना बहुत मुश्किल होता है.
अफसोस की बात ये है कि वैज्ञानिकों की सलाह के बावजूद, कुत्तों का प्रयोग में इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. कुत्तों पर होने वाले प्रयोग से हमें कोई खास नए आंकड़े नहीं मिलते. इनका कोई वैज्ञानिक आधार भी नहीं होता. वैज्ञानिकों के ऐतराज और आम लोगों के विरोध के बावजूद कुत्तों पर प्रयोगों के जुल्मो-सितम जारी हैं. पचास के दशक में पेनिसिलिन के कुत्तों पर प्रयोग से कई कुत्ते मर गए थे. इस वजह से ये दवा बाजार में आने में देर भी हुई. वहीं इंसानों में पेनिसिलिन कारगर दवा साबित हुई.
कुत्तों पर होने वाले प्रयोग बेकार
असल में कई साल तक वैज्ञानिक ये मानते थे कि सभी स्तनधारी जीवों का शरीर एक तरह से काम करता है. इनमें खून का बहाव और सांसों का प्रवाह एक जैसा होता है. इन के खाना खाने और पचाने की प्रक्रिया भी एक जैसी होती है. वैज्ञानिक मानते थे कि सभी स्तनधारी जीवों का तंत्रिका तंत्र भी एक जैसा होता है. लेकिन बाद में ये बात साफ हो गई कि किसी भी जानवर के शरीर का बर्ताव दूसरे से नहीं मिलता. इसके बावजूद लोग यही मानते हैं कि जानवरों पर तमाम दवाओं के प्रयोग से हम ने लाखों इंसानों की जान बचाई है. सच तो ये है कि जानवरों पर होने वाले ज्यादातर प्रयोग बेकार के साबित हुए हैं.
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कुत्तों पर होने वाले प्रयोग खास तौर से बेकार साबित होते हैं, क्योंकि इनसे हमें किसी भी तरह की नई जानकारी नहीं मिलती है. एक जानवर पर प्रयोग करके उससे दूसरे जानवर पर होने वाले असर का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. वैज्ञानिकों को ये बात अच्छे से मालूम है. साफ है कि कुत्तों पर प्रयोग खाली कागजी खानापूरी के काम आती है. ताकि इंसानों के लिए दवाएं जारी करने से पहले ये दावा किया जा सके कि फलां जानवर पर इस दवा का प्रयोग किया गया है.
अगर कोई दवा इंसानों पर 70 फीसद तक कारगर है, तो वो कुत्तों पर 72 फीसद असर डालेगी. ऐसी दवा का कुत्तों पर प्रयोग करने की कोई वजह नहीं बनती.
कुत्तों पर दवाओं के असर के ज्यादातर प्रयोग इंसानों पर असर के ठीक उलट होते हैं. 1982 में अमेरिका की कनेक्टिकट यूनिवर्सिटी में बेंजोडियाजेपाइन का प्रयोग हुआ तो इसके जहरीले असर कुत्तों पर हुए प्रयोग से साफ नहीं हुए.
असफल प्रयोगों के बाद भी कुत्तों पर जुल्म जारी
इसी तरह इटली की नेर्वियानो यूनिवर्सिटी में CYP3A नाम के एंजाइम के जहरीले असर का प्रयोग कुत्तों पर किया गया. लेकिन इस दवा के इंसानों पर असर का अंदाजा नहीं लगाया जा सका. कुत्तों का शरीर अलग तरह से काम करता है. कुत्तों में साइटोक्रोम P450 नाम का एक एंजाइम मिलता है, जो कुत्तों के शरीर के काम को इंसानों से अलग करता है. ऐसे में किसी भी दवा को कुत्तों पर आजमाने से इसका इंसानों पर असर नहीं मालूम हो सकता.
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अमेरिका कि इलिनॉय यूनिवर्सिटी ने 43 दवाओं के कंपाउंड इंसानों और कुत्तों पर आजमाए, तो पता ये चला कि कुत्तों और इंसानों में इनका असर चूहों के मुकाबले भी ज्यादा था. एक दवा कंपनी एस्ट्राजेनेका ने भी एक प्रयोग में पाया था कि कुत्तों और इंसानों पर दवाओं का असर बिल्कुल अलग होता है.
इन तमाम मिसालों के बावजूद कुत्तों पर दवाओ के प्रयोगों का जुल्म जारी है. बहुत सारे प्रयोग करने के बाद जब दवाएं इंसानों पर आजमाई जाती हैं, तो भी उनके बुरे असर सामने आई हैं. कई जहरीले केमिकल का कुत्तों पर असर नहीं होता, मगर इंसानों पर बहुत बुरा असर होता देखा गया है.
लंदन की संस्था क्रुएल्टी फ्री इंटरनेशनल ने ऐसे हजारों प्रयोगों की मिसाल देकर कुत्तों पर प्रयोग बंद करने की मांग की है.
कुत्तों पर तजुर्बों के नाम पर होने वाले जुल्म बंद होने चाहिए. अब तकनीक की तरक्की की वजह से हमारे पास दवाओं के प्रयोग के दूसरे विकल्प मौजूद हैं. कंप्यूटर सिमुलेशन के जरिए दवाओं के असर का अंदाजा लगाया जा सकता है. इसके अलावा इंसान के भ्रूण से कुछ कोशिकाएं निकालकर भी नई दवाओं के प्रयोग किए जा सकते हैं. इनसे कुत्तों के मुकाबले ज्यादा बेहतर नतीजे निकाले जा सकते हैं. इन नए तरीकों की मदद से हम कुत्तों पर होने वाले जुल्मों को रोक सकते हैं. इससे पैसे भी काफी बचेंगे.
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आप को ये समझना होगा कि कुत्तों पर प्रयोग के नाम पर होने वाले जुल्म एकदम गैरजरूरी हैं. इन्हें रोकने की जरूरत है. दवा कंपनियों पर इस बात का दबाव बनाने की जरूरत है. इसके लिए सरकारी मशीनरी और अधिकारियों को भी जागरूक होने की जरूरत है. उन्हें नियमों में बदलाव करना होगा, ताकि जानवरों पर गैरजरूरी जुल्म बंद हों.
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