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आंबेडकर पुण्यतिथि: जो नहीं दी जाती वह भी तालीम होती है....

आंबेडकर संस्कृत पढ़ना चाहते थे लेकिन उस समय के समाज में ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं था

Nazim Naqvi

नहीं, एलेनर जीलियट ऐसा नहीं कर पायी. हालांकि, वह 30 साल की थीं जब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इस दुनिया से विदा ली. वह मिल सकती थी उस शख्सियत से जिसे जानने में उसने अपना जीवन गुजारा.

अच्छा होता अगर वह ऐसा कर पाती. क्योंकि आंबेडकर और भारतीय-दलित-आंदोलन से पश्चिम को परिचित कराने का सेहरा उनके ही सिर बंधता है. उन्हें भारत आने का मौका आंबेडकर की मृत्यु के सात साल बाद 1963 में मिला जब वह ‘आंबेडकर और उनके आंदोलन’ पर अपना शोध-कार्य कर रही थीं.


जो जीवित नहीं हैं उनको याद करना या उनपर कुछ लिखना, यह प्रेरणा हमें अपने ही समाज से मिलती है. समाज ने ऐसे अवसरों के लिए एक नाम भी गढ़ा है ‘श्रद्धांजलि’.

ऐसे मौकों पर अक्सर भाषण होते हैं जिनमें रटे-रटाये शब्दों में यह कहकर इतिश्री कर ली जाती है कि, ‘इस मौके पर उनके बताये रास्तों पर चलने की प्रेरणा ही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी.’ सबकुछ बनावटी बस एक रस्म-अदायगी और कुछ नहीं.

ऐसे मौकों के लिए इलाहाबाद के वरिष्ठ शायर ‘एहतेराम इस्लाम’ का अवलोकन बहुत सटीक उतरता है. वो अपने एक शेर में कहते हैं :

‘मुर्दा-परस्तों ने जिंदों को-मार दिया है तब पूजा है’

लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही कह दिया है कि एलेनर जीलियट ने ऐसा नहीं किया. कर भी नहीं सकती थीं, क्योंकि जिस समाज से वह आती हैं वहां व्यक्ति-पूजा की जगह व्यक्ति-सम्मान को तरजीह दी जाती है.

बाबा साहब का सम्मान उनकी पूजा से ज्यादा जरूरी है

व्यक्ति पूजा बनाम व्यक्ति सम्मान

एलेनर जीलियट हमें उस बच्चे की प्यास का एहसास दिलाती हैं जो अपने स्कूल में खुद नल की टोटी को हाथ नहीं लगा सकता चाहे प्यास से उसकी जान जा रही हो. इस फर्क के साथ जिंदा रहना, पढ़ना, बड़े होना और फिर खुद को इस रूप में ढाल लेना कि आजाद भारत के कानून बनाने की जिम्मेदारी उसके ही कंधों पर रख दी जाय. लम्बा सफ़र है.

एलेनर जिस आंबेडकर से हमारा परिचय कराती हैं उसे देखकर लगता है जैसे वह वक्त से पहले पैदा हो गया है. या फिर वह जिनके साथ खड़ा है उन्हें उसकी समझ तक पहुंचने में 40-50 साल लगेंगे.

आंबेडकर ने 1955 में कहा था कि मध्य प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों को अगर हम विकसित देखना चाहते हैं तो उन्हें तोड़ कर नए राज्य बनाने चाहिये. उस समय हमने आंबेडकर को अनसुना कर दिया था.

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लेकिन साल 2000 में हम छत्तीसगढ़ और झारखंड बनाने पर मजबूर हुए. सोचिये अगर यह काम उस समय हो जाता तो इनके विकास की गति आज क्या होती?

समाज की बंदिशें और दिल के फैसले दो अलग चीज़ें हैं. एलेनर जीलियट बताती हैं कि ‘आंबेडकर के टीचर उनसे बहुत प्यार करते थे लेकिन उन्हें छूते नहीं थे.’

आंबेडकर संस्कृत पढ़ना चाहते थे लेकिन उस समय के समाज में ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं था. लोग समझते हैं कि जो दी जाती है वही तालीम होती है.

आंबेडकर को देखकर पहली बार ये एहसास होता है की जो नहीं दी जाती वह भी तालीम होती है. अगर ऐसा न होता तो इतनी बंदिशों के साथ जीने वाला व्यक्ति हमें यह कहते हुए न मिलता कि, 'अग्रणी भारत को भारत के बारे में अग्रणी होना चाहिए और भ्रामक भारत होने से बचना चाहिए.'

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डॉ. भीमराव आंबेडकर के आलोचक और समालोचकों की एक भीड़ है. किस ओर ज्यादा लोग हैं इसे तय कर पाना मुश्किल है. डॉ. गोपालकृष्ण गांधी कहते हैं कि, 'अपने निधन के लगभग छह दशक बाद भी डॉ. बी.आर. आंबेडकर भारत के किसी भी राजनीतिक नेता (मरे हुए या जीवित) से ज्यादा जीवित, सम्मानित, याद किये जाने वाले नेता हैं.'

अगर कोई दूसरा नाम इस संदर्भ में उनके नजदीक आता है तो वह है शहीद भगत सिंह का. जिनकी छवियों को आज भी होर्डिंग, पोस्टर और कैलेंडर पर चित्रित किया जाता है.’

(यह लेख पूर्व में प्रकाशित हो चुका है)