view all

मोहन राकेश: आधुनिक स्त्री-पुरुष का द्वंद्व दिखाने वाले साहित्यकार

मोहन राकेश नि:संदेह हिंदी कहानी के श्रेष्ठ कहानीकार हैं लेकिन हिंदी साहित्य में वे अपने नाटकों की वजह से युग-प्रर्वतक के रूप में जाने जाते हैं

Piyush Raj

आजादी के बाद मध्यवर्गीय और शहरी जीवन के अंतर्द्वंद्वों को केंद्र में रखकर कहानियां लिखे जाने की परंपरा की शुरुआत हुई. इसे हिंदी साहित्य के इतिहास में ‘नई कहानी’ आंदोलन के नाम से जाना जाता है. मोहन राकेश नई कहानी दौर के प्रमुख कहानीकार माने जाते हैं. नई कहानी आंदोलन को समृद्ध करने में मोहन राकेश की कहानियों का विशेष योगदान माना जाता है.

मोहन राकेश ने आधुनिक शहरी जीवन की वजह से पैदा हो रहे पीड़ा, संत्रास और अकेलेपन को अपनी कहानियों का मुख्य विषय बनाया है. मिस पाल, 'आद्रा', 'ग्लासटैंक', 'जानवर' , परमात्मा का कुत्ता जैसी कहानियों में उन्होंने बदलते शहरी परिवेश में आम आदमी और औरत के सामने आ रही मुश्किलों को बहुत ही खूबसूरती से पिरोया है.


'परमात्मा का कुत्ता' नामक कहानी में उन्होंने स्वतंत्रता के बाद के नौकरशाही की कार्यशैली की असंवेदनशीलता को उकेरा है. यह कहानी आजादी के बाद भारत की नौकरशाही की कार्यशैली को बड़ी बारीकी से दिखाती है और इसकी वजह से आम आदमी को होने वाली परेशानियों को भी.

मोहन राकेश का जन्म 8 जनवरी, 1925 को पंजाब के अमृतसर में हुआ था. मोहन राकेश ने भारत विभाजन की विभिषिका को व्यक्तिगत रूप से तो नहीं झेला था लेकिन पंजाब और दिल्ली में रहने की वजह से इसे काफी करीब से देखा जरूर था. एक असली रचनाकार अपने परिवेश से भलीभांति परिचित होता है और उसे अपनी रचना में जरूर उतारता है. मोहन राकेश ने भले ही विभाजन के ऊपर बहुत नहीं लिखा है लेकिन उनकी कहानी ‘मलबे का मालिक’ विभाजन पर लिखी गई श्रेष्ठ कहानियों में जरूर शामिल की जाती है. मलबे का मालिक कहानी विभाजन के बाद अपने जड़ों से बेवजह कटने के दर्द को बयां करती है.

यह भी पढ़ेंः रामधारी सिंह दिनकर: ‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’

मोहन राकेश नि:संदेह हिंदी कहानी के श्रेष्ठ कहानीकार हैं लेकिन हिंदी साहित्य में वे अपने नाटकों की वजह से युग-प्रर्वतक के रूप में जाने जाते हैं. मोहन राकेश ने आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे, अंडे के छिलके और सिपाही की मां नामक सिर्फ 5 नाटक ही लिखे लेकिन इन सभी नाटकों ने हिंदी रंगमंच को नई दिशा देने का काम किया.

हिंदी नाटकों को बनाया रंगमंचनीय

रंगमंचनीयता के लिहाज से हिंदी में साहित्यिक नाटक लिखने की शुरुआत भारतेंदु के समय में हुई थी लेकिन जयशंकर प्रसाद के समय में जो नाटक लिखे गए उन्हें रंगमंच पर उतारना एक कठिन कार्य था. खासकर जयशंकर प्रसाद के नाटकों को खेलना कई कारणों से असंभव था. इस वजह से हिंदी रंगमंच से साहित्य की कोटि में आने वाले नाटक गायब हो गए थे. हिंदी रंगमंच और साहित्यिक नाटकों के बीच प्रसाद युग में पैदा हुई इस खाई को भरने का काम मोहन राकेश ने अपने नाटकों के जरिए किया. आधुनिक भावबोध से भरे मोहन राकेश के नाटक सिर्फ साहित्यिक कोटि की दृष्टि से नहीं बल्कि रंगमंचनीयता के दृष्टिकोण से भी काफी उत्कृष्ट हैं.

यह भी पढ़ें: ‘दरबार’ में रहकर ‘दरबार’ की पोल खोलने वाला दरबारी

कालिदास के जीवन को केंद्र बनाकर लिखा गया नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ मोहन राकेश का पहला नाटक था. यह नाटक सन् 1958 में प्रकाशित हुआ.

सन् 1959 में इसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ नाटक होने के लिए 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था. कई प्रसिद्ध निर्देशक इस नाटक को मंच पर ला चुके हैं. 1979 में निर्देशक मणि कौल ने इस पर एक फिल्म भी बनाई, जिसे उस साल सर्वश्रेष्ठ फिल्म का 'फिल्म फेयर पुरस्कार' भी मिला.

प्राचीन कथा में आधुनिक द्वंद्व

इस नाटक का शीर्षक कालिदास की कृति 'मेघदूतम्' की शुरुआती पंक्तियों 'आषाढ़स्यः प्रथम दिवसे' से प्रेरित है. आषाढ़ का महीना उत्तर भारत में वर्षा ऋतु का शुरुआती महीना होता है, इस नाटक का सीधा अर्थ 'वर्षा ऋतु का एक दिन' है.

‘आषाढ़ का एक दिन’ में आधार भले ही पुरानी कथा को बनाया गया है लेकिन यह कथा एक आधुनिक व्यक्ति के जीवन के द्वंद्वों के ऊपर है. इस नाटक के पात्रों का द्वंद्व आधुनिक जीवन के द्वंद्व हैं. बदलते हुए आधुनिक परिवेश में स्त्री-पुरुष के प्रेम संबंधों के द्वंद्वों के साथ-साथ इस नाटक में एक कलाकार के द्वंद्व और शहरी जीवन के द्वंद्व को भी दिखाया गया है.

‘लहरों के राजहंस’ में आधुनिकता और परंपरा के बीच फंसे एक व्यक्ति के द्वंद्व को दिखाया गया है तो ‘आधे-अधूरे’ में स्त्री-पुरुष के संबंधों में आने वाले द्वंद्वों को दिखाया गया. मोहन राकेश के नाटकों में नाटकीयता उसके भीतर के तनाव से पैदा होता है जो दर्शकों और पाठकों को अंत तक बांधे रखती हैं. मोहन राकेश के नाटकों की इन्हीं खूबियों की वजह से आधुनिक हिंदी नाटकों और रंगमंच को एक नई दिशा मिली.