सत्ता किसी रिश्ते को नहीं मानती है. इस बात का सबसे सटीक उदहारण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बन गए हैं.
वो अखिलेश जिसके युवा साथी हजरतगंज चौराहे पर जब पुलिस से बुरी तरह पिटे और उसी फोटो को एसपी ने 2012 के चुनाव में प्रचारित किया. अखिलेश जिसके दम पर एसपी ने 2012 में बहुमत की सरकार बनाई.
अखिलेश ने बदली एसपी की इमेज
पार्टी को एक ऐसा युवा नेता मिला जिसके लिए खुद मुलायम ने कहा की मेरी पार्टी जवान हो गयी है. जिसके पास विजन था. उसने एसपी की कंप्यूटर और अंग्रेजी विरोधी पारंपरिक छवि को तोड़ा था.
मेट्रो रेल, लैपटॉप बांटना, बड़े-बड़े पार्क बनवाना, फिल्म सिटी, आई टी सिटी, हॉस्पिटल्स, एक्सप्रेसवे, पेंशन स्कीम इत्यादि को सफलतापूर्वक अंजाम दिया. एसपी जो पिछड़ों और मुसलमानों की पार्टी थी, उसकी पहुंच आम युवा तक पंहुचा दी.
अखिलेश जिसके लिए हर विरोधी दल का नेता कभी बुरा नहीं कहता. उसके मुख्यमंत्री बनने पर विपक्ष भी खुश हैं. विधानसभा में विरोधी एमएलए उसे घेरे रहते हैं. सब पार्टी के विधायक उससे खुले आम मिलते हैं.
जिसके सड़क पर जाने से सेल्फी लेने के लिए लड़कियों में होड़ लग जाती हैं. जो अभी भी अपनी बेटी के स्कूल में साधारण पैरेंट की तरह प्लास्टिक की कुर्सी पर जाकर बैठ जाता है. किसी को भी आर्थिक मदद से मना नहीं किया. अपने कार्यकाल में जिसके ऊपर कोई आरोप नहीं लगा आज वही अखिलेश अपनी पार्टी में बेगाना सा है.
अपनी ही पार्टी में बेगाने हुए अखिलेश
टिकट की बात छोड़िए. आज हालत ऐसी हैं की अखिलेश के समर्थक या तो पार्टी से निकाल दिए गए हैं या फिर पद से हटा दिए गए हैं. विक्रमादित्य मार्ग पर स्थित एसपी के प्रदेश कार्यालय में अखिलेश समर्थक नहीं जा सकते. खुद अखिलेश भी यदा कदा ही जातें हैं.
अखिलेश का नया दफ्तर अब उनके संगठन जनेश्वर मिश्र ट्रस्ट की बिल्डिंग में शिफ्ट हो गया हैं. पार्टी से दो प्रेस नोट जारी होते हैं. प्रदेश कार्यालय से शिवपाल का और अखिलेश का अलग उनके कार्यालय से. वहीं अखिलेश रुंधे गले से पार्टी कार्यालय में सबके सामने कहता है कि मैंने कभी किसी के सम्मान में कोई कमी की हो तो बताना.
सिर्फ साढ़े चार साल में ऐसा क्या हो गया की अखिलेश यादव जिससे दूसरे दल बात करने को तैयार हैं लेकिन एसपी दूर होती चली गयी.
शायद, अखिलेश इतिहास पर ध्यान नहीं दे पाएं. जिस भारत में पुत्र अपने पिता को कैद कर राजा बनता है. जिस भारत में सत्ता पाने के लिए अपने चाचा को एक सुल्तान खत्म कर देता है या फिर आधुनिक भारत में एक दामाद अपने ससुर से अलग होकर सरकार बना लेता है. उस देश में अखिलेश सबको साथ लेकर चलना चाहते थे.
मुलायम की विरासत रास नहीं आई
जब 2012 में अखिलेश ने सत्ता संभाली तो विरासत में पार्टी के अलावा बहुत चीजें मिली. उनके मुख्यमंत्री सचिवालय में अनीता सिंह, शम्भू सिंह, जगदेव जैसे अधिकारी तैनात किये गए. उनके मंत्रिमंडल में 80 फीसदी चेहरे पुराने थे. ये सब मुलायम के खास थे.
मुलायम ने सार्वजनिक रूप से अखिलेश की सरकार के काम काज पर टिप्पणी करनी शुरू कर दी. मुलायम हर मौके पर याद दिलाते रहे की वोट उनके नाम पर मिला और उन्होंने सीएम अखिलेश को बना दिया.
