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गुजरात का नया सीएम: विजय रूपाणी को चुने जाने की 10 वजहें

चुनाव के दौरान कहा जा रहा था कि रूपाणी की हालत बड़ी पतली है और उनके सामने मुकाबले में हारकर बाहर हो जाने का वास्तविक खतरा है. लेकिन अंतिम परिणामों में विश्लेषकों और शक जताने वालों के आकलन गलत साबित हुए

Sanjay Singh

विजय रूपाणी कभी अपने दोस्त, संगी-साथी, परिवार-जन या सभा में जुटी भीड़ से कहें कि विनम्रता से दुनिया जीती जा सकती है तो ऐसा नहीं लगेगा मानो कोई संत-महात्मा बोल रहा हो. वे समझ जाएंगे कि रूपाणी नीतिशास्त्र की क्लास की कोई किताबी चीज नहीं कह रहे बल्कि उनकी बात अनुभवों की सच्चाइयों से उपजी है. 61 साल के विजय रूपाणी विवादों में नहीं रहे, जाति के मामले में उनका रुख तटस्थ रहा है, बड़ी सादगी से पेश आते हैं और उनतक पहुंचना भी आसान है और यही विजय रूपाणी एक बार फिर से उस गुजरात के मुख्यमंत्री बने हैं जो बीजेपी के संगठन की योजना में सबसे ज्यादा अहमियत रखता है.

हालांकि पार्टी नेतृत्व ने या फिर ठीक-ठीक कहें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह ने उन्हें चुनाव-परिणाम की घोषणा के बाद पूरे चार दिन तक इंतजार करवाया और 18 दिसंबर के जनादेश को देखते हुए मौजूद विकल्पों को तौलने-परखने के लिहाज से अन्य संभावित नामों पर भी विचार किया जो सूबे की तनिक बदली हुई समाजी-सियासी फिजां में नेतृत्व के लिए उपयुक्त हो सकते थे लेकिन आखिर को फैसला रूपाणी के नाम पर हुआ.


रूपाणी के समर्थन में इजाफा हुआ

याद रहे कि चुनाव घमासान के दौरान बहुत सी खबरों में कहा जा रहा था कि रूपाणी की हालत बड़ी पतली है और उनके सामने मुकाबले में हारकर बाहर हो जाने का वास्तविक खतरा है. हार्दिक पटेल की राजकोट की रैली की खूब चर्चा हुई और कइयों ने तो रूपाणी की उम्मीदवारी को गए जमाने की बात ही मान लिया था. लेकिन मतों की गिनती के जब अंतिम परिणाम आए तो सारे विश्लेषकों और शक जताने वालों के आकलन गलत साबित हुए, विजय रूपाणी 55 हजार वोटों के अच्छे-खासे अंतर से चुनाव जीते. पिछली दफे इसी सीट पर रूपाणी को इससे 50 फीसद कम वोटों से जीत मिली थी. रूपाणी की लोकप्रियता पाटीदारों के गुस्से पर भारी पड़ी, रूपाणी को मिले वोटों और समर्थन में इजाफा हुआ.

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दूसरी बात यह कि रूपाणी ने राजकोट के अपने विधानसभा क्षेत्र में तो शानदार जीत दर्ज की ही, यह भी सुनिश्चित किया कि राजकोट की चारों शहरी सीटें बीजेपी की झोली में जाएं. इस तरह जिले की आठ सीटों में बीजेपी के खाते में छह सीटें गईं. सौराष्ट्र में बीजेपी को कई दूसरे कारणों से ग्रामीण इलाकों में सीटों का नुकसान उठाना पड़ा.

संगठन में काम करने का फायदा

तीसरे, रूपाणी की छवि संगठन से जुड़े एक ऐसे व्यक्ति के रुप में है जिसकी जड़ें बहुत मजबूत हैं. साल 2016 के अगस्त में बड़ी चुनौतीपूर्ण स्थितियों में राज्य में उनके नाम की घोषणा मुख्यमंत्री के रुप में हुई थी. इसके ऐन पहले तक उनका नाम सरकार के मंत्रियों तक में शुमार ना था. उनकी पहचान एक ऐसे व्यक्ति के रुप में थी जो बीजेपी के संगठन के ढांचे से जुड़ा है और संगठन में अलग-अलग पदों पर भूमिका निभा चुका है. रुपाणी ने बिल्कुल जमीनी स्तर से अपनी आगे की राह बनाई है. वे 1987 में राजकोट म्युनिस्पल कारपोरेशन से कारपोरेट के रुप में चुनाव जीते, फिर इसकी स्थाई समिति के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष बने. इसके बाद मेयर के पद पर चुने गए.

