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अंग प्रत्यारोपण के लिए सुअरों के बेतहाशा इस्तेमाल का क्या नतीजा?

वैज्ञानिकों को अनुसंधान के लिए रुपए मिलते हैं. और अगर वे सुअरों पर प्रयोग से मनुष्य के इस्तेमाल में आने लायक अंग तैयार कर सके तो आखिर को उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिलेगा. ऐसे में जानवरों की जिंदगी की किसे फिक्र है?

Maneka Gandhi

पहला ज्ञात जेनो-ट्रांसप्लांटेशन (प्रत्यारोपण) भगवान शिव ने किया था. शिव के ससुर दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया. इस यज्ञ में उन्होंने शिव और अपनी पुत्री का अपमान किया. शिव की पत्नी यानी सती ने अपमान से आहत होकर प्रतिकार में अपने को यज्ञकुंड में भस्म कर दिया.

दक्ष का सिर कटकर गिर पड़ा और जल गया. बाद में जब भगवान शिव ने उन्हें क्षमादान दिया तो दक्ष को फिर से नई जिंदगी मिली, उनके कटे हुए धड़ पर भेड़ का सिर जोड़ा गया. लेकिन ज्यादा प्रसिद्ध कथा गणेश के सिर के कटने की है. शिव ने एक हाथी के बच्चे के सिर को काटकर उसे गणेश के धड़ से जोड़ा था.


बीते तीन सौ सालों से डॉक्टर इस करिश्मे को दोहराने की कोशिश कर रहे हैं. इस प्रक्रिया को जेनो-ट्रांसप्लांटेशन कहते हैं. इसमें किसी मनुष्य के अलावा किसी और प्राणि की कोशिका या अंग मनुष्य के शरीर में प्रत्यारोपित(ट्रांसप्लांट) किया जाता है.

इस प्रक्रिया में हजारों जानवर मारे गए हैं और ऐसी हर कोशिश नाकाम हुई है. लेकिन ये नाकामियां वैज्ञानिकों के कदम ना रोक सकीं. आखिर, जानवरों की जान सस्ती जो है. सो, विज्ञान के नाम पर हम उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं !

17 वीं सदी में ज्यां बैपटिस्ट डेनिस ने पशुओं का खून मनुष्यों में चढ़ाना शुरू किया. ऐसी कोशिश में जिसको भी खून चढ़ाया गया उसकी मौत हुई. जेनो-ट्रांसफ्यूजन(पशु का खून मनुष्य को चढ़ाना) फ्रांस में कई सालों तक प्रतिबंधित रहा. 19 वीं सदी में विभिन्न पशु-प्रजातियों तथा मनुष्य के बीच त्वचा के प्रत्यारोपण की धुन सवार हुई.

प्रतीकात्मक तस्वीर

डोनर(दाता) के रूप में बहुत से पशुओं का इस्तेमाल हुआ जैसे- भेड़, खरगोश, कुत्ता, बिल्ली, चूहा. मुर्गा तथा कबूतर. इन सबकी त्वचा पर केश, पंख या रोम होते हैं. लेकिन त्वचा के प्रत्यारोपण में लगे सर्जन(शल्य-चिकित्सकों) को यह बात अपने काम से ना रोक सकी. त्वचा-प्रत्यारोपण का सबसे बेहतर विकल्प मेंढक को माना जाता था. कभी-कभार तो मेंढक के जीवित रहते ही उसकी चमड़ी उतार ली जाती थी. ऐसा कोई भी प्रत्यारोपण सफल नहीं हुआ.

बीसवीं सदी में फ्रांस के प्रयोगशील सर्जन अलेक्सिस कैरेल ने रक्तवाही नलिकाओं(ब्लड वेसल्स) को जोड़ने की एक नई तकनीक ईजाद की. नतीजतन, पहली बार सफलतापूर्वक अंग-प्रत्यारोपण कर पाना संभव हुआ. उन्हें इस खोज के लिए 1912 में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया. कैरेल की रुचि विभिन्न प्रजाति के प्राणियों के बीच प्रत्यारोपण करने में थी और उनकी तकनीक के कारण ज्यादा संख्या में लोगों ने पशुओं पर प्रयोग करने शुरू किए.

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कुछ बरसों बाद पेरिस में काम करने वाले एक रूसी प्रवासी सर्गेई वेरोनॉफ को खयाल आया कि क्यों ना जो बुजुर्ग उम्र बढ़ने के कारण जिंदगी जीने से रुचि गंवा चुके हैं उनमें नई उम्मीद जगाई जाय और इसके लिए जरूरी है कि उन पर उम्र के जो असर हुए हैं उन्हें कम किया जाए.

वेरोनॉफ ने बड़ी तादाद में चिम्पांजी और बैबून(एक किस्म का लंगूर) के अंडकोष(टेस्टिकल्स) काटे और उन्हें बुजर्ग पुरुषों में प्रत्यारोपित किया. ऐसे प्रत्यारोपण से किसी बुजुर्ग पर सकारात्मक असर ना हुआ, उल्टे उन्हें संक्रमण(इन्फेक्शन) लगा और जटिलता ज्यादा बढ़ गई.

