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रामधारी सिंह दिनकर: ‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’

दिनकर का राष्ट्रवाद न तो नस्लवाद के पर आधारित था और न ही किसी खास धर्म के विरोध में

Updated On: Sep 23, 2017 10:25 AM IST

Piyush Raj Piyush Raj
कंसल्टेंट, फ़र्स्टपोस्ट हिंदी

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रामधारी सिंह दिनकर: ‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’

रामधारी दिनकर सिंह दिनकर हिंदी के उन चुनिंदा कवियों में शामिल हैं, जिनकी कविताएं हिंदी के आम पाठकों के बीच खासी लोकप्रिय हैं. ओज, शक्ति और राष्ट्रवाद से भरी उनकी कविताएं बहुत ही सहज रूप से पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं. उदाहरण के लिए उनकी यह कविता कई बार इस्तेमाल होती है:

क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो.      xxx     xxx सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है.

1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी दिनकर की इस कविता को पढ़ा था.

दिनकर का राष्ट्रवाद

इसमें कोई शक नहीं कि दिनकर एक राष्ट्रवादी कवि थे. लेकिन जिन अर्थों में आज राष्ट्रवाद को समझा या देखा जाता है, दिनकर की कविताओं को उस कोटि में नहीं रखा जा सकता. दिनकर का राष्ट्रवाद न तो नस्लवाद के पर आधारित था और न ही किसी खास धर्म के विरोध में.

दिनकर का राष्ट्रवाद गांधी और नेहरू के राष्ट्रवाद पर आधारित था और अपने मूल रूप में साम्राज्यवाद विरोधी था. दिनकर ने गांधी और नेहरू की प्रशंसा में कविताएं लिखीं. दिनकर का राष्ट्रवाद घृणा नहीं बल्कि शोषित जनों की पीड़ा पर निर्मित था.

दिनकर का राष्ट्रवाद कोई कोरा ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ नहीं था, जहां विद्रोह, बदलाव और अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक बुराइयों के लिए कोई जगह नहीं थी. बल्कि दिनकर ने महाभारत की कथा को आधार बनाकर भारतीय परंपरा के भीतर विद्रोह की परंपरा को अपने काव्य का आधार बनाया. कुरुक्षेत्र के जरिए उन्होंने युद्ध की व्यर्थता को साबित किया, वहीं रश्मिरथी में कर्ण के चरित्र के माध्यम से वर्ण-व्यवस्था और जातिप्रथा पर प्रहार किया.

दिनकर वैसे राष्ट्रवादी कवि नहीं थे जिनके राष्ट्रवाद के लिए युद्ध होना एक अनिवार्य तत्व हो. दिनकर अपनी कविताओं में युद्ध का समर्थन भी करते हैं, लेकिन उनके लिए युद्ध किसी को नीचा दिखाने की वस्तु नहीं है बल्कि लोगों के अधिकारों की लड़ाई है. ‘समर निंद्य है’ नामक कविता में दिनकर लिखते हैं:

शांति खोलकर खड्ग क्रांति का जब वर्जन करती है, तभी जान लो, किसी समर का वह सर्जन करती है.

शांति नहीं तब तक; जब तक सुख-भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो.

ऐसी शांति राज्य करती है तन पर नहीं हृदय पर, नर के ऊंचे विश्वासों पर, श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर.

दिनकर के लिए जनता के सुख-दुख अधिक महत्वपूर्ण थे. इस वजह से उनकी कविताओं में गांधीवाद से लेकर मार्क्सवाद तक की झलक दिखाई देती है. दिनकर के विचारों में जो द्वंद्व था वह उनकी कविताओं में भी दिखता है. इस वजह से उन्हें किसी एक वाद के खांचे में फिट कर पाना मुश्किल है.

दिल्ली और दिनकर

इस द्वंद्व का एक और उदाहरण दिल्ली को लेकर लिखी गई उनकी कविताएं हैं. दिल्ली आजादी के पहले से ही सत्ता का केंद्र रही है. आजादी के बाद दिनकर सत्ता के काफी करीब रहे. वे राज्यसभा सांसद रहे और भारत सरकार के तरफ से उन्हें काफी सम्मान भी मिला. लेकिन संभवतः वे ऐसे एकमात्र कवि हैं जिसे दिल्ली यानी दिल्ली की सत्ता से काफी कुछ मिला फिर भी उन्होंने दिल्ली की निंदा करने में कोई कोताही नहीं बरती. ‘भारत का यह रेशमी नगर’ नामक कविता में दिनकर लिखते हैं:

चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर, दिल्ली, लेकिन, ले रही लहर पुरवाई में. है विकल देश सारा अभाव के तापों से, दिल्ली सुख से सोयी है नरम रजाई में.

क्या कुटिल व्यंग्य! दीनता वेदना से अधीर, आशा से जिनका नाम रात-दिन जपती है, दिल्ली के वे देवता रोज कहते जाते, `कुछ और धरो धीरज, किस्मत अब छपती है.´

किस्मतें रोज छप रहीं, मगर जलधार कहां? प्यासी हरियाली सूख रही है खेतों में, निर्धन का धन पी रहे लोभ के प्रेत छिपे, पानी विलीन होता जाता है रेतों में.

हिल रहा देश कुत्सा के जिन आघातों से, वे नाद तुम्हें ही नहीं सुनाई पड़ते हैं? निर्माणों के प्रहरियों! तुम्हें ही चोरों के काले चेहरे क्या नहीं दिखाई पड़ते हैं?

दरअसल दिनकर सत्ता के करीब रहते हुए भी ‘तटस्थ’ नहीं थे. आजादी के बाद शायद ही कोई ऐसा कवि होगा जो सत्ता के इतने करीब रहते हुए भी सत्ता की आलोचना का साहस रखता हो. दिनकर ने भले ही आजादी के बाद उस वक्त के कम्युनिस्टों और समाजवादियों की तरह ‘आजादी को झूठा’ नहीं कहा था लेकिन वे यह भी मानते थे कि अंग्रेजों से मिली आजादी अभी भी अधूरी है. दिनकर की कविता ‘समर शेष है’ उनके इसी विचार की अभिव्यक्ति है.

दिनकर अगर सत्ता के करीब होते हुए भी आम जन के प्रति अपने झुकाव को इसलिए बनाए रख पाए क्योंकि वे मानते थे:

पूज रहा है जहां चकित हो जन-जन देख अकाज सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहां स्वराज?

अटका कहां स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है? सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में xxx xxx

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध.

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