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नरसिम्हा राव: आप जिस नए भारत को जानते हैं न...वो उसके निर्माता हैं

देश के पूर्व प्रधानमंत्री और आर्थिक सुधारों के जनक पीवी नरसिम्हा राव को उनके जन्मदिवस पर भावभीनी श्रद्धांजलि

Abhishek Tiwari

देश के आर्थिक हालात बेहद बुरे थे. राजनीतिक अस्थिरता अपने चरम पर थी. राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी. देश की सबसे पुरानी पार्टी यानी कांग्रेस के सामने नेतृत्व का संकट था. 1991 का चुनाव समाप्त हुआ. राजीव गांधी की हत्या के बाद भी कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ, हालांकि पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में जीत कर उभरी थी और सरकार बनाने की दावेदार थी. लेकिन पार्टी के भीतर प्रधानमंत्री पद के लिए कई उम्मीदवार दावेदार थे. इनमें प्रमुख नाम था तब के महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शरद पवार, मध्य प्रदेश से कद्दावर कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह और ऐसा कहा जाता है कि प्रणब मुखर्जी भी दावेदारी में शामिल थे.

राजीव गांधी और इंदिरा गांधी की सरकार में कई बड़े मंत्रालयों का जिम्मा संभाल चुके और तब कांग्रेस कमेटी के सबसे वरिष्ठ सदस्य रहे पीवी नरसिम्हा राव को पार्टी संसदीय दल का नेता चुना गया. चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी कांग्रेस को तब के राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन ने सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया. 21 जून 1991 को देश के प्रधानमंत्री के रूप में नरसिम्हा राव ने शपथ ली थी. यह वो दौर था जब राव सार्वजनिक जीवन से संन्यास लेकर हैदराबाद लौटने का मन बना चुके थे. सबसे खास बात यह कि जब वो प्रधानमंत्री बने तब वह सांसद भी नहीं थे.


28 जून को 1921 में पैदा हुए पूर्व प्रधानमंत्री राव का आज यानी गुरुवार को जन्मदिन है. इस मौके पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्यों के साथ-साथ हम उन्हें भी याद कर रहे हैं.

पीवी नरसिम्हा राव का नाम आते ही हमारे दिमाग में जो सबसे पहले बात आती है वह यह है कि उनके प्रधानमंत्री काल के पहले वर्ष में यानी 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था की सूरत बदल गई. देश समाजवादी अर्थव्यवस्था से एलपीजी (Liberlization, Privatization And Globalization) की तरफ बढ़ गया. बाहरी दुनिया के लिए बंद पड़ी भारत की अर्थव्यवस्था को खोल दिया गया था.

भारतीय राजनीति, अर्थव्यवस्था और देश के नए इतिहास में 1947 के बाद सबसे महत्वपूर्ण साल 1991 रहा. देश की अर्थव्यवस्था को लेकर कई अहम सुधार (रिफॉर्म) हुए. रिफॉर्म का नाम आते ही हमारे दिमाग में उस समय के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह का नाम याद आता है. मनमोहन सिंह ने ही 24 जुलाई 1991 का वो ऐतिहासिक बजट भाषण पढ़ा था जिसने देश की दशा और दिशा बदल दी.

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हालांकि बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि जिस दिन डॉ. मनमोहन सिंह भारत की अर्थव्यवस्था को बदलने वाला भाषण पढ़ रहे थे उसके ठीक कुछ घंटे पहले ही एक और बड़ा बदलाव हो चुका था. यह बदलाव मनमोहन सिंह के बजट भाषण से ज्यादा कारगर साबित हुआ. लेकिन इसे बहुत कम लोग याद रखते हैं.

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के जमाने से चला आ रहा लाइसेंस-परमिट राज भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक ऐसा कानून था जो इसके लिए कभी लाभप्रद नहीं रहा. बाद में पंडित नेहरू की बेटी और देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस कानून को और जटिल बना दिया. हाल ऐसा हो गया कि उद्योग भवन के रहमो करम के बगैर नई आर्थिक गतिविधियों को अंजाम देना नामुमकिन हो चुका था.

