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जन्मदिन विशेष 2018: आखिर कौन थीं इंदिरा, दुर्गा या डिक्टेटर?

भारत के इतिहास की सबसे ताकतवर महिला की सियासी शख्सियत दो अतिवादी खांचों में बंटी रही

Rakesh Kayasth

गुजरे हुए दौर की कुछ यादें कभी धुंधली नहीं पड़ती हैं. वो तारीख 31 अक्टूबर थी और साल था 1984. गुनगुनी धूप में क्रिकेट खेलकर हमारी बाल मंडली अपने घरों को लौट रही थी. रास्ते में हमें जगह-जगह लोगों की ऐसी झुंड नजर आई जो आमतौर पर सड़कों पर इस तरह इकट्ठा नहीं होती है. अपने-अपने घरों से निकले सवाल पूछते और अटकले लगाते बहुत से स्तब्ध चेहरे. थोड़ी देर बाद घर और दुकानों के बाहर काले झंडे लगाए जाने लगे. खबर अब पक्की हो चुकी थी. दुनिया की सबसे ताकतवर महिला शासक इंदिरा गांधी अपनी सुरक्षा के अभेद्य चक्रव्यूह में अपने ही अंगरक्षकों के हाथों मारी जा चुकी थीं.

31 अक्टूबर की वो रात बेहद मनहूस थी. रेडियो और टीवी पर मातमी धुन बज रही थी. वीरान सड़कों पर कुत्ते रो रहे थे. ज्यादातर घरों की तरह मेरे यहां भी उस रात खाना नहीं बना था. दादी ने आंसू पोछते हुए कहा था- इंदिरा गांधी जैसा कोई दूसरा हो नहीं सकता. सुबह आंख खुली और मैं अपने घर के आंगन में पहुंचा. आसमान में अलग-अलग जगहों से उठते धुएं के बवंडर दिखाई दिए. दिल्ली और बोकारो जैसे कई शहरों की तरह रांची में भी सिखों की दुकानें जलाई जा रही थीं, संपत्ति लूटी जा रही थी और बेगुनाहों को मौत के घाट उतारा जा रहा था. जल्द ही कर्फ्यू लग गया और सेना ने फ्लैग मार्च शुरू कर दिया. वाकई वो मंजर बहुत ज्यादा डराने वाला था.


आज उस घटना के 34 साल पूरे हो चुके हैं. अपनी दादी की बात मुझे पूरी तरह ठीक लगती है- इंदिरा गांधी जैसा कोई दूसरा नहीं हो सकता. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी का डेढ़ दशक का सफर अति नाटकीय, चमत्कृत और भयभीत कर देने वाली घटनाओं का सिलसिला था, जिसका क्लाइमेक्स उनकी हत्या पर दिखाई दिया. ये साल इंदिरा गांधी की जन्मशती का है. ऐसे में यह सवाल उभरना लाजिमी है कि आखिर एक राजनेता के रूप में उनका मूल्यांकन किस तरह किया जाए.

इंदिरा का चमकदार और स्याह सफर

इंदिरा गांधी को लेकर राजनीतिक विश्लेषकों की राय उतनी ही विभाजित है, जितना उनका पूरा राजनीतिक करियर रहा. इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन के दो हिस्से हैं. एक हिस्सा ऐसा है, जिसका लोहा उनके बड़े से बड़े आलोचक भी मानते हैं. बहुत से मामलों में इंदिरा गांधी की उपलब्धियां इतनी बड़ी लगती हैं कि देश का कोई प्रधानमंत्री उनकी बराबरी नहीं कर सकता.

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लेकिन उनके राजनीतिक जीवन का दूसरा पक्ष इससे एकदम अलग है. भारत की राजनीति की कुछ सबसे कुख्यात कारगुजारियां उनके नाम के साथ इस तरह दर्ज हैं कि उन्हे किसी भी हालत में भुलाया नहीं जा सकता. इंदिरा प्रियदर्शनी अचानक एक ऐसी निर्दयी राजनेता के रूप में बदल जाती हैं, जिसने सत्ता मोह में सारी हदें तोड़ दी और अहिंसक क्रांति से आजादी हासिल करने वाले भारत जैसे देश को तानाशाही वाले निजाम में बदल दिया. विरोधियों का बर्बर दमन और अपने ही नागरिकों से उनके मौलिक अधिकार छीनने का अपयश उनके खाते में दर्ज है.

