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एक्सक्लूसिव: आप वाली पार्टी नहीं, लेकिन आप वाली सोच के लिए तरस रहा हूं- योगेंद्र यादव

इस विचार का जश्न कि आम आदमी सत्ता के ताकतवर गढ़ों-मठों का ताज झुका सकता है और राजनीति सच्चाई और अच्छाई के जीत की भी हो सकती है

Yogendra Yadav

आम आदमी पार्टी के साथ गुजरे अपनी जिंदगी के लम्हों को बड़े पर्दे पर देखकर मेरी आंखें भीग उठीं. लगा तैरती हुई तस्वीरों पर सब साफ दिखाई देता है.

मैं भावुक नहीं हो रहा अतीत का मोह मुझे कभी नहीं रहा, लेकिन कुछ खास रहा होगा ‘ऐन इन्सिग्निफिकेंट मैन’ में जो मैं जेहनी तौर पर आम आदमी पार्टी की स्थापना के लम्हों में जाने को मजबूर हुआ. शायद एक वजह ये रही हो कि मैं कोई फिल्म नहीं देख रहा था, मेरी जिंदगी के कुछ हिस्से मेरी आंखों के आगे पर्दे पर चल रहे थे. यह असाधारण फिल्म आम आदमी पार्टी के शुरुआती दो सालों यानी पार्टी के जन्म से लेकर 2013 में दिल्ली के चुनाव में मिली पहली जीत के लम्हे तक का सफरनामा है.


फिल्म के आखिर के दृश्यों में रामलीला ग्राऊंड में हुआ शपथ-ग्रहण समारोह दिखाया गया है. दिख रहा है कि मैं दूर कहीं भीड़ में खड़ा हूं, भ्रष्टाचार के खात्मे की सौगंध ले रहा हूं. एक क्षण को मन में आया काश! इतिहास यहीं ठहर जाता!

यह फिल्म मैं कोई पहली बार नहीं देख रहा था. कुछ महीने पहले फिल्म के नौजवान निर्देशकों विनय और खुशबू ने हमारे लिए निजी तौर पर फिल्म की एक स्क्रीनिंग रखी. मनीष (सिसोदिया) और अरविंद (केजरीवाल) के लिए भी अलग से फिल्म की ऐसी स्क्रीनिंग के इंतजाम किए थे दोनों ने. उस वक्त मैं फिल्म के कथानक को लेकर कहीं ज्यादा उत्सुक था. सोच रहा था कि फिल्म में क्या कुछ कवरेज के रुप में आया होगा और क्या कुछ छूट गया होगा. लगा, कैमरा मुझपर कुछ ज्यादा ही मेहरबान है, मुझ पर ज्यादा देर तक टिक रहा है जबकि मैं इतनी मेहरबानी का हकदार नहीं.

मुझे याद आई पार्टी के संगठन और संवाद के लिए रणनीति तैयार करने में निभाई गई मनीष सिसोदिया की भूमिका. याद आई कि पार्टी की आत्मा की आवाज के रूप में प्रशांत भूषण की भूमिका थी. मैंने फिल्म में खोजना चाहा मयंक, पृथ्वी, अतिशी...और इन सबसे अलग और कहीं ज्यादा अहम उन हजारों कार्यकर्ताओं को जो अदेखे रह गए हैं.

सो, इंतजार रहा नोएडा के थियेटर में फिर से इस फिल्म को देखने के मौके का ताकि यादों की बीत चुकी बैठकी में एक बार फिर से अपना बैठना हो जाए. पर्दे से ठीक दूसरी पांत में बैठकर फिल्म देखने पर चीजें सचमुच अपने कद से कहीं ज्यादा बड़ी नजर आती हैं और आप उसके बाद हुई छोटी, टुच्ची हरकतों को भूलने लगते हैं.

आम आदमी पार्टी की उस रहगुजर से ऑन-स्क्रीन ही नहीं ऑफ-स्क्रीन भी मेरा गुजरना साथ ही साथ हो रहा था.

