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सपा-कांग्रेस गठबंधन में बिहार के महागठबंधन वाली बात नहीं

यूपी के क्षत्रपों में नीतीश और लालू जैसी न तो राजनीतिक सूझबूझ है और न हालात को भांपने की गहरी समझ.

Ajay Singh

साल 1965 में एक फिल्म आई थी 'वक़्त'. इस फिल्म में राजकुमार का एक डायलॉग था, 'ये बच्चों के खेलने की चीज नहीं कट जाए तो खून निकल आता है.' राजनीति भी ऐसी ही है कि दांव गलत पड़े तो नसीब जल जाता है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस बात को खूब समझते हैं.

पटना में एक दिन यूं ही बात करते करते किसी ने नीतीश से उत्तर प्रदेश में महागठबंधन की संभावनाओं पर पूछा. नीतीश बोले, ‘ऐसा महागठबंधन तभी मुमकिन है जब समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी एक साथ आएं.’


नीतीश अपने शब्दों को महीनी से चुनते हैं. उन्होंने एक बात में सारी कहानी कह दी.

राजनीति की धेले भर की भी समझ रखने वाले बिना झिझके कह देंगे कि सपा- बसपा कभी एक साथ नहीं आ सकते. बसपा सुप्रीमो मायावती की महत्वाकांक्षाएं इतनी अधिक हैं कि वह किसी से अपनी राजनीतिक जमीन साझा नहीं कर सकतीं. दूसरी तरफ मुलायम के बिना अखिलेश की समाजवादी पार्टी नौसिखिया है.

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नीतीश की बातों को ध्यान में रख कर उत्तर प्रदेश से आ रहे संकेतों को तोलिए. उत्तर प्रदेश के इस गठबंधन के तिलों में तेल कम नजर आएगा. अखिलेश और कांग्रेस का गठबंधन बड़ी मुश्किल से हो पाया है. अजीत सिंह जुड़ भी गए तो क्या कमाल होगा खुदा जाने.

सपा की कुंडली तो देखिए

बहुत सारे लोग इस गठबंधन में बहुत दम देख रहे हैं. लेकिन सपा-कांग्रेस दोनों का मूल चरित्र ऐसा है कि दोनों चुनाव तक कदम-कदम पर टकराएंगे. इतिहास गवाह है कि सपा कांग्रेस के मुसलमान वोट हथियाकर ही पनपी है.

बाबरी मस्जिद टूटने के बाद 1993 से मुसलमान कांग्रेस छोड़ सपा का दामन थामने लगे. मुलायम ने मौके की नजाकत को भांपते हुए कांशीराम की बसपा से हाथ मिला लिया. इन खांटी राजनेताओं ने पिछड़ों-दलितों और मुसलमानों का ऐसा दमदार गठजोड़ बनाया कि यह 1993 की हिंदुत्व लहर पर भारी पड़ा.

इसके बाद से मुलायम ने कांग्रेस को उत्तरप्रदेश में हाशिए पर पटक दिया. साल 2004 के लोकसभा चुनाव में सपा यूपी में 36 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बन गई. इसका असर यह हुआ कि यूपीए वन के दौरान कांग्रेस ने सपा के साथ खूब पींगे बढ़ाईं. परमाणु समझौते के मुद्दे पर जब वाम दलों ने मनमोहन सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया तब मुलायम ही उनके संकटमोचक बने.

मुलायम सिंह यादव ने यूपीए-2 का भी भरपूर साथ दिया था.

नतीजा यह हुआ कि अगले लोकसभा चुनाव यानी 2009 में मुलायम की पार्टी 22 सीटों पर आ सिमटी और कांग्रेस की 21 सीटें हो गईं. साल 2004 में कांग्रेस ने यूपी में केवल नौ लोकसभा सीटें जीती थीं. कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के मुसलमान और पिछड़े वोट बैंक में सेंध लगाकर अपना नंबर बढ़ाया था.

मुर्दा पड़ी कांग्रेस में जान फूंकना वैसी गलती करना है जैसी पंचतंत्र की कहानी में उन मूर्ख पंडितों ने की थी जिन्होंने शेर को जिंदा कर दिया था. हालांकि ऐसा नहीं कि अखिलेश को इस बात का कोई अंदाजा नहीं है. पिछले कुछ दिनों में उन्होंने हर कोशिश की है कि कांग्रेस को हाशिए पर ही समेटे रखे.

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दरअसल दिक्कत उन लोगों के साथ है चुनावों को महज आंकड़ों की खिचड़ी मानते हैं. राजनीति महज आंकड़ेबाजी नहीं है. राजनीति के इस चौगड़िए में एक भी गलत ग्रह पड़ा तो हुआ सब चौपट.

