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जन्मदिन विशेष: अद्भुत था नरसिम्हा राव का गुरिल्ला लड़ाकू से मजबूत पीएम तक का सफर

आर्थिक नीतियों का साथ-साथ राव सरकार ने मौजूदा विदेश नीति की भी रखी थी नींव

Sumit Kumar Dubey

क्या कभी आपने सोचा है एक पूर्व प्रधानमंत्री की मौत हो और देश की राजधानी में उनकी पार्टी के हेडक्वार्टर में उनके शव को भी ना आने दिया जाए? देश की राजधानी दिल्ली में ऐसा भी हो चुका है. यह वाकया हुआ था 23 दिसंबर 2004 को. जब देश के प्रधानमंत्री रहे पीवी नरसिम्हा राव की पार्टी यानी कांग्रेस के हेडक्वार्टर, 24, अकबर रोड पर उनके मृत शरीर को भी आने की इजाजत नहीं दी गई.

पांच साल तक केंद्र में कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी  की सरकार को चलाने वाले प्रधानमंत्री की मौत के बाद कभी उसी की पार्टी का ऐसा व्यवहार अपने आप में बेहद अनोखी घटना है. लेकिन नरसिम्हा राव का जीवन और खासतौर से उनका प्रधानमंत्री कार्यकाल ऐसी तमाम घटनाओं से भरा रहा जो अपने आप में बेहद खास थी.


जब दिल्ली छोड़ रहे थे राव 

आज ही के दिन यानी 28 जून 1921 को तेलंगाना के जिले करीम नगर के एक छोटे से गांव वंगारा में जन्मे पामुलरापति वेंकट नरसिम्हा राव के देश प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने और उस कार्यकाल को पूरा करने की कहानी बेहद दिल्चस्प है.

आजादी की लड़ाई में तत्कालीन रियासत हैदराबाद के खिलाफ गुरिल्ला लड़ाई का हिस्सा रहे राव साहब का प्रधानमंत्री बनना भी नियति का एक खेल ही था. कई दशक लंबे अपने राजनीतिक जीवन में राव साहब केंद्रीय रक्षा मंत्री और गृह मंत्री जैसे पदों पर भी रहे. लेकिन साल 1991 आते आते उनका राजनीतिक जीवन अवसान की ओर अग्रसर था.

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देश विदेश की 13 भाषाओं के जानकार राव साहब दिल्ली छोड़कर जा रहे थे. उनकी किताबों के 45 कार्टन लेकर एक ट्रक दिल्ली से रवाना भी हो चुका था. लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था. 21 मई 1991 को श्रीपेरंबदूर में कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी की हत्या हो गई और इस हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी.

यूं बने प्रधानमंत्री

राजीव गांधी की पत्नी सोनिया उस वक्त नेतृत्व संभालने की हालात में नहीं थीं. कांग्रेस पार्टी के भीतर प्रधानमंत्री की खोज शुरू हुई. उस वक्त कांग्रेस में रहे शरद पवार ने अपनी किताब में लिखा है कि अर्जुन सिंह ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिए राव साहब का नाम सुझाया.

अर्जुन सिंह को शायद गिरते स्वास्थ्य और बढ़ती उम्र के चलते, रिमोट से चलाने के लिए, राव साहब सबसे मुफीद उम्मीदवार नजर आए होंगे और इस तरह विंध्याचल के पार यानी दक्षिण भारत से पहली बार किसी व्यक्ति ने भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली.

हालांकि अपने कार्यकाल के दौरान तपे-तपाए राजनेता नरसिम्हा राव, अर्जुन सिंह की उम्मीदों के विपरीत साबित हुए और कांग्रेस पार्टी के भीतर सोनिया गांधी के वफादारों की आंख की किरकिरी बन गए.

यूं हुआ भारत फ्री मार्केट

प्रधानमंत्री राव के वक्त देश बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था. सोवियत संघ के विघटन के बाद देश की अर्थ व्यवस्था चरमरा चुकी थी. देश दिवालिया होने की कगार पर था और वर्ल्ड बैंक से उधार लेने के लिए देश का सोना तक गिरवी रखना पड़ा था. भारत के पास मौजूद विदेशी मुद्रा भंडार से महज 15 दिन के लिए ही जरूरी वस्तुओं के आयात किया जा सकता था.

राव ने नेहरू युगीन समाजवादी अर्थव्यवस्था से किनारा करते हुए देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू करने का हिम्मत भरा फैसला किया. रुपए का अवमूल्यन किया गया, लाइसेंस राज खत्म हुआ और लालफीताशाही पर लगाम लगाई गई. मौजूदा पीएम मोदी आज दुनिया भर में जिस भारतीय बाजार की ताल ठोकते हुए नजर आते हैं उसका ताला खोलने का श्रेय राव साहब को ही जाता है.

अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर तो नरसिम्हा राव आधुनिक भारत के निर्माता हैं हीं. लेकिन विदेश और रक्षा नीति के मोर्चे पर भी आज भारत सरकार जिन नीतियो पर चल रही है उनकी नींव राव साहब ने ही रखी थी. आज भारत सबसे बड़े रणनीतिक साझेदार देशों में एक इजरायल के साथ कूटनीतिक संबंधों की शुरूआत साल 1992 में राव साहब के ही कार्यकाल में हुई थी.