इस धारणा के साथ कि हार्मोन्स का स्राव करने वाली ग्रंथियों का प्रत्यारोपण किया जाय तो ऐसे प्रत्यारोपण कराने वाले व्यक्ति को फायदा होगा, अमेरिका में जॉन ब्रिंक्ले ने अपने प्रयोग जारी रखे. ब्रिंक्ले अपने प्रयोगों के लिए बकरे के अंगों का इस्तेमाल करता था. उसे स्थानीय किसानों ने बता रखा था कि बकरे में बहुत ज्यादा काम-शक्ति (सेक्सुअल पोटेंसी) होती है. बाद के वक्त में ब्रिंक्ले को अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन ने प्रतिबंधित कर दिया.

1960 के दशक में लुसियाना के तुलेन विश्वविद्यालय के कीथ रीमज्मा ने एक परिकल्पना सामने रखी कि मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों के गुर्दे मनुष्यों में प्रत्यारोपित करने पर काम कर सकते हैं और इस तरह गुर्दे की खराबी का कामयाब उपचार किया जा सकता है. उस वक्त(1950 के दशक) तक किसी एक मनुष्य के गुर्दे का दूसरे मनुष्य में प्रत्यारोपण चलन में आ चुका था लेकिन मृत मनुष्य से जुटाए गए गुर्दों की तादाद बड़ी कम हुआ करती थी.

रीमज्मा ने गुर्दे हासिल करने के लिए चिम्पांजी को चुना क्योंकि विकास-प्रक्रिया में चिम्पांजी(वनमानुष) मनुष्यों के सबसे ज्यादा करीब हैं. उसने ऐसे 13 प्रत्यारोपण किए. सभी चिम्पांजी गहरी पीड़ा झेलते हुए मर गए और यह प्रयोग असफल रहा.

चिम्पांजी के गुर्दे के प्रत्यारोपण वाली एक महिला 9 महीने तक जीवित रही लेकिन सारे समय उसे अस्पताल के बेड पर कैथरेटर के सहारे रहना पड़ा. प्रत्यारोपण के एक और मामले में वैज्ञानिकों ने सुअर का गुर्दा बैबून में लगा दिया. पांच महीने के भीतर बैबून की मौत हो गई.

(फोटो: रॉयटर्स)

लेकिन वैज्ञानिकों का गुर्दे प्रत्यारोपित करने का प्रयोग जारी रहा. टॉम स्टारज्ल ने कोलोराडो में बैबून का इस्तेमाल डोनर(दाता) के रूप में किया. स्टारज्ल के प्रयोगों का भी वही हश्र हुआ जो रीमज्मा के प्रयोगों का .

जेम्स हार्डी ने 1964 में चिम्पांजी के हृदय का प्रत्यारोपण एक ऐसे मरीज में किया जिसकी दोनों टांगें काटनी पड़ी थीं और हृदय-प्रत्यारोपण के वक्त वह तकरीबन कोमा की अवस्था में था. प्रत्यारोपण के कुछ घंटे के भीतर मरीज की मौत हो गई. जाहिर है, मौत चिम्पांजी की भी हुई. साल 1967 में क्रिश्चियन बर्नाड ने पशुओं के हृदय-प्रत्यारोपण के दो प्रयास किए. दोनों असफल रहे.

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हार्डी के बाद हृदय संबंधी जेनो-ट्रांसप्लांटेशन की कोशिश का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण लियोनार्ड बेली का है. बेली ने 1983 में बेबी फेई नाम की एक नन्ही सी बच्ची में बैबून के हृदय का प्रत्यारोपण किया. यह प्रत्यारोपण एकदम असफल रहा, बच्ची के शरीर ने बैबून के हृदय को अपनाने से इनकार कर दिया और बच्ची की 20 दिनों के भीतर मौत हो गई.

डॉक्टरों की दुनिया से अलग, कोई आम आदमी भी इस बात की समझ रखता है कि बैबून में ओ-ब्लड ग्रुप नहीं होता. ओ ब्लड ग्रुप को डोनर(दाता) माना जाता है. बैबून में एबीओ ब्लड ग्रुप होता है जिसे मनुष्यों को नहीं दिया जा सकता.

टॉम स्टारज्ल को मनुष्य से मनुष्य में गुर्दे तथा जिगर(लीवर) के ट्रांसप्लांट(प्रत्यारोपण) का अग्रणी माना जाता है. उसने 1960 के दशक में कोलोराडो में कुछ मरीजों में पशुओं के जिगर का प्रत्यारोपण किया. ऐसे किसी प्रयोग में उसे सफलता नहीं मिली.

