प्रख्यात गायक पंडित ओंकार नाथ ठाकुर के जन्मदिन पर खास
15 अगस्त, 1947 यानी देश की आजादी का दिन. खुली हवा में सांस लेने का दिन. खुशनसीब हैं वो लोग जिन्होंने उस रोज आसमान में फहराता तिरंगा देखा होगा. उस दिन स्वतंत्रता सेनानियों के लंबे संघर्ष की कामयाबी का जश्न मनाने का दिन था. बरसों की गुलामी के बाद देश एक नया सूरज देख रहा था. कहने को कुछ नहीं बदला था लेकिन आजादी मिलते ही सबकुछ बदल गया था.
देशवासियों का नजरिया बदल गया था. उस दिन का जश्न मनाने के लिए खास तैयारियां की गई थीं. उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को खासतौर पर आमंत्रित किया गया था. शास्त्रीय गायक पंडित ओंकार नाथ ठाकुर का गाया 'वंदे मातरम' पूरे देश में प्रसारित किया गया. सुबह करीब साढ़े 6 बजे मुंबई के ऑल इंडिया रेडियो पर पंडित ओंकार नाथ ठाकुर ने 'वंदे मातरम' रिकॉर्ड किया था. पंडित जी को 'वंदे मातरम' की रिकॉर्डिंग का न्यौता सरदार वल्लभभाई पटेल ने भेजा था.
अपनी शर्तों पर 'वंदे मारतम' को सुर देना स्वीकार किया
पंडित ओंकार नाथ ठाकुर की शर्त थी कि वो इस रचना को तभी सुर देंगे जब पूरी रचना गाने दी जाएगी. दरअसल, इससे पहले कांग्रेस के अधिवेशनों में पंडित ओंकार नाथ ठाकुर से कहा गया था कि वो इस रचना की कुछ शुरुआती पंक्तियां गा दें. जिसे ओंकार नाथ ठाकुर ने मना कर दिया था. यही वजह है कि 15 अगस्त, 1947 को जब उन्हें पूरे देश के लिए इस रचना को गाने के लिए न्यौता दिया गया तो उन्होंने न्यौते को इसी शर्त के साथ स्वीकार किया कि वो पूरी रचना गाएंगे.
प्रसंगवश यह भी बता दें कि उसी दिन एक और प्रख्यात गायिका हीराबाई बारोडकर ने भी 'वंदे मातरम' गाया था. दिल्ली के ऑल इंडिया रेडियो में की गई वो रिकॉर्डिंग शास्त्रीय राग तिलक कामोद में रिकॉर्ड की गई थी. अफसोस वो रिकॉर्डिंग अब मौजूद नहीं है. खैर, पंडित ओंकार नाथ ठाकुर को आज हम इसलिए याद कर रहे हैं क्योंकि आज उनका जन्मदिन है.
पंडित ओंकार नाथ ठाकुर का जन्म 24 जून, 1897 को गुजरात के बड़ौदा (वडोदरा) में हुआ था. परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. दादा जी और पिता मिलिट्री में नौकरी किया करते थे. दादा जी ने नवाब साहब पेशवा के लिए और पिता ने बड़ौदा की महारानी की सेना में काम किया था. परिवार की आर्थिक स्थिति तब और बिगड़ गई जब ओंकार नाथ ठाकुर के पिता गौरीशंकर ठाकुर काम-धाम छोड़ एक संन्यासी की शरण में चले गए. उस संन्यासी की शरण में जाने के बाद वो ‘ओंकार’ का ही जाप करते थे. कुछ समय बाद ही उन्होंने परिवार को छोड़ दिया और दूर जाकर एक कुटिया में रहने लगे.
ऐसी स्थिति में मां के लिए बच्चों को पालने का संघर्ष था. मां ने उस संघर्ष को स्वीकारा. उन्होंने दूसरों के घरों का काम करना शुरू कर दिया. बचपन में पेट भरने का संघर्ष था तो पढ़ाई-लिखाई का तो सवाल ही नहीं है. पंडित जी को बहुत ही शुरुआती दौर की शिक्षा के बाद पढाई-लिखाई को छोड़ना पड़ा. मां का हाथ बंटाने की कोशिशों में वो जुट गए. आफत तब और बढ़ी जब पिता का अचानक निधन हो गया. इसके बाद ओंकार नाथ ठाकुर ने परिवार चलाने के लिए रसोइए से लेकर मिलों तक में काम किया. कुछ समय बाद वो एक रामलीला कंपनी से भी जुड़ गए.
