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लोकसभा चुनाव 2019: मायावती की बंद मुट्ठी में क्या है?

महागठबंधन को लेकर बीएसपी सुप्रीमो मायावती की रणनीतिक चुप्पी को लेकर बहुत सी अटकलें हैं, लेकिन यह साफ है कि मायावती के पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं

Rakesh Kayasth

पुरानी कहावत है 'बंद मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की.' बीएसपी सुप्रीमो मायावती की मुट्ठी फिलहाल बंद है. हर कोई मुट्ठी खुलने को इंतजार कर रहा है क्योंकि उनकी मुट्ठी में कैद हैं कई अहम सवालों के जवाब. इन सवालों में सबसे बड़ा सवाल है 2019 की लड़ाई यूपी में किस तरह लड़ी जाएगी और यूपी के रास्ते से होते हुए दिल्ली के तख्त पर कौन बैठेगा? बेशक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनावी खेल के सबसे अहम किरदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों लेकिन मायावती के बिना 2019 की कहानी अधूरी है.

जो लोग पॉलिटिक्स फॉलो नहीं करते उनके लिए यह समझना मुश्किल है कि जिस पार्टी के पास लोकसभा में एक भी सीट नहीं है, वह पार्टी अगले आम चुनाव में लगभग निर्णायक हैसियत किस तरह रख सकती है. इस प्रश्न का उत्तर बेहद आसान है. शून्य सीट वाली बीएसपी 2014 की मोदी लहर में भी वोट परसेंट के हिसाब से बीजेपी और कांग्रेस के बाद देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी थी. उसके पास कोर वोटर्स की ऐसी फौज है, जो अपनी नेता के इशारे पर किसी भी गठबंधन साझीदार को वोट दे सकती है.


बीएसपी अकेली भले ही कुछ ना कर पाए लेकिन समाजवादी पार्टी के साथ आने से स्थिति पूरी तरह बदल जाती है. यह गठबंधन देश के सबसे बड़े राज्य यूपी की 80 सीटों में 50 पर जीत की स्थिति में आ जाता है. अगर एसपी-बीएसपी के साथ कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल भी जुड़ जाएं तो गठबंधन की सीटें इतनी बढ़ सकती है कि नरेंद्र मोदी के लिए सत्ता में वापसी के रास्ते लगभग बंद हो जाएं.

बीएसपी फैक्टर का असर क्या हो सकता है, इसका अंदाजा तीन लोकसभा उप-चुनावों में हो चुका है. सीएम योगी आदित्यनाथ की सीट गोरखपुर और डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य की सीट फूलपुर के लिए हुए उपचुनाव में बीएसपी की मदद से समाजवादी पार्टी ने बीजेपी को धूल चटा दी. गोरखपुर सीट पर तो बीजेपी पिछले 30 साल से अजेय थी.

इसके बाद सांप्रादायिक ध्रुवीकरण वाली कैराना सीट पर भी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा. यहां राष्ट्रीय लोकदल ने बीएसपी और बाकी गठबंधन साझीदारों की मदद से जीत हासिल की. यही वजह है कि 2019 पर किसी तरह भविष्यवाणी करने से पहले तमाम राजनीतिक पंडित यही कह रहे हैं कि सबकुछ यूपी पर निर्भर है. यूपी में क्या होगा यह मायावती पर निर्भर है.

मायावती की मायावी चुप्पी का मतलब

लेकिन मायावती लोकसभा उप-चुनावों के बाद से रहस्यमय तरीके से चुप हैं. वे कोई ऐसा संकेत भी नहीं दे रही हैं, जिससे साफ हो सके कि आने वाले दिनों में बीएसपी का रुख क्या होगा. पहला सवाल यह है कि मायावती उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ कब और किन शर्तों पर हाथ मिलाती हैं. इससे आगे का सवाल यह है कि क्या मायावती कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी महागठबंधन में शामिल होंगी? दोनों सवाल अलग होकर भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं.

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यूपी की तीन लोकसभा सीटों के उपचुनाव नतीजों के बाद लगने लगा था कि महागठबंधन की स्थिति तेजी से साफ होगी. लेकिन हुआ उसका ठीक उल्टा. मायावती ने अचानक यह बयान दिया कि अगर सम्मानजनक सीटें नहीं मिलीं तो वे अकेले चुनाव लड़ना पसंद करेंगी.

हालांकि इसके जवाब में अखिलेश यादव ने यह जरूर कहा कि बीएसपी के साथ गठबंधन के लिए अगर उन्हें कम सीटों से संतोष करना पड़े तब भी वे पीछे नहीं हटेंगे. लेकिन उसके बाद कोई ऐसी खबर नहीं आई कि दोनो पार्टियां गठबंधन के रास्ते पर आगे बढ़ी हैं. ना मायावती ने बताया कि उनके लिए सम्मानजनक सीटों का आंकड़ा क्या होगा और ना अखिलेश ने महागठबंधन पर कुछ कहा. मीडिया में तरह-तरह की अटकलें जरूर तैर रही हैं.