खुद अखिलेश ने माना की 'नेताजी' कब पार्टी अध्यक्ष बन जाते हैं और कब पिता पता ही नहीं चलता. बसपा नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने खुले आम कहना शुरू कर दिया कि प्रदेश में साढ़े तीन मुख्यमंत्री हैं.
अखिलेश दूसरों की राजनीतिक महत्वकांक्षाओ को नजरअंदाज कर गए. इधर शिवपाल यादव उसी पर काम करते रहे. महत्त्वपूर्ण विभाग जैसे सिंचाई, पीडब्लूडी होने के कारण विधायकों और पार्टी के कार्यकर्ताओ को जोड़ते रहे. आसानी से मिलते रहे. अपनी छवि पर विशेष ध्यान दिया.
पहली बार शिवपाल ने सोशल मीडिया- ट्विटर, फेसबुक पर अपना अकाउंट बनाया. एक टीम उनका कार्यभार देखने लगी. उनके प्रेस नोट अलग से मीडिया तक पहुंचाये जाने लगे. त्योहारों पर पत्रकारों को अलग से मिठाई के डिब्बे पहुंचने लगे.
परिवार में भी अखिलेश चुप ही रहे. जब उनके छोटे भाई की पत्नी अपर्णा यादव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यक्रम में गयी वो कुछ नहीं बोले. देर होती गयी और दिल बंटते गए. सत्ता की ललक सबको होती हैं और अखिलेश राजनेता नहीं बने वो सिर्फ आज्ञाकारी पुत्र बने रहे.
देर से जागे अखिलेश
सरकार में हस्तक्षेप के बाद पार्टी लेवल पर अखिलेश को झटके लगने शुरू हो गए. जिस अमर सिंह को उन्होंने बाहरी कहा वो सभी महत्वपूर्ण पदों पर आ गए. जिस मंत्री को बाहर रखा उसने चार बार शपथ ली. प्रदेश अध्यक्ष का पद भी गया. उनके समर्थक बाहर कर दिए गए.
जब अखिलेश ने बोलना शुरू किया की तलवार तो दे दी है लेकिन चलाने का अधिकार नहीं दिया तब तक देर हो चुकी थी. पार्टी, नेता, कार्यकर्ता सब कुछ बंट चुका था. अब सिवाय इसके की अपनी स्थिति मजबूत करो कोई चारा नहीं बचा था.
जाहिर है सब कुछ खोने के लिए सिर्फ अखिलेश थे और उधर शिवपाल यादव का कोई नुकसान होता नहीं दिख रहा है. उन्हें जो पाना था वो उन्हें मिल गया. अपने आप को मुलायम का भाई या अखिलेश का चाचा के टैग से बाहर निकालना. खुद को नेता के रूप में स्थापित करना, और वो हो चुका हैं.
अखिलेश के लिए रास्ते अभी भी खुले हैं
हालात यह है की एसपी जो सत्ता में वापसी का सोच रही थी वो अब खुद में उलझती नज़र आ रही हैं. टिकट को लेकर घमासान मचना कोई नयी बात नहीं हैं. हर राजनीतिक पार्टी में ऐसा होता हैं. लेकिन एसपी में चल रही उठा-पटक से अब दो रास्ते निकलने हैं.
पहला, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव नेता बन कर उभरेंगे और 25 साल पुरानी एसपी खत्म हो जाएगी. दूसरा ये हो सकता हैं एसपी जैसे-तैसे चलेगी लेकिन उत्तर प्रदेश के राजनीतिक क्षितिज में हैसियत कम हो जाएगी.
2014 के लोकसभा चुनाव ने एसपी के सारे नेताओं खासकर मुलायम, शिवपाल और अखिलेश को दिखा दिया की पार्टी की जमीन खिसक चुकी हैं. पार्टी जैसे-तैसे 5 सीट जीत पाई. राष्ट्रीय लेवल पर उसकी महत्ता खत्म हो गयी. विपक्ष की धुरी बनने का सपना बिखर चुका था. बातें अब खुल कर होने लगी हैं. शिवपाल और अखिलेश के बीच विरोधाभास जगजाहिर हैं.
अब अखिलेश के पास विकल्प बहुत कम है. सालों की चुप्पी से वो अच्छे इंसान हो गए लेकिन सफल और चालाक नेता नहीं बन पाए.
शायद अब भी वे अब बदलें क्योंकि उनके पास अगले तीन दशक हैं राजनीति के लिए. अब चुप्पी खतरनाक होने की सीमा पर पहुँच चुकी हैं.
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