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अखिलेश यादव के पास बगावत ही विकल्प है!

अखिलेश यादव कोई वैचारिक जंग नहीं, बल्कि परिवार के भीतर वर्चस्व की जंग लड़ रहे हैं.

Krishna Kant

शराफत राजनीति की चेरी है, गुंडागर्दी राजनीति की रानी. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने शराफत और खामोशी चुनी थी, इसलिए यादव परिवार में उनकी हैसियत एक चेरी से ज्यादा की नहीं रह गई. वे उन दो चार नामों को भी चुनाव लड़ने से भी नहीं रोक पा रहे, जिनकी छवि पर अपराध का धब्बा चिपका हुआ है.

अब खबर है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अंतत: बगावत कर दी है. टिकट बंटवारे पर चले दो दिन के घमासान के बाद अखिलेश यादव ने 167 उम्मीदवारों की अलग से सूची जारी किए जाने की सुगबुगाहट है.


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हालांकि, अभी स्पष्ट नहीं है कि अखिलेश पार्टी छोड़ेंगे ही. अलग चुनाव लड़ने की खबर पिछले दरवाजे से मीडिया तक पहुंचाई गई है. यह अखिलेश यादव की दबाव बनाने की एक कोशिश भी हो सकती है.

मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव को यह संदेश देना चाह रहे होंगे कि उनके पास दूसरे विकल्प भी हैं. अगर अखिलेश अपने समर्थकों के साथ पार्टी छोड़ते हैं तो कांग्रेस के साथ जाने का विकल्प उनके लिए खुला है.

अखिलेश यादव ने पिछले पांच साल में जो भी काम किया है, उसे लेकर उनकी छवि अच्छी बनी है. यूपी में कुछ काम ऐसे हुए हैं जो जमीन पर दिख रहे हैं. उन्होंने 'काम बोलता है' जैसा नारा भी दिया है.

पार्टी के भीतर कई सत्ता केंद्र होने की वजह से अखिलेश बेहद असहाय स्थिति में हैं. वे जहां खड़े हैं उनके पास अब अपराध और शराफत में से एक चुनने का विकल्प नहीं बचा है. आखिर उन्हें पांच साल मुंह बंद रखने और सिंहासन पर मुलायम सिंह की खड़ाउं रखकर सरकार चलाने की कीमत भी अदा करनी होगी.

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जब उनको यह साबित करना था कि वे युर्वा तुर्क की भूमिका में हैं तब वे अपने को एक सुघड़ सुपुत्र साबित करने में लगे थे. उत्तर प्रदेश जो देश की राजनीति की दिशा तय करता है, वहां अखिलेश की दिशा दशा का कुछ पता नहीं था.

अखिलेश की लड़ाई अगर टिकट बंटवारें में अपने लोगों को तवज्जो देने और पार्टी पर पकड़ बनाने की है तो उनकी हार तय है. प्रदेश की राजनीति में जो चीजें जरूरी हैं, उन पर मुलायम सिंह और शिवपाल यादव का कब्जा है.

अगर अखिलेश की लड़ाई साफ सुथरी और विकास की राजनीति के लिए है तो उन्हें स्पष्ट तौर पर जनता को बताना चाहिए और पार्टी से अलग हो जाना चाहिए.

अखिलेश ने चुप रहकर अपनी अच्छी छवि पेश कर दी है, लेकिन पार्टी की अपराधी छवि का वे कुछ नहीं बिगाड़ सके. चुनाव की घोषणा के ठीक पहले उनका बगावत पर उतरना और विवाद बढ़ाना उनकी पार्टी के लिए हर हाल में नुकसानदेह है.

अगर अखिलेश उत्तर प्रदेश की राजनीति बदलना चाहते हैं तो बगावत उनके पास आखिरी विकल्प है. खबरें हैं कि वे राहुल गांधी के साथ मुलाकातें कर रहे हैं. कांग्रेस को गठबंधन सहयोगी बनाकर अखिलेश प्रदेश में एक साफ-सुथरी और आदर्शवादी युवा राजनीति की शुरुआत कर सकते हैं, लेकिन वे ऐसा करेंगे इसमें संदेह ही है.आखिर वे कोई वैचारिक लड़ाई तो लड़ नहीं रहे, वे परिवार के भीतर मात्र वर्चस्व की जंग लड़ रहे हैं.