डॉ. अंबेडकर और महात्मा गांधी, इन महापुरूषों के आपसी संबंधों को लेकर विवाद लगातार बना रहा है. क्या अंबेडकर महात्मा गांधी को दलितों का दुश्मन मानते थे? और क्या महात्मा गांधी अंबेडकर को हिंदू धर्म और भारत द्वेष के लिए घातक मानते थे ? क्या डॉ. अंबेडकर अंग्रेजों का साथ दे रहे थे? और क्या महात्मा गांधी सवर्ण हिंदू थे जो छुआछूत के खिलाफ तो थे पर वर्णाश्रम (हिंदू धर्मों की चार वर्णों की व्यवस्था) के समर्थक थे?
इन प्रश्नों पर बहस होती रही है और शायद होती रहेगी पर कभी-कभी ही सही यह आवाज भी आती रही है कि 1932 के पूना पैक्ट के अलावा ऐसा कोई खास मामला नहीं दिखता जहां गांधी को डॉ. अंबेडकर के खिलाफ खड़ा देखा जा सके.
तिल का ताड़
2016 में 'द हिंदू' में लिखे अपने लेख में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के फेजल डेवी कहते हैं ‘शत्रु अक्सर दोस्तों से ज्यादा समानता रखते हैं और अक्सर उनके रिश्ते भी ज्यादा करीबी होते हैं. और कही न भी हों पर यह उनके लिए तो सच है जो गांधी और अंबेडकर को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करना चाहते हैं. गांधी को एक सवर्ण हिंदू की तरह और अंबेडकर को उसके घोर विरोधी की तरह.'
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फेजल डेवी का तर्क है कि गांधी और अंबेडकर को धुर विरोधियों की तरह नहीं बल्कि उनके दौर (आजादी की लड़ाई के दौर) की राजनीतिक परिस्थितियों में दो सहयात्रियों की तरह देखा जाना चाहिए.
उनका यह भी मानना है कि अंबेडकर को गांधी का दुश्मन बताने वाले राजनीतिक/ऐतहासिक विश्लेषक सिर्फ पूना समझौते को परिस्थितियों के आधार पर ही ऐसा कहते हैं.
दलितों को अल्पसंख्यक मानकर पृथक राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने के खिलाफ महात्मा गांधी ने यरवदा जेल में आमरण अनशन किया था और अंततः अंबेडकर को दलितों को अल्पसंख्यकों के तौर पर पृथक निर्वाचन प्रतिनिधित्व की जगह संसद/ विधान परिषद में दलितों के लिए आरक्षण पर समझौता करना पड़ा था.
गांधी-अंबेडकर बैरी थे
परंतु यह अल्पसंख्यक मत है क्योंकि अधिकतर विद्वान मानते हैं कि लंदन में हुई दूसरी राऊंड टेबल कॉन्फ्रेंस में जहां अंबेडकर ने गांधी की इच्छा के विरुद्ध दलितों को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग की.
और उनके लिए अलग राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग से लेकर पूना समझौते तक गांधी और डाॅ. अंबेडकर के बीच तू डाल-डाल, मैं पात-पात का खेल चला और उनके बीच कड़वाहट साफ-साफ नजर आई. गांधी अंबेडकर संबंधों पर दीपक गौरव अपने लेख में कहते हैं-
‘अंबेडकर और गांधी के बीच राजनीतिक संघर्ष एक ऐतहासिक घटना है. दूसरी राऊंड टेबल कांफ्रेंस (जो लंदन में 1932 में हुई थी) गांधी ने बड़े जोर-शोर से दावा किया कि दलितों के असली प्रतिनिधि वे ही हैं और अस्पृश्य; दलित हिंदू धर्म का अभिन्न हिस्सा हैं.
दूसरी ओर अंबेडकर दलितों को हिंदू धर्म से अलग बता रहे थे और उनके लिए अल्पसंख्यकों का दर्जा मांग रहे थे ताकि वे अपने प्रतिनिधि अलग से चुन सकें और पूना समझौते के बाद गुस्साए अंबेडकर ने गांधी को दलितों के खिलाफ काम करने वाला और उनके उपवास को बदनियति से भरा बताया.'
गांधी कट्टर हिंदू, अंबेडकर हिंदुत्व से नाराज
दीपक आगे लिखते हैं कि गांधी जहां अंबेडकर के कदमों से हिंदू धर्म के विघटन को लेकर आशांकित थे, वहीं अंबेडकर कह रहे थे, ‘मैं हिंदू पैदा हुआ पर हिंदू मरूंगा नहीं.' जहां गांधी सवर्ण हिंदुओं को छुआछूत छोड़ देने के लिए प्रेरित करना चाहते थे वहीं अंबेडकर हिंदू और उनकी जाति प्रथा से निराश हो चुके थे और आखिरकार 1956 में अपने 2,00,000 अनुयायियों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया.
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गांधी-अंबेडकर संबंधों पर लिखने वाले विद्वान आमतौर पर यह भी मानते हैं कि गांधी के अछूतों के उद्धार कार्यक्रम को अंबेडकर ने दिखावे से ज्यादा कभी महत्व नहीं दिया और वे दलितों को खुद के उद्धार के लिए तैयार करना चाहते थे.
उद्देश्य एक, रास्ते अलग-अलग
इतिहासकार रामचंद्र गुहा को उल्लेखित करते हुए न्यूयार्क टाइम्स ने एक लेख में कहा कि गांधी और अंबेडकर दोनों ने ही जाति प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ी. लेकिन उच्च जाति वाले गांधी और दलित अंबेडकर की लड़ाई लड़ने के तरीके बहुत अलग थे.
जहां गांधी जीवन भर धार्मिक हिंदू बने रहे और हिंदू धर्म के भीतर सुधार की बात करते रहे, अंबेडकर चाहते थे कि राष्ट्रीय दलितों के उत्थान के लिए कानूनी पहल करें.
हालांकि गुहा इस बात के लिए गांधी और कांग्रेस की तारीफ भी करते हैं कि उन्होंने अंबेडकर को भारत का संविधान रचने के लिए चुना. वे कहते हैं कि ये कुछ ऐसा था जैसे अमेरिका के लोगों ने उस समय से 60 साल बाद ओबामा को राष्ट्रपति चुनकर दिखाया है.
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