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मजाज़ लखनवीः वो शायर जिसके लिए आंचल भी परचम था

मजाज़ औरत की खूबसूरती को क्रांति की राह में रूकावट नहीं मानकर उस औरत को भी क्रांति या बदलाव के एक सहयोगी या सहभागी के रूप में देख रहे थे

Piyush Raj

बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना

तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है


असरार उल हक़ मजाज़ यानी मजाज़ लखनवी का यह शेर उर्दू शायरी में उस बड़े बदलाव की ताकीद करता है, जब उर्दू शायरी में माशूका के जुल्फों के उलझनों से अधिक महत्व दुनियावी उलझनों को दिया जाने लगा था. मजाज़ ने जिस दौर में लिखना शुरू किया वो ‘तरक्कीपसंद तहरीक’ यानी प्रगतिवाद का दौर था.

तरक्कीपसंद तहरीक के दौर में कई नामचीन शायर हुए. इनमें फैज़, जोश मलीहाबादी जैसे शायर भी थे. इन सभी के शायरी का विषय लगभग एक ही था. ऐसे में अपनी अगल पहचान कायम करना बहुत ही मुश्किल काम था. मजाज़ ने इस मुश्किल को बड़ी ही बखूबी से किया.

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मजाज़ उन चंद शायरों में शामिल हैं जिन्होंने आधुनिक उर्दू शायरी को एक नया मोड़ दिया है. तरक्कीपसंद शायरों के लिए मुहब्बत और माशूका की खूबसूरती के बयान से अधिक समाज में गैर-बराबरी और भेदभाव का मसला अधिक बड़ा था. लेकिन दूसरी तरफ उर्दू शायरी की वो परंपरा भी थी, जिसमें माशूका की खूबसूरती के बखान के बिना किसी भी शायर की शायरी को अधूरा ही समझा जाता था.

हुस्न के मयार को बदलने वाला शायर

दूसरी तरफ प्रेमचंद ने 'तरक्कीपसंद तहरीक' के लिए कहा था कि हमें हुस्न के मयार को बदलना होगा यानी सुंदरता के मायने को बदलना होगा. मजाज़ यही काम करते है जैसा फैज़ ने ‘मुझसे पहली मुहब्बत मिरे महबूब न मांग’ लिखकर किया था. अपनी ग़ज़ल ‘नौजवान खातून से’ में मजाज़ इसी हुस्न के मयार को बदलते हुए और कुछ हद तक फैज़ से दो कदम आगे बढ़कर कहते हैः

हिजाब ऐ फ़ितनापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था

खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था

...

तिरे माथे का टीका मर्द की किस्मत का तारा है

अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था

तिरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन

तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।

(हिजाब-ए-फ़ितनापरवर - उपद्रव करनेवाला पर्दा, साज़-ए-बेदारी- जागरण का वाद्य/बाजा)

इस ग़ज़ल में मजाज़ ने कहीं भी जिस्मानी खूबसूरती को कमतर भी साबित नही किया है और हुस्न के मयार को बदल भी दिया है. उनके लिए किसी नौजवान लड़की की आंचल में खूबसूरती सराहने योग्य तो है लेकिन अगर यह आंचल परचम बन जाए तो क्या कहना. इसी तरह वे इस ग़ज़ल के पहले शेर में ही बहुत ही कायदे से महिलाओं को पर्दे में रखने का विरोध करते हैं. मजाज़ बदलते दौर में हुस्न को पर्दा या हिजाब बना लेने का आग्रह नौजवान पीढ़ी की खातूनों से करते हैं.

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औरतों को उसकी जिस्मानी खूबसूरती से परे जाकर उन्हें समझने की यह कोशिश उस दौर में वाकये काबिले तारीफ थी. यह उस मायने में भी काबिले तारीफ थी कि मजाज़ अपनी माशूका या किसी औरत की खूबसूरती को क्रांति की राह में रूकावट नहीं मानकर उस औरत को भी क्रांति या बदलाव के एक सहयोगी या सहभागी के रूप में देख रहे थे.