इस सिलसिले की चौथी बात कि रूपाणी का अंदाज शराफत भरा है. वे झगड़ा-टंटा ठानने की शैली नहीं अपनाते. फिलहाल सूबे में सामाजिक रुप से बिखराव के लक्षण दिख रहे हैं, अलग-अलग जाति समूहों के बीच सामाजिक तनाव है. सूबे में बीजेपी को सरकार चलाने के लिए एक ऐसे व्यक्ति की जरुरत है जो जाति के मामलों में तटस्थ रुख अपनाए, झगड़े-टंटे से दूर रहे और पैदा हालात से निपटने या कहें कि सामाजिक तनाव को कम करने में सक्षम हो.

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पांचवी बात, 18 दिसंबर के नतीजों से बीजेपी को खतरे की चेतावनी की शक्ल में एक अहम संदेश मिला है कि संगठन पर पकड़ कमजोर नहीं होनी चाहिए. रूपाणी की पार्टी कार्यकर्ताओं और अन्य संबद्ध लोगों में पैठ है, इसलिए संगठन के भीतर अदने और अव्वल के बीच रूपाणी के मुख्यमंत्री बनने से खुशी का माहौल बना रहेगा.

अहमदाबाद में शुक्रवार को सीएम और डिप्टी सीएम पदों की घोषणा के बाद नितिन पटेल को मिठाई खिलाते विजय रूपाणी. साथ में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली.

काबिल प्रशासक हैं रूपाणी

छठी बात, गुजरात के एक वरिष्ठ नेता ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि नव-निर्वाचित विधानसभा में बीजेपी बहुमत के आंकड़े से कुछ ही सीटें आगे है, सो हालात को देखते हुए ऐसे मुख्यमंत्री की जरुरत है जो सबकी सुन सके, जरुरत पड़ने पर विधानसभा में विपक्ष की बेंच पर बैठे लोगों से बेझिझक जाकर मिल सके और विपक्ष भी लोकहित के कुछ मुद्दों पर उससे आसानी से मिल सके.

सातवीं बात कि रूपाणी ने अपने को एक काबिल प्रशासक के तौर पर साबित किया है. सूबे में बाढ़ की स्थिति में लोगों तक पहुंचने में उन्होंने देर नहीं लगाई. कई दिनों तक वे पालनपुर में डेरा डाले रहे और बनासकांठा और अन्य प्रभावित क्षेत्रों में राहत और बचाव का बड़ा और संगठित अभियान चलाया.

आठवीं बात, बीते दो सालों में उन्होंने साबित किया है कि उनमें टीम की अगुवाई करने की क्षमता है, साथ ही वे टीम के एक सदस्य के रुप में भी सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं. उप-मुख्यमंत्री नितिन पटेल और रूपाणी के बीच किसी तरह के मतभेद की खबर कभी नहीं आई. दोनों के बीच ताकत और जिम्मेवारी का साफ-साफ बंटवारा है.

जीतने वाली टीम पर ही भरोसा

नौवीं बात, बीजेपी ने चुनाव जीता है और बेहतर यही है कि चुनाव जीतने वाली टीम को बरकरार रखा जाए. नेतृत्व में बदलाव किया जाता तो यह कमजोरी का संकेत होता. संदेश जाता कि पार्टी ने खुद ही मान लिया है कि नेतृत्व अपनी भूमिका निभाने में नाकाम रहा. बदलाव करने पर संगठन के ढांचे में भी अनिश्चितता पैदा होती जबकि मोदी और शाह इस एक बात से किसी भी कीमत पर बचना चाहेंगे.

दसवीं और इस सिलसिले की आखिरी बात यह कि रूपाणी पर अमित शाह का पूरा भरोसा है. अगस्त 2016 में इसका फायदा रूपाणी को मिला था जब आनंदीबेन पटेल ने मुख्यमंत्री का पद छोड़ा. उस वक्त रूपाणी का मुख्यमंत्री के रुप में चयन लोगों को आश्चर्यजनक लगा लेकिन इस बार उनके नाम पर किसी कोई अचरज नहीं है.

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हिमाचल प्रदेश में सस्पेंस बरकरार है –

बीजेपी की तरफ से नियुक्त दो निरीक्षक निर्मला सीतारमण और नरेंद्र सिंह तोमर हिमाचल प्रदेश पहुंचे हैं लेकिन वहां विधायक दल में सहमति कायम नहीं हो पाई है. बीजेपी की ओर से मुख्यमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार प्रेमसिंह धूमल (अपने दुर्भाग्य से) चुनाव हार गए. धूमल और मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी जता रहे जयराम ठाकुर के समर्थकों ने शिमला में पार्टी मुख्यालय पर निर्मता सीतारमण और नरेंद्र सिंह तोमर का एक तरह से घेराव किया. चुनाव हारने के बावजूद धूमल ने अपनी दावेदारी नहीं छोड़ी है. ठाकुर भी अपने दावे को लेकर अड़े हुए हैं.

ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री पद के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा के नाम को बल मिला है. फैसला अब पार्टी नेतृत्व पर छोड़ दिया गया है. चूंकि बहुमत दो-तिहाई का है सो शाह और मोदी खूब सोच-विचार कर फैसला करेंगे कि हिमाचल प्रदेश की बागडोर अगले पांच साल के लिए किसे थमाई जाए.