इंटरवल के वक्त एक पुराने वालंटियर ने मुझे पकड़ लिया. और हां, ये मत समझिएगा कि उसने सेल्फी लेने के लिए मुझे पकड़ा था. उसने मेरे दोनों हाथ थामे और अर्ज किया कि सर अब आप वापिस आ जाइए. लेकिन अब मैं ऐसी बात सुनने का आदी हो चला हूं. सो मैंने वालंटियर को अपने नपे-तुले जवाब से रोकने की कोशिश में कहा ‘आप भूल गए हैं भाई, पार्टी हमने नहीं छोड़ी थी, हमें बाहर निकाला गया था और जिस तरह से निकाला गया था, वह भी आपको याद ही होगा!’ तेज रोशनी में वालंटियर के चेहरे पर झेंप जाने के कई निशान एकबारगी बनते चले गए और इस झेंप को मिटाने के गरज से उसके मुंह से निकला ‘सर, हर कोई जानता है. गलती हो जाती है. वो लोग छोटे भाई हैं, माफ कर दीजिए.’

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मैंने ये बात पहले भी सुनी है. ऐसी बात को सुनकर मेरा जवाब होता है कि आप किसकी तरफ से ये माफी मांग रहे हैं. आपको क्यों लगता है कि नाते टूटने के ऐन पहले तक हमने जुड़े रहने की कोशिश नहीं की, आप क्यों सोचते हैं कि मामला बस निजी अहं के टकराव का है? लेकिन वालंटियर की आवाज में कुछ ऐसी लरजिश थी कि मैंने एक ढर्रे की शक्ल अख्तियार कर चुके इस जवाब को अपने होठों में ही बंद रखा.

मैंने वालंटियर की बात सुनकर मुस्कुराते हुए कहा, ‘देखिए, बात कुछ वैसी ही है जैसा कि डेरा सच्चा सौदा में हुआ. बाहर से देखेंगे तो लगेगा बाबा के साम्राज्य में तो सबकुछ स्वप्न-सरीखा है. लेकिन जरा बाबा की गुफा में घुसेंगे तो बाहर उल्टी करते हुए आएंगे. हमारा दुर्भाग्य ये रहा कि हमें आम आदमी पार्टी की गुफा में घुसना पड़ा. हमने जो देखा वह बड़ा बदरूप था. आप ही बताइए, क्या हमें चुप्पी साध लेनी चाहिए थी?’

मेरी बात का जवाब देने या उसकी काट करने की जगह वालंटियर ने बिल्कुल उम्मीद भरी आंखों से देखते हुए कहा ‘तो फिर कुछ नहीं हो सकता क्या?’

मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इस चलती हुई बात को बीच में किस तरह खत्म करुं और वापस थियेटर में लौटूं. मैंने तर्कों के लंबे तार को उसके एक सिरे पर लपेटते हुए कहा, ‘देखिए, पार्टी अब पहले की तरह नहीं रही. जरुरत ये नहीं कि हम वापिस पार्टी में लौटें, जरुरत ये है कि पार्टी अपने पुराने वादों की तरफ लौटे.’

आम आदमी पार्टी देश की राजनीति में एक नए और पवित्र विचार के साथ उठ खड़ी हुई थी. इस पार्टी ने आदर्श को यथार्थ की जमीन पर उतार लाने की बात की थी. मैं कहा करता था- राजनीति शुभ को सच करने का नाम है. पार्टी ने वादा किया था कि अगर कहीं अच्छाई है तो उसे जमीन पर उतारकर दिखाना है. फिल्म में हम देख सकते हैं कि आदर्श और यथार्थ का दो जुदा-जुदा राहों पर जाना शुरु हो चुका है और वह जमीन तैयार हो रही है जहां खड़े होकर औपचारिक तौर पर दोनों के बीच रिश्ता तोड़ा जायेगा. अचरज नहीं कि सत्ता में आने के बाद आम आदमी पार्टी ने एक के बाद एक अपने वादे से दगा किया.

पहला वादा ईमानदार राजनीति का था और 2015 का चुनाव जीतने के चक्कर में पार्टी ने इस वादे से पिंड छुड़ा लिया; जीत के तुरंत बाद ये बात जाहिर हो गई. प्रशांत भूषण समेत हम सबको निकाल बाहर करने के वाकये के तुरंत बाद सिलसिलेवार हुई घटनाओं में ये वादा अपना दम तोड़ गया. मंत्रियों और विधायकों पर अपराध के गंभीर लगे, आरोप सच जान पड़ रहे थे लेकिन पार्टी ने इन मंत्रियों और विधायकों की पुरजोर तरफदारी की. निजी और सियासी प्रचार के लिए सरकारी खजाने की खुला दुरुपयोग हुआ. पंजाब के चुनावों के वक्त धनबल का सहारा लिया गया और जिस लोकपाल बिल के सहारे पार्टी वजूद में आयी थी उसी को लेकर पार्टी ने धोखा किया. सियासत के नैतिक प्रोजेक्ट के रुप में आम आदमी पार्टी 2015 में खत्म हो चुकी थी.