एक अटकल यह है कि मायावती यूपी में 50 से ज्यादा सीटें मांग रही हैं और अखिलेश के लिए यह सौदा मंजूर करना मुश्किल होगा. दूसरी अटकल यह है कि मायावती इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि गठबंधन में शामिल होने पर उन्हें समाजवादी पार्टी के वोटरों के वोट मिल पाएंगे. इसलिए फिलहाल उनके लिए स्थिति दुविधा और अनिर्णय की है. इन सबके बीच मुलायम परिवार के आपसी झगड़े ने गठबंधन की संभावनाओं को और उलझा दिया है. यूपी में भावी गठबंधन की उलझी राजनीति के सवाल पर थोड़ी देर में वापस आएंगे, फिलहाल यह देखते हैं कि कांग्रेस के साथ बीएसपी के रिश्तों का क्या हाल है.

ज्यादा वक्त नहीं गुजरा जब कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीयू गठबंधन सरकार के शपथ ग्रहण समारोह के लिए ज्यादातर विपक्षी नेता एक मंच पर आए थे. मंच पर खिंचवाई गई जिस एक तस्वीर ने सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरी थीं, उसमें सोनिया गांधी बीएसपी सुप्रीमो मायावती का हाथ उठाए नजर आ रही थीं. बेंगलुरु की उस तस्वीर के बाद यह खबर आई कि कांग्रेस के साथ बीएसपी हाथ मिलाने को तैयार है लेकिन उसकी शर्त यह है कि गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए सिर्फ यूपी में नहीं.

अटकलें लगातार चलती रहीं. लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले मायावती ने यह एलान कर दिया कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के साथ नहीं बल्कि अजीत जोगी की पार्टी जनता कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगी. कांग्रेस नेताओं ने गठबंधन ना होने की जो वजह बताई वह विचित्र थी.

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कांग्रेस का कहना था कि मायावती उन सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारना चाहती थीं, जिनपर बीएसपी कमजोर है. इसके उलट उन्होंने मजबूत सीटों पर दावा ही नहीं किया. यानी कांग्रेस ने घुमा-फिराकर यह कहा कि मायावती छत्तीसगढ़ में बीजेपी को फायदा पहुंचाना चाहती हैं. दूसरी तरफ मायावती ने यह कहा कि राहुल और सोनिया गांधी बीएसपी के गठबंधन के लिए तैयार थे लेकिन कुछ धूर्त कांग्रेसी नेताओं की वजह से ऐसा नहीं हो पाया.

अचानक लौटा नागनाथ-सांपनाथ का नारा

विधानसभा चुनावों की हलचल तेज हुई तो मायावती ने एक कदम आगे बढ़ते हुए नारा दाग दिया. कांग्रेस और बीजेपी दोनों एक जैसी पार्टियां हैं 'एक नागनाथ है तो दूसरी सांपनाथ'. यह नारा बीएसपी लगभग बीस साल पहले बुलंद किया करती थी. ऐसे में नागनाथ और सांपनाथ वाले नारे की इस समय वापसी का क्या मतलब है? क्या बीएसपी अब मान चुकी है कि 2019 में कांग्रेस के साथ किसी भी तरह की रणनीतिक साझीदारी संभव नहीं है? क्या कांग्रेस से दूरी बनाकर बीएसपी 2019 के नतीजों के बाद बीजेपी के साथ तालमेल की संभावनाओं के लिए चोर दरवाजा खुला रखना चाहती है?

बीएसपी जिस राज्य उत्तर प्रदेश में एक बड़ी राजनीतिक ताकत है, वहां कांग्रेस की स्थिति कमजोर है. यूपी में कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी और एसपी के बाद चौथे नंबर की ताकत है. इस हिसाब से देखें तो यूपी में बीएसपी के लिए कांग्रेस उतना बड़ा खतरा नही है, जितनी बीजेपी. 2014 के लोकसभा चुनाव में अगर बीएसपी का खाता भी नहीं खुला तो इसकी वजह दलित वोटरों का बड़ी तादाद में बीजेपी को वोट करना था. यही कहानी 2017 के विधानसभा चुनाव में भी दोहराई गई जब बीजेपी मायावती के कोर वोटर यानी जाटवों के एक हिस्से को भी तोड़ने में कामयाब रही.

यानी तात्कालिक तौर पर बीएसपी के लिए बीजेपी कहीं ज्यादा बड़ा खतरा है. इसका मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस से बीएसपी को कोई खतरा नहीं है. 1990 से पहले तक दलित वोट पर कांग्रेस का एकछत्र अधिकार हुआ करता था. कांशीराम की अगुआई वाली बीएसपी ने आक्रामक अस्मितावादी राजनीति के जरिए कांग्रेस से उसका यह परंपरागत वोट बैंक छीन लिया. कांग्रेस लगातार खोई जमीन तलाश करने में जुटी है. ऐसे में बीएसपी के साथ उसका टकराव स्वभाविक है.

