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उत्तर प्रदेश: सीएम कोई भी हो बीजेपी ने लखनऊ में फिजा बदल दी है

बीजेपी की जीत के बाद बदले माहौल के संकेत अच्छे हैं.

Ajay Singh

राजनीतिक गलियारों में यूपी के नए मुख्यमंत्री के नाम की अटकलों के शोर के बीच बीजेपी के नए राजनीतिक चलन और संस्कृति की सुगबुगाहट को कोई नहीं सुन नहीं पाया है.

नवाबों का शहर लखनऊ जो अपनी सदियों से अपनी नफासत, सलीके और मीठी जुबान के साथ-साथ हाल फिलहाल में सरकारी अपराधीकरण के लिए जाना जाता है. लेकिन इस शहर ने भी शायद ऐसा मंजर पहले कभी नहीं देखा.


बीजेपी की विधानसभा चुनाव में जीत के बाद जिस पैमाने पर संगठन के स्तर पर कार्यकर्ताओं-नेताओं को शपथ ग्रहण के लिए जुटाया जा रहा है, उसकी मिसाल नहीं मिलती है. किसी भी राजनीतिक दल ने शपथ ग्रहण समारोह के लिए इतने बड़े पैमाने पर तैयारियां नहीं की हैं. सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि इतनी जोरदार तैयारी उस वक्त भी चल रही है, जब मुख्यमंत्री के नाम पर अटकलें ही लगाई जा रही हैं.

कार्यकर्ताओं को मिली जिम्मेदारी

लखनऊ में किसी भी मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण में अफसरशाही ही अहम रोल निभाती है. पूरे आयोजन की जिम्मेदारी उसी की होती है. मेहमानों की फेहरिस्त भी अफसर ही तैयार करते आए हैं. लेकिन इस बार हालात एकदम अलग हैं. बीजेपी के राज्य स्तर के नेताओं को कहा गया है कि वो कार्यकर्ताओं को रविवार को होने वाले शपथ ग्रहण कार्यक्रम में शामिल करने के लिए जोडें. नई बीजेपी सरकार कांशीराम स्मृति वन में शपथ लेगी. ये खूबसूरत पार्क मायावती ने अपने राजनीतिक गुरू कांशीराम की याद में बनवाया था.

इसी तरह पार्टी के संगठन से जुड़े नेताओं को शनिवार को होने वाली विधायक दल की बैठक की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी दी गई है. इस बैठक में ही नए मुख्यमंत्री का चुनाव होना है.

अब इस माहौल की तुलना समाजवादी पार्टी या बीएसपी की जीत से कीजिए. जब ये दोनों पार्टियां जीती थीं, तो मुख्यमंत्री के नाम पर कोई कंफ्यूजन नहीं था. पूरे आयोजन की जिम्मेदारी सत्ताधारी पार्टी के करीबी अफसर और उद्योगपतियों के हाथ में होती थी. उन्हीं के निर्देश पर पूरा कार्यक्रम चलता था. वहीं कांग्रेस के राज में आलाकमान ही ऊपर से मुख्यमंत्री तय कर देता था. राज्य के नेता बस हाई कमान के आदेश का पालन भर करते थे. किसी कांग्रेसी मुख्यमंत्री के कार्यकाल पूरा करने की मिसाल कम ही मिलती है. अक्सर हाई कमान के दखल से उसे बीच कार्यकाल में पद से हटना पड़ता था.

लेकिन इस बार लखनऊ का सियासी मिजाज और माहौल एकदम अलग दिख रहा है. राज्य स्तर के नेता इस बात से बेहद खुश हैं कि चुनाव से लेकर सरकार गठन तक में कार्यकर्ताओं की हिस्सेदारी है. बीजेपी के एक स्थानीय नेता कहते हैं कि, 'सरकार गठन में स्थानीय नेता और कार्यकर्ता बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं'. यानी बीजेपी ने माहौल को एकदम बदल दिया है. पहले जहां अफसर और सत्ताधारी पार्टी के करीबी नेता हावी रहते थे. वहीं इस बार पार्टी संगठन को अहमियत दी जा रही है.

अफसरशाही को किया किनारे

सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात तो ये है कि यूपी की बदनाम ब्यूरोक्रेसी को पूरे आयोजन से एकदम अलग रखा जा रहा है. कुछ अफसरों ने बीजेपी नेताओं से संपर्क करके मूड भांपने की कोशिश की, तो उन्हें साफ शब्दों में राजनीतिक मामलों से दूर रहने को कह दिया गया.

हालांकि यूपी की अफसरशाही का इतिहास काफी दागदार रहा है. बड़े अफसर अक्सर राजनेताओं के करीबी रहे हैं. पिछले कुछ सालों में कई अफसरों के दामन पर भ्रष्टाचार के दाग लगे हैं. कई अफसरों पर आपराधिक मुकदमे हुए हैं. उन्हें जेल भी जाना पड़ा है. पूर्व मुख्य सचिव नीरा यादव और उनके आईएएस सहयोगी, भ्रष्टाचार के आरोप में जेल गए. इसी तरह पूर्व मुख्य सचिव ए पी सिंह के घर पर सीबीआई ने छापेमारी की थी.

हालांकि कहा तो ये जाता है कि यूपी की नौकरशाही में भ्रष्टाचार की ये तो मामूली और गिनी चुनी मिसालें ही हैं. वैसे उत्तर प्रदेश ने कई शानदार अफसर भी दिए हैं. बिहार में जहां लालू-राबड़ी के राज में अफसर सिर्फ राजनेताओं के फरमाबरदार बनकर रह गए थे. वहीं यूपी में अफसरों ने विकास के काम में काफी योगदान दिया है. ज्यादातर अफसर राजनीति से दूर ही रहे हैं. इन निष्पक्ष अफसरों ने जनता की सेवा में ही अपना ध्यान लगाया है.

लेकिन मुलायम और मायावती का राज आने के बाद नौकरशाही की निष्पक्षता, उत्तर प्रदेश में भी दागदार हो गई. राजनीतिक माहौल में अफसरशाही पूरी तरह से भ्रष्टाचार में डूबी नजर आई. कई नौकरशाह तो इतने ताकतवर हो गए कि वो नेताओं पर भारी पड़ने लगे, फैसले लेने लगे. सत्ता के दलाल बन गए. यादव सिंह जैसे कई अफसर यूपी की नौकरशाही को लगे भ्रष्टाचार के दीमक की मिसाल हैं. यही वजह है कि आज राज्य में प्रशासन पूरी तरह से चरमराया नजर आता है. क्योंकि अफसर, राजनेताओं से सांठ-गांठ करके भ्रष्टाचार में लिप्त हैं.

बीजेपी की जीत के बाद बदले माहौल के संकेत अच्छे हैं. ऐसा लगता है कि अब नौकरशाही को भी अपना रुख रवैया बदलना होगा. सत्ता में संगठन और कार्यकर्ताओं की ज्यादा हिस्सेदारी होगी.

पहले अक्सर पार्टी संगठन और नौकरशाही के बीच टकराव देखने को मिलता था. आम कार्यकर्ता शिकायत करते थे कि मंत्री उनकी सुनते नहीं. लेकिन बीजेपी जिस तरह से राजनैतिक माहौल बदल रही है उससे लगता है कि सरकार और संगठन के बीच तालमेल बेहतर होगा. आम पार्टी कार्यकर्ता की अनदेखी नहीं होगी. उसके फीडबैक को नई सरकार अहमियत देगी. आम कार्यकर्ता खुद को सरकार में हिस्सेदार महसूस करेगा.