लाइसेंस-परमिट राज के खिलाफ 70 के दशक में ही कई सम्मानित अर्थशास्त्रियों और बौद्धिक जनों ने लिखना शुरू कर दिया. लेकिन इंदिरा गांधी ने इसपर ध्यान नहीं दिया. उनके बाद देश की सत्ता को संभालने वालों ने भी इसे खत्म करने की हिमाकत नहीं की. राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए भी इसे खत्म करने की बात चली थी लेकिन उन्होंने इसे छूने तक की कोशिश नहीं की. वो तो भला था कि पीवी नरसिम्हा राव ने प्रधानमंत्री रहते हुए कॉमर्स एंड इंडस्ट्री मिनिस्ट्री को अपने पास रखा और 1991 में लाइसेंस-परमिट राज को खत्म कर दिया.

राजनीतिक विश्लेषक और वर्तमान में FICCI के सेक्रेटरी जनरल संजय बारू अपनी किताब '1991- हाउ पीवी नरसिम्हा राव मेड हिस्ट्री' में लिखते हैं कि कॉमर्स एंड इंडस्ट्री मिनिस्ट्री राव के पास थी. उन्हें विपक्ष के विरोध से बचने का तरीका निकाला. पीजे कुरियन को इस मिनिस्ट्री का जूनियर मंत्री बनाया गया. जब मनमोहन सिंह बजट भाषण पढ़ने वाले थे उसके कुछ घंटे पहले ही कुरियन ने लाइसेंस-परमिट राज को खत्म करने का ऐलान कर दिया.

सारी मीडिया और विपक्ष की नजर बजट पर रह गई. पीवी नरसिम्हा राव ने लाइसेंस-परमिट राज को खत्म कर बड़ा दांव चल दिया. राव अपने आकलन में भी सही थे. विपक्ष और मीडिया बजट भाषण की विवेचना करते रही. लगभग एक पखवाड़ा बाद लोगों की और मीडिया की नजर इस पर गई. तब तक सारा काम हो चुका था और नरसिम्हा राव ने बाजी मार ली थी.

नरसिम्हा राव नेहरू-गांधी परिवार के अलावा पहले नेता थे जिन्होंने सरकार पूरे पांच साल चलाई और देश के पहले दक्षिण भारतीय प्रधानमंत्री भी. हालांकि ऐसा नहीं है कि यह सब बड़ा आसान रहा. नरसिम्हा राव जब देश में आर्थिक सुधार के लिए मनमोहन सिंह की हौसला अफजाई कर रहे थे तब वह विपक्ष के निशाने पर भी थे. विपक्षी नेता मनमोहन सिंह के बहाने राव पर हमला करते थे और सिंह इसे समझ नहीं पाते थे और बार बार इस्तीफा देने के लिए पीएम राव के पास पहुंच जाते थे.

मनमोहन सिंह ने तीन बार इस्तीफे की पेशकश की लेकिन हर बार राव ने उन्हें समझा कर मना लिया और कहा कि आप काम करिए जो राजनीतिक हमला झेलना है उसके लिए मुझे छोड़ दीजिए. राजनीति के क्षेत्र से नहीं आए मनमोहन सिंह पर राव का विश्वास दिखाना अपने आप में बताता है कि वह मात्र एक रबर स्टैंप प्रधानमंत्री नहीं थे. राव ने वह कर दिखाया जिसे करने की हिम्मत राजीव और इंदिरा ने नहीं दिखाई थी. हालांकि उस समय भी हालात विकराल ही थे.

नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह जब भारत की अर्थव्यवस्था के स्वर्ण अध्याय को लिखिने की शुरुआत की तब यह बहुत मुश्किल भरा क्षण था. राजनीतिक विरोध अपने चरम पर था. भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां कह रही थीं कि इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड (आईएमएफ) के इशारे पर सारे बदलाव किए जा रहे हैं और देश नेहरूवियन मॉडल से कैपिटलिस्ट बनने की ओर अग्रसर है.