अब सवाल यह है कि क्या कांग्रेस और बीएसपी इस टकराव को कुछ समय के लिए भुला सकती हैं और मोदी-शाह की आक्रमक राजनीति का मुकाबला करने के लिए एकजुट हो सकती हैं? कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह मानते हैं कि यूपी में अगर एसपी-बीएसपी का गठबंधन भी हो जाए तो मायावती अच्छी स्थिति में होंगी, उन्हें कांग्रेस की जरूरत है ही नहीं. लेकिन यह बात अर्धसत्य है. यूपी में आज भी कांग्रेस के छह से सात परसेंट वोट हैं.

अगर मायावती कांग्रेस की अनदेखी करती हैं तो इसका संदेश यह जाएगा कि मायावती का झुकाव बीजेपी की तरफ है. ऐसे में बड़ी संख्या में बीएसपी को वोट करने वाले मुसलमान वोटर उनसे दूर छिटक सकते हैं. अगर दलित-मुसलमान एकता में दरार पड़ी तो फिर मायावती की राह बहुत मुश्किल हो जाएगी. हो सकता है कि गठबंधन ना बनने से कांग्रेस का ज्यादा नुकसान हो लेकिन बीएसपी का फायदा होगा यह मान लेना भी अकल्पनीय है.

फिर क्या वजह है कि मायावती कांग्रेस से दूरी बनाने का संकेत दे रही हैं? इसकी एक वजह 2019 के लिए संभावित सौदेबाजी हो सकती है. कई क्षेत्रीय नेता यह मानते हैं कि 2019 में 1996 जैसी स्थिति बन सकती है, जहां कम सीट वाला किसी क्षेत्रीय पार्टी का नेता भी अचानक प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में सामने आ सकता है. कांग्रेस के नेतृत्व वाले किसी गठबंधन का हिस्सा बनने से 2019 में किंगमेकर या क्वीन बनने की संभावनाओं पर असर पड़ सकता है. यह बात एक हद तक तर्कसंगत लग सकती है. लेकिन मायावती स्थायी रूप से मुट्ठी बंद नहीं रख सकती हैं. उन्हें आज नहीं तो कल अपनी स्थिति साफ करनी ही पड़ेगी.

बहनजी के विकल्प सीमित हैं

मायावती के लिए एक रास्ता यह हो सकता है कि वे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करें और अखिलेश यादव को कांग्रेस से दूरी बनाने के लिए राजी करें. साथ ही वे राष्ट्रीय स्तर पर उस तीसरे मोर्चे की वकालत करें जिसका जिक्र ममता बनर्जी लगातार करती आई हैं. लेकिन यह रास्ता बेहद मुश्किल है. अखिलेश यादव अपने परिवार की कलह से परेशान हैं. उनके चाचा शिवपाल यादव नई पार्टी बनाकर सभी लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर चुके हैं. इतना ही नहीं वे यह भी दावा कर रहे हैं कि मुलायम सिंह यादव उनकी पार्टी के पीएम कैंडिडेट होंगे.

अगर सचमुच शिवपाल की पार्टी चुनाव में उतरी तो अखिलेश की समाजवादी पार्टी को इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है. ऐसे में क्या अखिलेश कांग्रेस पार्टी से तालमेल ना करके लड़ाई को और मुश्किल बनाने का जोखिम उठा पाएंगे. मुसलमानों के वोट उन्हें भी चाहिए और कांग्रेस के साथ दूरी इस मामले में अड़चन पैदा कर सकती है. यानी यूपी में कांग्रेस के बिना गठबंधन बन तो सकता है लेकिन एसपी-बीएसपी को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ेगी.

बीएसपी समर्थकों के लिए मायावती के प्रधानमंत्री बनने की कल्पना सुखद हो सकती है. लेकिन तीसरा मोर्चा आकार लेने से पहले ही दम तोड़ता नजर आ रहा है. संभावित तीसरे मोर्चे के बड़े नेता चंद्रबाबू नायडू कांग्रेस के साथ गठबंधन का एलान कर चुके हैं और वे तमाम विपक्षी नेताओं को एक मंच पर लाने की कोशिश में जुट गए हैं. ऐसे में मायावती के विकल्प बहुत सीमित हैं.

राष्ट्रीय राजनीति में बहुजन समाज का पार्टी का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2009 के लोकसभा चुनाव में रहा था, जब बीएसपी को 21 सीटें मिली थीं. लेकिन 2014 में पार्टी सीधे शून्य पर आ गई. मायावती की उम्र बढ़ रही है. पार्टी में नेताओं की कोई दूसरी कतार नजर नहीं आ रही है.

दूसरी तरफ दलित राजनीति में आए खालीपन को भरने के लिए जिग्नेश मेवाणी और चंद्रशेखर आजाद जैसे कई आक्रामक युवा नेता सामने आ रहे हैं. ऐसे में बहनजी को यह भी याद रखना होगा कि 2019 का चुनाव उनके लिए अस्तित्व बचाने का आखिरी मौका है. वैसे पूरे देश की तरह मायावती की नजर भी 11 दिसंबर पर टिकी होगी. पांच राज्यों के चुनावी नतीजें यह साफ कर देंगे कि देश में तीसरा मोर्चा बनेगा और या फिर कांग्रेस की अगुआई वाला विपक्षी महागठबंधन आकार लेगा.