गंगा-जमुनी तहजीब का हिमायती शायर

मजाज़ जिस दौर में लिख रहे उस वक्त देश में हिंदू-मुस्लिम का भेद चरम था. तरक्कीपसंद शायरों ने अपनी शायरी में इस भेद का पुरजोर विरोध किया था. मजाज़ हिंदू-मुस्लिम के इस मजहबी झगड़े का विरोध करते हुए लिखते हैः

हिंदू चला गया न मुसलमां चला गया

इंसां की जुस्तुजू में इक इंसां चला गया

मजाज़ के लिए हिंदू-मुसलमान का भेद कोई मायने नहीं रखता है. मजाज़ इस वजह से बहुत ही साधारण सी घटना में भी खूबसूरती देख लेते हैं. उनके लिए मंदिर में सुबह-सुबह जाती बच्ची और उसकी मासूमियत भी शायरी का एक विषय है. मजाज़ ‘नन्ही पुजारन’ में लिखते हैः

इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन, पतली बाहें, पतली गर्दन.

भोर भये मंदिर आई है, आई नहीं है मां लाई है.

वक्त से पहले जाग उठी है, नींद भी आंखों में भरी है.

ठोडी तक लट आई हुई है, यूंही सी लहराई हुई है.

आंखों में तारों की चमक है, मुखड़े पे चांदी की झलक है.

कैसी सुंदर है क्या कहिए, नन्ही सी एक सीता कहिए.

एक छोटी बच्ची को नन्ही सीता कहना मजाज़ के गंगा-जमुनी तहजीब के लिए प्रेम का परिचायक जिसे वे इंसानी रिश्ते और जज्बातों के लिए जरूरी समझते थे.

सरमायादारों के खिलाफ खड़ा आमजन का शायर

मजाज़ और तरक्कीपसंद शायरों के लिए किसी शासक या राजा का मजहब बहुत मायने नहीं रखता था. मजाज़ के लिए सरमायदारी या शासन का सिर्फ एक मतलब था और वह यह था कि सारे शासक आम जनता का शोषण करके ही राजसुख भोगते हैं. मजाज़ ऐसे शासकों को लानत भेजते हुए लिखते हैः

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर, हैं नज़र के सामने

सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर, हैं नज़र के सामने

सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़बर, हैं नज़र के सामने

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

ले के एक चंगेज़ के, हाथों से खंज़र तोड़ दूं

ताज पर उसके दमकता, है जो पत्थर तोड़ दूं

कोई तोड़े या न तोड़े, मैं ही बढ़कर तोड़ दूं

ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

मजाज़ की शायरी में अरबी-फारसी के शब्द मिलते तो हैं लेकिन जहां उन्हें क्रांति या बदलाव या किसी वैसे विषय के बारे में लिखना होता था जो आम लोगों को आसानी से समझ में आ जाए तब वे बहुत ही आमफहम भाषा का इस्तेमाल करते हैं. नन्ही पुजारन में एक नमूना तो आपको दिखा ही साथ मजाज़ ने क्रांति के लिए कुछ ऐसे गीत भी लिखे जो आज भी मजदूरों-किसानों के धरना-प्रदर्शनों में गाए जाते हैं. उदाहरण के लिए यह गीत देखिएः

बोल ! अरी, ओ धरती बोल !

राज सिंहासन डांवाडोल !

बादल, बिजली, रैन अंधियारी, दुख की मारी परजा सारी

बूढ़े, बच्चे सब दुखिया हैं, दुखिया नर हैं, दुखिया नारी

बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिये हैं सब व्यापारी बोल !

अरी, ओ धरती बोल ! !

राज सिंहासन डांवाडोल!

कलजुग में जग के रखवाले चांदी वाले सोने वाले

देसी हों या परदेसी हों, नीले पीले गोरे काले

मक्खी भुनगे भिन-भिन करते ढूंढे हैं मकड़ी के जाले

इस गीत में आए शब्द बोल आम बोलचाल के हैं और देशज शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. उर्दू शायरी में इससे पहले ऐसा प्रयोग 18 वीं शताब्दी के कवि नजीर अकबराबादी के यहां ही मिलता है. मजाज़ का महज 44 साल की उम्र में ही इंतकाल हो गया, लेकिन उन्होंने जो शायरी लिखी है वो आज भी मौजूं है.