दूसरा वादा सुशासन (गुड-गवर्नेंस) का था. यह वादा आरोप-प्रत्यारोप और दुष्प्रचार की भीड़ में खो गया. इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नरों ने पक्षपाती और दुश्मनी भरा रवैया अपनाया और नौकरशाही अपने असहयोगी रुख पर अड़ियल रही. लेकिन यह भी देखा कि सत्ता की बागडोर जिन लोगों ने अपने हाथ में थाम रखी है उनके मन में गवर्नेंस के बुनियादी व्याकरण को लेकर कोई सम्मान नहीं है, जनता का कोई ख्याल नहीं है.

साल 2017 के एमसीडी चुनावों के नतीजे बता रहे थे कि पार्टी गवर्नेंस के मोर्चे पर नाकाम रही है और लोगों ने इसी कारण उसे नकार दिया है. अभी यह कहना संभव तो नहीं है कि यह सरकार शीला दीक्षित की सरकार से 19 साबित होगी या 21, लेकिन सुशासन का नया मॉडल देने के सारे वादे खोखले साबित हुए.

आखिरी में एक वादा और बचा रह गया था...वादा ये कि सिर्फ आम आदमी पार्टी ही मोदी को टक्कर दे सकती है. पंजाब चुनाव में इस दावे की भी पोल खुल गई. आम आदमी पार्टी का टिकाऊ होना इस एक बात से जुड़ा था कि यह पार्टी सियासत के मैदान में खड़ी बाकी पार्टियों से बहुत अलग हटकर है. जैसे ही जाहिर हुआ कि यह पार्टी दूसरों से अलग नहीं है बल्कि उन्हीं में से एक है, मतदाता उससे अलग छिटक गए और पार्टी का भरभराकर गिर जाना बस कुछ वक्त की बाद रह गई. मुझे नहीं लगता कि आम आदमी पार्टी को गुजरात चुनावों में कुछ काम लायक हासिल होगा. सियासत का वह सफर जिसे आम आदमी पार्टी का नाम दिया गया, अब अपनी राह और कारवां से भटक चुका है.

मुझे नहीं लगता कि ये सारी बातें मैं नोएडा के थियेटर में मिले उस वालंटियर से कह पाया. लेकिन उसने जितना सुना उससे वह आश्वस्त नजर नहीं आया. हम सिनेमा हॉल में घुसे तो उसने फिर मेरी तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखा.

फिल्म खत्म हुई तो मेरी भींगी नजरें उसे तलाश कर रही थीं. अब मैं समझ चुका था कि मेरे तर्क क्यों उसे मुद्दे की बात से हटकर लगे. वालंटियर ये नहीं चाहता था कि हम फिर से पार्टी में जाएं. वह चाहता था कि हम वह जादू फिर से जगाएं, वो चाहता था आम आदमी पार्टी ने जो वादे किए थे वे वादे फिर से सियासत में सुनायी दें. उसे आम आदमी पार्टी से आस नहीं है, आस तो उसने आम आदमी पार्टी के विचार से लगा रखी है. इस फिल्म में भी वही आस है और मेरे भीतर भी उसी उम्मीद की लौ जल रही है.

हम सिनेमा हॉल से बाहर निकले तो वह इंतजार करता मिला. हमारे हाथ फिर से मिले, इस बार मौन संवाद हुआ, मुझे लगा हमने एक दूसरे को समझा है.

आम आदमी पार्टी की स्थापना की पांचवी वर्षगांठ का यह मौका एक सियासी पार्टी के पतन और गिरावट पर शोक मनाने का नहीं है. यह आम आदमी पार्टी के विचार का जश्न मनाने का मौका है, इस विचार का जश्न कि नागरिक अपना शासन आप करने का अधिकार हासिल कर सकते हैं, इस विचार का जश्न कि आम आदमी सत्ता के ताकतवर गढ़ों-मठों का ताज झुका सकता है और राजनीति सच्चाई और अच्छाई के जीत की भी हो सकती है. आइए, हम सब इस विचार का जश्न मनायें और आस लगाएं कि इस विचार की आत्मा को कोई बेहतर सांगठनिक काया हासिल होगी.

(लेखक स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और 2015 तक आम आदमी पार्टी में थे)