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यही नहीं, सुदूर पूर्व के एशियाई देशों के साथ संबंध बनाने की आज की मोदी सरकार की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के पहले हिस्से ‘लुक ईस्ट’ की जनक भी नरसिम्हा राव सरकार थी.

ऐसे किया था पाकिस्तान को चित

विदेश नीति के मोर्चे पर तो राव साहब ने एक बार ऐसा दांव चला था कि पड़ोसी देश पाकिस्तान को जबरदस्त मुंह की खानी पड़ी थी. साल 1994 में पाकिस्तान ने इस्लामिक देशों के समूह ओआईसी  से जरिए भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार आयोग (जिसे अब मानवाधिकार काउंसिल कहते हैं) में घेरने की पुख्ता रणनीति बनाई.

कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन का यह आरोप अगर भारत पर साबित हो जाता तो संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद भारत पर तमाम पाबंदियां तो लगा ही सकती थी. साथ ही कश्मीर मसले का भी अंतरराष्ट्रीयकरण होना तय था.

राव साहब ने ऐसे नाजुक वक्त पर एक-एक चाल बेहद सावधानी से चली. जिनेवा में इस मामले की सुनवाई के लिए उन्होंने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उस वक्त के प्रतिपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को भारतीय टीम का मुखिया बना कर भेजा और इस टीम में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला को भी शामिल कराया.

इसके अलावा राव सरकार ने पर्दे के पीछे की रणनीति के तहत अपने विदेश मंत्री दिनेश सिंह को ईरान भेजा जहां चीन के विदेश मंत्री भी पहले से  मौजूद थे.

यह राव सरकार की उम्दा रणनीति का ही कमाल था कि ईरान और चीन जैसे देश भारत के समर्थन में आ गए और पाकिस्तान का हौसला ऐसा टूटा कि इसके बाद उसने कभी संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग का दरवाजा नहीं खटखटाया.

प्रधानमंत्री राव को दबाव को झेलना और दबाव में काम करना बखूबी आता था. अमेरिका और तमाम पश्चिमी देशों के दबाव के बावजूद राव सरकार ने परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने वाली संधि यानी सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने से साफ इनकार कर दिया. यही नहीं भारत के मिसाइल कार्यक्रम को राव सरकार के कार्यकाल में ही नई दिशा मिली और पृथ्वी जैसी मिसाइल के परीक्षणों की शुरूआत हुई.

सूझ-बूझ से निपटे आतंकवाद से   

आंतरिक सुरक्षा के मसले पर भी पीएम राव का नजरिया बेहद साफ था. राव साहब के कार्यकाल में ही नासूर बन चुके पंजाब के आतंकवाद का खात्मा हुआ. कश्मीर में हजरतबल दरगाह में छिपे आतंकियों के मसले को भी बेहद सावधानी के साथ सुलझाया गया.

तब आतंकियों ने हजरतबल दरगाह पर कब्जा भी कर लिया था. स्थिति बिल्कुल ऑपरेशन ब्लू स्टार वाली हो गई थी लेकिन राव ने बातचीत के जरिए इस मसले को सुलझाया और दरगाह की पवित्रता को बचाए रखा. हां बाबरी मस्जिद को गिराए जाने की घटना को एक अपवाद के तौर पर लिया जा सकता है.

विवादों का साया 

अल्पमत की सरकार को पूरे पांच साल तक चलाने वाले राव पहले प्रधानमंत्री थे. अपने पांच साल के कार्यकाल में राव ने इस देश को ऐसी दिशा दी जिस पर हम आज भी आगे बढ़ रहे हैं. अपने कार्यकाल के बाद राव कई विवादों में फंसे. झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों का ‘कैश फॉर वोट’ मामला  हो ,लखूभाई पाठक धोखाधड़ी का मामला हो या फिर सेंट किट्स जालसाजी का मामला. इन मामलों में राव को सीधा आरोपी बनाया गया. एक मामले में तो उन्हें साल 2000 में सजा भी सुनाई गई.

हालांकि दो साल बाद दिल्ली हाइकोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया. इस मामले से बरी होने के दो साल बाद राव साहब दिल का दौरा पड़ने के कारण इस दुनिया से रुखसत हो गए.

कांग्रेस पार्टी उस वक्त सत्ता में थी. और सोनिया गांधी पार्टी की सुप्रीमो थीं. राव के परिवार वाले दिल्ली में ही उनका अंतिम संस्कार करना चाहते थे, लेकिन इसकी इजाजत नहीं दी गई. बहुत लोग,उनकी मौत के बाद भी उनकी पार्टी के उनके प्रति रवैया को बहुत गैरवाजिब मानते हैं.

कांग्रेस सरकार ने तो दिल्ली में उनकी समाधि के लिए जगह नहीं दी. लेकिन उम्मीद है जब भी आधुनिक भारत के निर्माण का जिक्र किया जाएगा तब इतिहास में नरसिम्हा राव को उनके योगदान के लिए वाजिब जगह जरूर दी जाएगी.