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श्रद्धांजलि: आदमी की भाषा में जिंदा रहेंगे कुंवर नारायण

कुंवर नारायण ने जीवन भर कभी साहित्य को व्यवसाय नहीं बनाया, और यही वजह है कि उनकी कविता को कभी कोई हड़बड़ी नहीं रही कि वो नारे बने या चुनाव जिताए.

Avinash Mishra

पोलिश कवि तादेऊष रूजेविच की एक कविता मरने के कर्तव्य से कतराने और उसे भूल जाने से शुरू होती है और उसका अंत इन पंक्तियों पर होता है:

‘अब कल से


रवैया बिल्कुल फर्क होगा

बहुत ही संभल-संभल कर मरना शुरू करूंगा

बुद्धिमत्ता से खुशी-खुशी

बिना समय बरबाद किए’

इस कविता का हिंदी अनुवाद कुंवर नारायण (19 सितंबर 1927-15 नवंबर 2017) ने किया है. लेकिन बुधवार को ब्रेन स्ट्रोक की वजह से नहीं रहे कुंवर नारायण का मरना इस तरह का नहीं रहा. वह एक लंबे अरसे से कोमा में थे और करीब तीन वर्ष पहले ग्लूकोमा जैसी घातक बीमारी के नतीजे में अपनी आंख की रोशनी गंवा चुके थे. हिंदी कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने अभी कुछ दिनों पहले अपने एक कथ्य में उनकी इस स्थिति को बहुत मार्मिक शब्दों में बयां किया था: ‘मैंने देखा कि वह ‘अंधेरे में’ किसी पक्षी की मानिंद छटपटा रहे हैं.’

पंकज आगे लिखते हैं कि वह पहले वाले सहज, स्नेहिल और उदात्त लहजे में ही मिले, मगर सच्चाई का निष्कवच सामना करने की ईमानदारी के चलते उनके स्वर में तल्खी आ गई थी: ‘मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता, बहुत खराब लगता है. एक आदमी, जिसकी पूरी जिंदगी पढ़ने-लिखने में ही बीती हो, वह देख भी न पाए, इससे बड़ी सजा क्या होगी?’

कुंवर नारायण ने कविता लिखना तब शुरू किया, जब हिंदी कविता का आधुनिक और समकालीन स्वरूप बनने की प्रक्रिया में था. 90 बरस की संपन्न और सक्रिय आयु पाए कुंवर नारायण ने हिंदी कविता के लगभग सारे उतार-चढ़ाव देखे. उन्होंने उसके बड़बोलेपन और उसकी चुप्पियों दोनों को ही पहचाना और अपनी कविता के लिए बहुत धैर्य से एक अलग मार्ग तैयार किया.

'कोई दूसरा नहीं' ने बनाया विराट

वह एक ऐसे कवि रहे जिसका हिंदी में कभी कोई दुश्मन नहीं रहा और न ही वह किसी के दुश्मन रहे. उनकी साहित्य साधना साहसिकता से हीन, लेकिन गरिमापूर्ण रही. हिंदी के कुछ कवि बेहद दबी जुबान में उन्होंने एक अधिमूल्यित (overrated) कवि भी कहते रहे, लेकिन साल 1993 में प्रकाशित उनकी कविताओं की छठी किताब ‘कोई दूसरा नहीं’ के बाद से उनका और उनके कवि दोनों का ही कद बहुत विराट होता चला गया. इस किताब को साहित्य अकादमी से भी सम्मानित किया गया. बाद में उन्हें ज्ञानपीठ से भी सम्मानित किया गया.

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कुंवर नारायण की स्वीकृति हिंदी में देर से बनी और वह देर तक रहेगी इसमें संदेह नहीं है, लेकिन हमारी कविता और हमारा समय-समाज जिस मुश्किल और भयावहता से बावस्ता है, उसमें आगे यह स्वीकृति कितनी प्रतिनिधि और मददगार हो पाएगी, यह देखा जाना अभी बाकी है.

कविता को लेकर अलग रुख

कुंवर नारायण के कविता-संसार से गुजरकर यह लगता है कि उन्होंने कविता को जमीन से जुड़ी हुई चीज नहीं माना है. कविता को जमीन से जोड़ने के लिए उसे उसके वास्तविक आकाश से अतिक्रमित करना, उन्हें जायज नहीं प्रतीत हुआ. ज्यादा संसर्ग से मलिन होने वाली कविता उनका ध्येय नहीं रही. ज्यादा लिखे जाने से वह ज्यादा खराब होगी और गलत हाथों में जाकर नारों में इस्तेमाल होने लगेगी, यह संदेह उनकी कविता के परिवेश में बुना हुआ नजर आता है. इस परिवेश में उनका कवि जिंदगी से भागना नहीं, उससे जुड़ना चाहता है. उसे झकझोरना चाहता है:

‘उसके काल्पनिक अक्ष पर

ठीक उस जगह जहां वह

सबसे अधिक वेध्य हो कविता द्वारा’

इस तरह देखें तो कुंवर नारायण की कविता यांत्रिकता की अपेक्षा मनुष्यता की ओर सरकी हुई है. वह धूमिल को- जिन्होंने कविता को सबसे पहले एक सार्थक वक्तव्य कहा है- काटती है और कहती है कि वह वक्तव्य नहीं है, गवाह है:

‘कभी हमारे सामने

कभी हमसे पहले

कभी हमारे बाद’

कुंवर नारायण ने कभी साहित्य से साहित्येतर कामनाएं नहीं कीं. एक बार एक साक्षात्कार में जब उनसे यह पूछा गया कि साहित्य लिखने को और मोटर पार्ट्स का व्यवसाय करने को एक साथ वह कैसे संभालते हैं? तब उन्होंने जो जवाब दिया उनसे उनके व्यक्तित्व ही नहीं, कृतित्व को भी समझा जा सकता है. उन्होंने कहा: ‘साहित्य का व्यवसाय न करने लगूं इसलिए मोटर पार्ट्स का व्यवसाय करता हूं.’

कुंवर नारायण ने जीवन भर कभी साहित्य को व्यवसाय नहीं बनाया, और यही वजह है कि उनकी कविता को कभी कोई हड़बड़ी नहीं रही कि वह इश्तहारों की तरह चिपके, जुलूसों की तरह निकले, नारों की तरह लगे और चुनाव की तरह जीते. उसने बस इतना ही चाहा:

‘वह आदमी की भाषा में

कहीं किसी तरह जिंदा रहे, बस.’