इम्यूनो सप्रैसेंट ( ऐसी दवाइयां जो आपके शरीर को बाहरी चीज, जैसे अंग, इनकार करने से रोकें) की उपलब्धता बढ़ने पर 1990 के दशक में दो वयस्क मरीजों में उसने बैबून के जिगर का प्रत्यारोपण किया लेकिन कोई मरीज जीवित नहीं बचा.

इस बीच न्यूजीलैंड में जेनो-ट्रांसप्लांटेशन का एक प्रयोग हुआ है जिसमें सुअर की कोशिकाएं मधुमेह के मरीजों में प्रत्यारोपित की गई हैं. एक यूरोपीय समूह ने रीसस प्रजाति के बंदर में कृत्रिम तरीके से पार्किन्सन रोग पैदा किए और फिर इन बंदरों के मष्तिष्क में जीन-संवर्धित सुअर के भ्रूण से डोपामाइन उत्पन्न करने वाली कोशिकाओं को निकालकर प्रत्यारोपित किया.

मकसद प्रयोग के सफल होने पर यही प्रक्रिया पार्किन्सन रोग वाले व्यक्तियों के साथ दोहराने का है. अभी तक इस प्रयोग में कामयाबी तो नहीं मिली है लेकिन प्रयोग के नाम पर मॉरिसस से बड़ी तादाद में बंदर आयात किए जा रहे हैं.

एशिया और अफ्रीका के लोगों को कार्निया(आंख की पुतली) की जरूरत है. प्रयोग के तौर पर जेनो-ट्रांसप्लांटेशन के तहत कोर्निया का भी प्रत्यारोपण हो रहा है. सुअर का कार्निया बंदरों की आंख में प्रत्यारोपित किया जा रहा है. जिसको कार्निया प्रत्यारोपित किया गया है उसे जिंदगीभर आंखों में कार्टिकोस्टेरायड की जरुरत रहेगी—बशर्ते इसके 4 प्रयोग सफल रहें, हालांकि अभी ऐसा हो नहीं पाया है. नेबरास्का मेडिकल सेंटर में सुअर का हृदय भेड़ में लगाया जा रहा है. सुअर का हृदय, गुर्दा, फेफड़ा तथा लीवर(जिगर) लंगूरों में प्रत्यारोपित करने का काम जारी है. और नतीजा? नतीजे में अभी तक नाकामी ही मिली है लेकिन वैज्ञानिक नाकामियों से कब हार मानने वाले हैं!

यूरोप के क्लीनिक दावा करते हैं कि जानवरों के गर्भनाल, रक्त-कोशिका, प्लाज्मा तथा अन्य अंगों से निकाली गई कोशिकाएं उम्र को रोक रखने से लेकर कील-मुंहासों के उपचार तक में कारगर हैं और इन्हें खूब जोर-शोर से बेचा जा रहा है. लेकिन अभी तक इन चीजों के कारगर होने के प्रमाण नहीं मिले हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर (रायटर इमेज)

फिलहाल ऐसे प्रयोगों के केंद्र में सुअर है. इसकी वजह क्या है? सुअर तो अपने जीन की बनावट के लिहाज से मनुष्य से एकदम अलग है. वजह व्यावसायिक हैं. एक तो सुअर के अंग मनुष्य के अंगों के बराबर होते हैं, सुअर को पालना आसान है और सुअर साल में तीन दफे बच्चे जनते हैं सो बहुतायत में उपलब्ध हैं. लेकिन क्या इन बातों की वैज्ञानिकों की दुनिया के लिहाज कोई अहमियत है? ना, बिल्कुल नहीं. लेकिन जबतक वैज्ञानिक सुअरों को लेकर जेनो-ट्रांसप्लांटेशन के प्रयोग से बाज आएंगे तब तक कंपनियां लाखों सुअरों को सताकर मार चुकी होंगी.

साल 1969 में नोबेल पुरस्कार विजेता सर पीटर मेडावर ने, जिन्हें ट्रांसप्लांट इम्यूनोलॉजी का जनक माना जाता है, कहा था, 'हमें अंग-प्रत्यारोपण की समस्या का जेनोग्राफ्टस् के जरिए 15 सालों में समाधान कर देना चाहिए.' हम साल 2017 को पार कर चुके हैं लेकिन समाधान अभी हमसे बहुत दूर है. हृदय-प्रत्यारोपण के अग्रणी वैज्ञानिक नॉर्मन शुम्वे ने सच कहा था कि जेनो-ट्रांसप्लांटेशन में ही अंग-प्रत्यारोपण का भविष्य है और यह जारी रहेगा.'

वैज्ञानिक अपनी कोशिश जारी रखेंगे. उन्हें अपने अनुसंधान के लिए रुपए मिलते हैं. और अगर वे सुअरों पर प्रयोग से मनुष्य के इस्तेमाल में आने लायक अंग तैयार कर सके तो आखिर को उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिलेगा. ऐसे में जानवरों की जिंदगी की किसे फिक्र है?