इंदिरा गांधी के शीर्ष पर इंदिरा गांधी के पूरे सफर को देखें तो 1966 से लेकर 1974 तक उनकी शख्सियत का एक रूप नजर आता है. लेकिन 1974 से 1984 के बीच इंदिरा गांधी एक अलग ही राजनेता दिखाई देती हैं. आखिर इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन में इतना ज्यादा विरोधाभास क्यों हैं? ये एक ऐसा सवाल है, जिसका सीधा जवाब दे पाना मुश्किल है.

गूंगी गुड़िया से दुर्गा तक

समाजवादी नेता डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने इंदिरा गांधी को कभी गूंगी गुड़िया कहा था. ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ डॉक्टर लोहिया की धारणा थी. साठ के दशक में मीडिया का एक बड़ा तबका इंदिरा गांधी के बारे में यही राय रखता था. खुद इंदिरा की निजी जिंदगी बहुत से उतार-चढ़ावों से गुजर रही थी. उनके दांपत्य जीवन में उथल-पुथल थी. पति फिरोज गांधी से तलाक नहीं हुआ था, लेकिन दोनों अलग-अलग रह रहे थे. एक समय ऐसा भी आया कि इंदिरा गांधी ने राजनीति पूरी तरह छोड़ने का मन बना लिया था. लेकिन वक्त कुछ इस तरह बदला कि भारतीय राजनीति की गूंगी गुड़िया सबकी बोलती बंद करने लगी.

संजय गांधी और राजीव गांधी के साथ इंदिरा गांधी

इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि उन्होंने जीवन में जो कुछ हासिल किया, वो अपने दम पर और लड़कर किया. यह ठीक है कि पंडित नेहरू के जीवनकाल में ही इंदिरा राजनीति में पूरी तरह सक्रिय हो चुकी थी. वे कांग्रेस के अध्यक्ष की जिम्मेदारी भी संभाल चुकी थीं. इसके बावजूद नेहरू ये नहीं मानते थे कि इंदु उनकी उत्तराधिकारी बनने के लिए तैयार हैं. पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद लालबहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने. यही वो दौर था, जब इंदिरा गांधी राजनीति से अलग होने के बारे में गंभीरता से विचार कर रही थी और इस बात का जिक्र उन्होने अपनी करीबी दोस्त पुपुल जयकर से कई बार किया था.

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लेकिन परिस्थितियां अचानक बदल गईं. ताशकंद में प्रधानमंत्री शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद कांग्रेस अध्यक्ष कामराज की पहल पर इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री का ताज मिला और यहीं से शुरू हुआ भारतीय राजनीति का एक नया युग. इलाहाबाद शहर से देश को लगातार तीसरा प्रधानमंत्री मिला था. लेकिन इंदिरा गांधी की परिस्थितियां पंडित नेहरू और लालबहादुर शास्त्री के मुकाबले एकदम अलग थीं और हालात से निपटने का उनका तरीका भी अलग था.

मोरारजी देसाई की वरिष्ठता के बावजूद इंदिरा गांधी अगर प्रधानमंत्री बन पाईं तो इसमें कांग्रेस के अध्यक्ष के. कामराज का बहुत बड़ा योगदान था.

कामराज और उनके समर्थक गैर-हिंदी भाषी राज्यों के कांग्रेस मुख्यमंत्रियों के समूह जिसे `सिंडिकेट’ कहा जाता था, को लगता था कि इंदिरा गांधी को अपनी शर्तों के मुताबिक चला पाना उनके लिए आसान होगा. लेकिन भ्रम बहुत तेजी से दूर होने लगा. 1969 इंदिरा गांधी के राजनीतिक करियर का सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट साबित हुआ.