संघ का बयान और यूपी-बिहार के समीकरण

मसलन आरएसएस ने भाजपा को जिस तरह से आरक्षण पर एक और बयान का घाव दिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब जयपुर साहित्य उत्सव में आरएसएस के मनमोहन वैद्य का बयान सुना होगा तो कसमसा कर रह गए होंगे. वैद्य के बयान ने बिहार चुनाव के दौरान सरसंघचालक मोहन भागवत की याद दिला दी.

भागवत ने भी बिहार चुनाव के ऐन पहले अचानक आरक्षण खत्म करने का बयान दिया था. भागवत के इसी बयान की बदौलत नीतीश और लालू एक मंच पर आए जिससे बिहार चुनाव का रुख बदल गया. हालांकि बीजेपी और संघ ने बाद में सफाई देने की कोशिश की लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

भागवत और वैद्य के बयान में हम समानताएं देख सकते हैं. लेकिन यूपी और बिहार विधानसभा चुनाव में समानता ढूंढ़ना बेतुका है.

अखिलेश और कांग्रेस का आखिरी वक्त पर किया गया गठबंधन किसी भी मायने में नीतीश और लालू के महागठबंधन जैसा नहीं है. उत्तरप्रदेश के जातीय समीकरण भी बिहार से जुदा हैं.

लालू नीतीश जैसे खांटी नेताओं  की टीम ने  पूरी सफलता से संघ को आरक्षण विरोधी रंग में रंग डाला. इस एक बयान के दम पर उन्होंने बीजेपी को आरक्षण विरोधी साबित कर चुनाव का रुख बदल दिया. नतीजा यह हुआ कि छोटी से छोटी पिछड़ी जातियां और अनुसूचित जातियां भी सामाजिक न्याय का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक गठजोड़ के साथ हो लिए.

लेकिन अखिलेश की राजनीति ने इस तरह की सामाजिक न्याय की बात करने वाली राजनीति से हमेशा किनारा किया है. वह कांग्रेस और बीजेपी की तरह खुद को राष्ट्रीय स्तर पर मुख्यधारा की सोच वाला बता रहे हैं. इसके उलट मुलायम सिंह तमाम विरोध के बावजूद सामाजिक न्याय की नाव से नहीं उतरे.

अखिलेश नहीं मायावती को फायदा

अपनी छवि बदलने की कोशिश में अखिलेश ने गैर-यादव पिछड़ों के वोट गंवा दिए. 2014 लोकसभा चुनाव में यह तमाम वोट हिंदुत्व के पाले में आ गिरे. लेकिन अखिलेश और कांग्रेस संघ की इस भूल का फायदा उठाने की हालत में नहीं है. हां, अगर अखिलेश की जगह मुलायम होते तो वह किसी दूसरे से कहीं बेहतर इसका फायदा उठाते.

बीएसपी प्रमुख मायावती इन दिनों लगातार लंबे-लंबे प्रेस कॉफ्रेंस कर रही हैं

इन हालात में यदि कोई संघ की इस गलती का फायदा उठा सकता है तो वह  मायावती हैं. वैद्य के बयान के तुरंत बाद मायावती ने बीजेपी और संघ पर तीखा हमला बोला. बसपा प्रमुख ने दोनों को संविधान और दलित विरोधी करार दिया.

मायावती अच्छी तरह जानती हैं कि अपने 22 फीसदी दलित वोट बैंक के साथ मुसलमान और अति पिछड़ों का वोट मिलना क्या मायने रखता है. अगर ऐसा हुआ तो मायावती को सत्ता में आने से कोई ताकत नहीं रोक सकती. इस फॉर्मूले पर मायावती ने काम भी शुरू कर दिया है.

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फिलहाल उत्तर प्रदेश में किसी राजनीतिक गठबंधन का कोई मतलब नहीं है. यहां मुकाबला त्रिकोणीय है. यूपी के क्षत्रपों में नीतीश और लालू जैसी न तो राजनीतिक सूझबूझ है और न हालात को भांपने की गहरी समझ. नीतीश को उत्तर प्रदेश में गठबंधन की गांठों का एहसास बहुत पहले ही हो गया था. तब यहां चुनाव की कोई सुगबुगाहट भी नहीं थी.

नीतीश जानते हैं कि अगर केवल विज्ञापन और रणनीति से चुनाव जीते जाते तो मुख्यमंत्री कोई और होता. ये बात सीखने की बारी अब राहुल और अखिलेश की है.