ग्वालियर घराने के विश्वविख्यात पंडित विष्णु दिगंबर पलुष्कर से शास्त्रीय संगीत की तालीम ली
गले में सरस्वती का वास तो था ही लिहाजा गायकी में मन बहुत लगता था. संगीत सीखने की ललक भी थी. इस ललक में वो यहां-वहां भागते रहे. पर स्थितियां विपरीत थी. आखिरकार एक दिन एक पैसे वाले सेठ डुंगाजी ने ओंकार नाथ ठाकुर का गायन सुन लिया. सेठ जी को संगीत का शौक था. उन्होंने तुरंत ही फैसला किया कि ओंकार नाथ ठाकुर ग्वालियर घराने के विश्वविख्यात कलाकार पंडित विष्णु दिगंबर पलुष्कर से शास्त्रीय संगीत की तालीम लेंगे. जल्दी ही पलुष्कर जी ओंकार नाथ ठाकुर की प्रतिभा से कायल हो गए. उन्होंने ओंकार नाथ ठाकुर को अपने कार्यक्रमों में साथ बिठाना शुरू किया.
गुरू के इस विश्वास का ओंकार नाथ ठाकुर पर बड़ा प्रभाव पड़ा. 21-22 साल उम्र रही होगी जब उन्हें अपना पहला कार्यक्रम करने का मौका मिला. पंडित विष्णु दिगंबर पलुष्कर जब तक जीवित रहे पंडित ओंकार नाथ ठाकुर उनसे सीखते रहे. यही वजह है कि पंडित ओंकार नाथ ठाकुर को संगीत में तो महारत हासिल हुई ही वो संगीत से जुड़े शोधकार्यों में भी बड़ी दिलचस्पी लेने लगे. उन्होंने यजुर्वेद के श्लोक को कंपोज किया. उन्होंने जयशंकर प्रसाद और दिनकर जैसे कवियों की रचनाओं को ‘म्यूजिकल ड्रामा’ में तब्दील किया.
पंडित विष्णु दिगंबर पलुष्कर अपने इस शिष्य से इतना प्रभावित थे कि उन्होंने ओंकार नाथ ठाकुर को लाहौर के गंधर्व महाविद्यालय का प्रिंसिपल बना दिया. जहां उन्होंने 4 साल तक शिक्षण कार्य किया. कहते हैं कि रियाज के समय पंडित ओंकार नाथ ठाकुर को राग रागिनियों के दर्शन हो जाते थे. यह उनकी सिद्धता को साबित करता है. बाद में जब वो मुंबई आ गए थे तो वहां उनके एक शिष्य थे बलवंत राय. जिनके साथ पंडित जी का किस्सा बड़ा चर्चित है. दरअसल बलवंत राय की आंखों में रोशनी नहीं थी. पहले तो पंडित ओंकार नाथ ठाकुर ने उन्हें सिखाने में असमर्थता जाहिर की लेकिन बाद में वो तैयार हो गए. बाद में पंडित ओंकार नाथ ठाकुर बलवंत राय को बेटे की तरह मानते थे.
1954 में पंडित ओंकार नाथ ठाकुर को पद्मश्री से सम्मानित किया गया था
पंडित जी अगर कहीं व्यस्त हैं तो उनकी कक्षाएं बलवंत राय की देखरेख में होती थीं. पंडित जी को उनसे इतना स्नेह था कि वो कहा करते थे कि जब बलवंत राय गाएगा तो मेरे गाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. पंडित जी को भी अपने शिष्यों से बहुत आदर और सम्मान मिला. 1954 में पद्म पुरस्कारों की शुरुआत की गई थी. पहले ही साल में पंडित ओंकार नाथ ठाकुर को उनके शास्त्रीय गायन के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया.
यह पुरस्कार उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति पंडित राजेंद्र प्रसाद ने दिया था. खैर, ओंकार नाथ ठाकुर को 1954 में दिल का दौरा पड़ा. ऊपर वाले के आशीर्वाद से वो बच गए. लेकिन 1965 में उन्हें ‘स्ट्रोक’ हुआ. जिसकी वजह से उनके शरीर का एक हिस्सा ‘लकवाग्रस्त’ हो गया था. कुछ समय बाद ही 1967 में उनका निधन हो गया. हाल ही में भारत सरकार ने उनकी याद में पोस्टल स्टैंप जारी किया था. इसके अलावा बनारस के भारत कला भवन में अब भी पंडित ओंकार नाथ ठाकुर से जुड़ी तमाम यादें संरक्षित हैं. इसमें उनकी वो चांदी की वीणा भी शामिल है जो उनकी 50वीं वर्षगांठ पर उन्हें दोस्तों ने भेंट की थी.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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