…और पार्टी से बड़ी हो गई इंदु

1969 में इंदिरा गांधी ने अपने राजनीतिक विरोधी मोरारजी देसाई को वित्त मंत्री के पद से हटा दिया और देश के 14 प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. इस कदम से इंदिरा ने अपने सबसे बड़े राजनीतिक विरोधी को ही रास्ते से नहीं हटाया बल्कि पूरे देश को यह संदेश देने में कामयाब रहीं कि वे एक समाजवादी और राष्ट्रवादी रुझान वाली राजनेता हैं. लेकिन ज्यादा अहम रहा 1969 का राष्ट्रपति चुनाव.

इंदिरा गांधी के एवं अन्य लोगों के साथ नीलम संजीव रेड्डी

सिंडिकेट के नेताओं की पहल पर नीलम संजीव रेड्डी को कांग्रेस ने राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया. इंदिरा गांधी ने इसका विरोध किया और निर्दलीय उम्मीदवार वी.वी. गिरी को अपना समर्थन दे दिया. एक बेहद कड़े मुकाबले में गिरी ने रेड्डी को हरा दिया. लेकिन कांग्रेस पार्टी टूट गई. अब इंदिरा गांधी के सारे विरोधी दूर हो चुके थे. उन्हे चुनौती देने वाला कोई नहीं था. इस तरह शुरुआती चार साल में इंदिरा गांधी ने राजनीति की फिसलन भरी जमीन पर अपनी पकड़ मजबूत की. इसके बाद शुरू हुआ उनके राजनीतिक जीवन का सबसे जादुई सफर. 1971 से लेकर 1974 तक के तीन साल में इंदिरा गांधी ने इतनी बड़ी लकीरें खींच दीं कि बहुत से मायनों में उनका नाम भारत के इतिहास की सबसे कामयाब प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज हो गया.

चुनावी कामयाबी और युद्ध में जीत

1971 इंदिरा गांधी के लिए दो बहुत बड़ी जीत लेकर आया. `गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ उन्होने प्रचंड बहुमत से लोकसभा चुनाव में कामयाबी हासिल की. इसके कुछ महीने बाद इंदिरा गांधी ने वो कारनामा कर दिखाया जिसकी वजह से विरोधी भी उन्हें `दुर्गा’ कहने को मजबूर हुए. 1971 की लड़ाई में भारत ने पाकिस्तान को बुरी तरह शिकस्त दी और बांग्लादेश का निर्माण हुआ.

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युद्ध के बाद इंदिरा गांधी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच ऐतिहासिक शिमला समझौता हुआ. कश्मीर के मामले में जो गलती उनके पिता पंडित नेहरू ने की थी, उसे इंदिरा ने काफी हद तक सुधारा. पाकिस्तान हमेशा से संयुक्त राष्ट्र में किए गए नेहरू सरकार के वादे के मुताबिक कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग करता आया था. लेकिन शिमला समझौते ने यह साफ कर दिया कि दोनों देशो के बीच के तमाम विवाद केवल आपसी बातचीत से ही सुलझाए जाएंगे.

यह दौर इंदिरा गांधी के खाते में कई और बड़ी कामयाबियां आईं. देशी रियासतों को दिए जाने वाले पेंशन यानी प्रिवी पर्स का उन्होंने खात्मा कर दिया. सिक्किम का भारत में विलय हुआ. 1974 के पोखरण परमाणु परीक्षण के साथ भारत एक एटमी ताकत बन गया. शीत-युद्ध के दौर में इंदिरा गांधी तीसरी दुनिया की सबसे ताकतवर राजनेता के तौर पर उभरीं जिन्हें अमेरिका भी गंभीरता से लेने पर मजबूर हुआ.

इंदिरा गांधी अब खुद को समाजवादी रुझान वाले एक ऐसे राष्ट्रवादी नेता के रूप में स्थापित कर चुकी थीं, जिसके आगे तमाम राजनीतिक शख्सियतें बहुत छोटी थीं. अपने असीमित अधिकारों के साथ वे निरंकुश तरीके से फैसले ले सकती थीं. इंदिरा लगातार वही कर रही थी. सबकुछ उनके मुताबिक चल रहा था.लेकिन उसके बाद जो कुछ हुआ उसने इंदिरा गांधी के सफरनामे में कई स्याह पन्ने जोड़ दिए.

