सोचने, कहने और लिखने की आजादी के प्रखर पैरोकार कुलदीप नैयर ने हजारों लेख और करीब दस किताबें लिखकर इस दुनिया से विदा ले ली. नैयर ने दिल्ली में उस दौर में पत्रकारिता शुरू की थी, जब भारतीय उपमहाद्वीप पर पूरी दुनिया की निगाहें गड़ी हुई थीं. दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश हुकूमत की कमर टूट चुकी थी और वे षड्यंत्रपूर्वक भारत को मजहबी आधार पर दो टुकड़ों में बांट कर यहां से अपना पिंड छुड़ाना चाहते थे. मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने अपनी नासमझी में अंग्रेजों की इस साजिश को हवा दी और अंतत: 14 और 15 अगस्त, 1947 के दो तारीखी दिनों में दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता हिंदुस्तान और पाकिस्तान में तकसीम हो गई.
उसी बंटवारे के बवाल में कुलदीप नैयर का परिवार भी सियालकोट से अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर सीमा के इस पार आ गया था. उस दौर में पत्रकारिता की चुनौतियों के बारे में पूछने पर इस लेखक से करीब तीन साल पहले कुलदीप नैयर ने कहा था, 'बड़ा मुश्किल था यह आत्मसात करना कि कल तक को अपनी जन्मभूमि थी, आज वो दुश्मन देश मे तब्दील हो गई. अपने ही लोगों के खिलाफ लिखना बड़ा अजीब लगता था.'
नैयर को बंटवारे का दर्द उसी तरह ताजिंदगी सालता रहा जैसे 1947 में पश्चिमी पंजाब, मुलतान, सिंध और झंग क्षेत्रों से लुट-पिट कर आए अन्य लाखों शरणार्थियों के मन में अपनी सरज़मीं से उजड़ने का दर्द मरते दम तक टीसता रहा. कुलदीप नैयर ने मरते दम तक अपनी कलम का पैनापन कुंद नहीं होने दिया. 95 साल की उस पकी उम्र में भी कुलदीप जी अपने सरोकारों के लिए पूरी तरह सक्रिय थे.
1990 में बने थे ब्रिटेन में भारत के राजदूत
अखबारों में नियमित कॉलम लिखने से लेकर मानवाधिकारों, अभिव्यक्ति की आजादी, मजदूर-किसानों के हक से संबंधित जमावड़ों में भी लगातार तकरीरें करते रहे. आजादी के बाद भारत में बचे पंजाब प्रांत के पहले मुख्यमंत्री बने भीमसेन सच्चर के वे दामाद थे. यह संयोग ही है कि सच्चर के बेटे और पूर्व हाईकोर्ट जज और मानवाधिकारों के अगुआ जस्टिस राजिंदर सच्चर का भी इसी साल अप्रैल में निधन हुआ था.
जस्टिस सच्चर, कुलदीप नैयर और पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल की दरअसल तिकड़ी थी, जिसमें सबसे पहले गुजराल बिछड़े. फिर राजिंदर जी और अब कुलदीप नैयर ने अपने कलम को विश्राम देकर दुनिया छोड़ दी.
कुलदीप नैयर के ब्रिटिश अखबार में पत्रकारिता के अनुभव के चलते ही उन्हें 1990 में लंदन में भारत का उच्चायुक्त यानी राजदूत नियुक्त किया गया था. यह बात दीगर है कि ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ के प्रति सम्मान जताने संबंधी विवाद में नैयर को अपने पद से कार्यकाल के बीच में ही इस्तीफा देना पड़ा था.
आपातकाल में 'अमर' हो गए नैयर
कुलदीप नैयर को देश और दुनिया में यूं तो अपनी रिपोर्टिंग और लेखन के लिए जाना ही जाता था. मगर आपातकाल में उनकी गिरफ्तारी ने उनका नाम अभिव्यक्ति की आजादी के सेनानियों में अमर कर दिया. हालांकि वे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मित्रों में शुमार थे. इंदिरा गांधी उनके चुटकुलों की खासी मुरीद थीं. इसके बावजूद इंडियन एक्सप्रेस अखबार द्वारा संजय गांधी के राजनीति में दखल और जयप्रकाश नारायण को समर्थन से इंदिरा जी बौखला गई थीं. खुद कुलदीप नैयर के अनुसार उनको आपातकाल में कोई कष्ट नहीं दिया गया और फिर छोड़ भी दिया गया था. उन्होंने आपातकाल पर अंग्रेजी भाषा में 'इमरजेंसी रिटोल्ड' नामक किताब भी लिखी है. इसके अलावा उन्होंने अपनी आत्मकथा और पत्रकारिता के अनुभवों पर भी किताब लिखी है.
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कुलदीप नैयर का इसके अलावा सबसे बड़ा योगदान भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को सामान्य बनाने की दिशा में रहा है. उन्होंने अमन की आशा में अटारी सीमा पर बरसों दिए जलवाए. यह बात दीगर है कि पाकिस्तान के प्रति सख्त रुख की हामी ताकतें उनकी इस सार्थक कोशिश को मोमबत्ती गैंग कह कर बदनाम करने की कोशिश में लगी रहीं. अपनी पीढ़ी के अनेक तजुर्बेकार सार्वजनिक सरोकारी व्यक्तित्वों की तरह नैयर जी भी भारत-पाक की अवाम के बीच संबंध मजबूत करने के हिमायती थे लेकिन सियासतदानों को ऐसे सुझाव कब रास आते हैं.
देवदत्त जी, इंदर मल्होत्रा और एस निहाल सिंह की श्रेणी में नैयर शायद उन पत्रकारों की अंतिम कड़ी थे, जिन्होंने हिंदुस्तान के बंटवारे और भारत की आजादी से लेकर देश की सियासत को परवान चढ़ता देखा. इन लोगों ने जवाहर लाल नेहरू के राज, संविधान सभा की कार्रवाई और दर्जन भर से ज्यादा चुनावों की समीक्षा भी की. तब से लोकतंत्र के विभिन्न रंग देखे और अब प्रधान सेवक नरेंद्र मोदी का विकासवाद और इंदिरा गांधी के बाद किसी नेता की आधे देश को प्रभावित करने की अपील भी देखी.
देश में प्रेस की बदलती प्राथमिकताओं पर जताई थी चिंता
इसके बावजूद नैयर कांग्रेस सरकारों और बीजेपी एनडीए की सरकारों पर कोई तुलनात्मक किताब नहीं लिख पाए. यह बात दीगर है कि अपने लेखों में वे इस फर्क को रेखांकित करते रहे. पिछले कुछ वक्त से वे अरुण शौरी की तरह देश में लोकतंत्र की मजबूती के लिए 2019 के आम चुनाव में विपक्षी दलों के वोटों के एकजुट किए जाने पर जोर दे रहे थे.
अपने आखिरी वक्तव्यों में शुमार वक्तव्य में उन्होंने देश में प्रेस की बदलती प्राथमिकताओं और उनके खतरों पर चिंता जताई थी. वे देश में भीड़ की हिंसा से भी परेशान थे और इसे लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती मान रहे थे. कुल मिला कर कुलदीप नैयर ने आजीवन राजनीतिक और सामाजिक संकटों को नजदीक से देखा और जनता को निर्णायक मौकों पर परिपक्वता से अपना विवेक दिखाते देखा. इसीलिए उन्होंने लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने पर हमेशा जोर दिया.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)