संजय बारू अपनी किताब '1991- हाउ पीवी नरसिम्हा राव मेड हिस्ट्री' में लिखते हैं कि एक अक्टूबर 1991 में पीएम राव ने आईएमएफ के मैनेजिंग डायरेक्टर Micheal Camdessus को बुलाया. राव के पास आईएमएफ के मैनेजिंग डायरेक्टर के लिए सिर्फ एक मैसेज था. राव ने कहा कि मैं वो सब कुछ करने के लिए तैयार हूं जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा है, जबतक कि कोई कामगार यह आकर न कहे कि उसने मेरी वजह से अपनी नौकरी गंवा दी है.

संजय बारू अपनी किताब में एक और किस्से का जिक्र करते हैं. 1992 में लेफ्ट फ्रंट ने नरसिम्हा राव सरकार के इकोनॉमी पॉलिसी के खिलाफ दिल्ली के बोट क्लब लॉन से लेकर विजय चौक तक का एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया था. उसी समय आईएमएफ में भारत के प्रतिनिधि क्यूबा मूल के अमेरिकन अरमांडो लिंडे भारत आए हुए थे. लिंडे ने संजय बारू से इच्छा जताई कि वो इस प्रदर्शन को देखना चाहते थे. बारू अपने साथ लिंडे को लेकर प्रदर्शन स्थल पर पहुंचे. वहां पर कम्युनिस्ट पार्टी के लोग हाथ में 'डाउन विद आईएमएफ' और 'आईएमएफ गो बैक' और इस तरह के तमाम नारों के साथ कार्ड लिए हुए राव की नीतियों की खिलाफत कर रहे थे.

बारू बताते हैं कि इसे देखकर लिंडे ने कहा कि आपकी सरकार हमारी बात को ढंग से सुन भी नहीं रही है और वही कर रही है जो उसे करना है. लेकिन यहां लोग आईएमएफ के खिलाफ नारे लगा रहे हैं. लिंडे ने कहा कि ये लोग क्यों सिर्फ आईएमएफ की खिलाफत कर रहे हैं. कम से कम ये अपने कार्ड पर वर्ल्ड बैंक का नाम तो लिख लेते.

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तमाम आरोप प्रत्यारोप लगते रहे लेकिन नरसिम्हा राव ने देश की दशा और दिशा बदलने की ठान ली थी, जिसे वो करते रहे. कई भारतीय भाषाओं के जानकार होन के साथ-साथ अरबी, पार्सियन, स्पेनिश, फ्रेंच, जर्मन और इंग्लिश के ज्ञाता राव के बारे में पूर्व राष्ट्रपति कलाम ने कहा था कि उन्होंने परमाणु परीक्षण करने के लिए 1996 में ही कहा था लेकिन उनकी पार्टी सत्ता में नहीं आ पाई इसलिए इस काम को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 1998 में किया गया. वाजपेयी राव को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे. उन्होंने इस बात को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी किया था.

देश में आर्थिक सुधार करने वाले वाले नरसिम्हा राव पर तमाम आरोप लगे. कहा गया कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय उन्होंने आंख कान बंद कर लिया था. आर्थिक सुधारों पर कहा गया कि उन्होंने बाहरी दबाव (विदेशी ताकतों) के चलते देश में आर्थिक सुधार किए. लेकिन सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह रही कि 1996 में सत्ता से बेदखल हुए राव की एक भी नीतियों को किसी सरकार ने बदलने की हिम्मत नहीं दिखाई चाहे वह यूनाइटेड फ्रंट की सरकार रही हो, वाजपेयी की नेतृत्व वाली एनडीए सरकार हो या मनमोहन सिंह की 10 साल की सरकार.

अंततः देश में आर्थिक हालात बदतर होने अचानक शुरू नहीं हुए थे लेकिन किसी प्रधानमंत्री के पास इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो इसे सुधारने की दिशा में प्रयास करे. राव ने अपने वित्त मंत्री को ताकत के साथ छूट दी कि देश को सही राह पर लाने के लिए जो कदम उठाने हो, उठाइए. बाकी उसका राजनीतिक नुकसान भुगतने के लिए मैं तैयार हूं. अफसोस इस बात का है कि जिस सम्मान के हकदार पीवी नरसिम्हा राव थे उन्हें वह आजतक नहीं मिला.

देश के पूर्व प्रधानमंत्री और आर्थिक सुधारों के जनक पीवी नरसिम्हा राव को उनके जन्मदिवस पर भावभीनी श्रद्धांजलि.