परिवारवादी राजनेता और निरंकुश तानाशाह

1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक फैसला आया जिसने देश में भूचाल ला दिया. इस फैसले ने चार साल पहले हुए चुनाव में रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से इंदिरा गांधी के निर्वाचन को अवैध घोषित कर दिया. उन पर इस्तीफा देने का दबाव बढ़ने लगा. इसी दौर में बिहार और गुजरात जैसे राज्यों में छात्रों का आंदोलन जोर पकड़ रहा था. समजावादी नेता जयप्रकाश नारायण सरकार विरोधी आंदोलनों को अपना समर्थन दे रहे थे और विपक्ष भी उनके खिलाफ एकजुट हो चुका था.

तस्वीर: रघु राय

हालात बिगड़ते देखकर इंदिरा ने वो कदम उठाया जिसके लिए इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा. सत्ता बचाने के लिए 25 जून, 1975 को देश में इमरजेंसी लगा दी गई. सभी तरह के नागरिक अधिकार स्थगित कर दिए गए और विरोधियों को जेल में डालने का सिलसिला शुरू हो गया. दमन, उत्पीड़न और सरकारी तंत्र के दुरुपयोग का शर्मनाक खेल डेढ़ साल से ज्यादा वक्त तक चला. इंदिरा गांधी को लेकर देश में गुस्सा बढ़ता चला गया. आखिर मजबूर होकर उन्हें 1977 में इमरजेंसी हटानी पड़ी और आम चुनाव में देश की सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री को वोटरों ने सत्ता से बाहर निकाल फेंका.

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हालांकि, जनता पार्टी के प्रयोग के नाकाम होने के बाद 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गई. लेकिन सच ये है कि 1975 के बाद के घटनाक्रम ने राजनीतिक विश्लेषकों को इंदिरा गांधी को एक अलग नजरिए से देखने को मजबूर कर दिया. निर्णय लेने में सक्षम और बेहद ताकतवर राजनेता की छवि से उलट इंदिरा गांधी की शख्सियत का दूसरा पहलू यह है कि उन्होंने देश में व्यक्तिवादी राजनीति का सूत्रपात किया. नेहरू ने हमेशा अपने विरोधियों को सम्मान दिया. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और बी.आर. अंबेडकर जैसे वैचारिक विरोधियों को भी उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में जगह दी. दूसरी तरफ इंदिरा गांधी ने चुन-चुनकर विरोधियों का सफाया किया.

नेहरु काल में जो संस्थान मजबूत हुए थे, इंदिरा युग में उन्हें व्यवस्थित तरीके से कमजोर किया गया, चाहे वह न्यायपालिका हो या चुनाव आयोग. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस देश में वंशवाद को संस्थागत रूप देने का `श्रेय’ भी इंदिरा गांधी को ही जाता है. पहले उन्होंने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को समानांतर सत्ता चलाने की छूट दी. फिर संजय के आकस्मिक निधन के बाद बड़े बेटे राजीव गांधी को उनके अनमनेपन के बावजूद ना सिर्फ राजनीति में ले आईं बल्कि उन्हें अपना उत्तराधिकारी भी बना दिया.

अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में छिपे आतंकवादियों के खात्मे के लिए सेना भेजने के इंदिरा गांधी के फैसले को एक साहसिक के रूप में देखा जाता है. लेकिन विश्लेषकों का एक बड़ा तबका ये भी मानता है कि पंजाब समस्या के सिर उठाने की एक बड़ी वजह इंदिरा सरकार की नीतियां भी थीं. आखिर ऑपरेशन ब्लू स्टार ही इंदिरा की हत्या कारण बना.

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इंदिरा गांधी दुर्गा थी या डिक्टेटर, इस सवाल पर बहस हमेशा जारी रहेगी. बड़े शख्सियतों का राजनीतिक जीवन हमेशा अंतर्विरोधों से भरा होता है. हमें इन अंतर्विरोधों को स्वीकार करना चाहिए. एक लोकतांत्रिक समाज के लिए यह जरूरी है कि वो अपने नेताओं का निष्पक्ष और तथ्यात्मक आकलन करे. केवल देवी या सिर्फ खलनायिका के रूप में इंदिरा गांधी को देखना उनके पूरे कालखंड के साथ अन्याय होगा.

(यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है)