मैं जब इस बार उत्तर प्रदेश के 2017 के इलेक्शन सीजन में घूम रही थी तो अलग-अलग शहरों में तो मतदाताओं की कुछ ऐसी मांगें सुनाई पड़ी जो बड़े-बड़े विकास के दावों और बातों के सपनों के महल में पायदान जैसी या स्वप्न-नगरी में रद्दी की दुकान जैसी लगी.
यहां मैं इलेक्शन को सीजन इसलिए कह रही हूं क्योंकि इसको किसी 'सेल' के सीजन की तरह देखा जा सकता है. यहां कहीं साड़ियां बंट रहीं हैं, कहीं गैस सिलेंडर बंट रहे हैं. कुछ सच में और कुछ लोगों की कल्पना में.
जो लोग वोट डालने निकले उनका कहना था कि वोट तो 'शौकीन' लोग डालते हैं. कुछ का कहना था कि जिनको शौक है, उन्हीं में उत्साह है वोट डालने का.
डेमोक्रेसी एक शौक
अलीगढ़ के मोहम्मद आबिद की बात सुनकर लगा की 'डेमोक्रेसी' एक शौक है. प्रजातंत्र को ऐसे भी देखा जा रहा है. डेमोक्रेसी की थ्योरी अपडेट हो चुकी थी मेरे लिए. मैंने लोगों से पूछा कि वोट क्यों करते हैं, तो कुछ लोग मेरे सवाल से आहत हो गए.
उन्हें लगा मैंने उनका कुछ छीन लिया है और बड़े जोर से नाक-भौं सिकोड़ते हुए बोले, 'अरे ये तो हमारा हक है! वोट क्यों नहीं देंगे?' इस तरह उन्होंने सवालों से मुझ पर ही पलटवार कर दिया. वो वोट क्यों न दें इसका जवाब मेरे पास भी नहीं था.
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अब हम लोगों के पास एक-एक सवाल थे और जवाब किसी के पास नहीं था. तब मुझे समझ में आया कि हमारे नेताओं के भाषण 'गैर-मानव' जानवरों की गलियों की खाक क्यों छानने लगे. अब हम इंसानों के पास न जवाब है न जवाबदेही.
वोट देने के मामले में मुझे एक त्याग की भावना दिखी. मैं इस भावना की तह तक जाना चाहती थी. बार-बार मुझे एक सीख याद आ रही थी, 'कर्म कर और फल की इच्छा मत कर.' लेकिन भला वोट ये सोच कर कैसे दिया जा सकता है
जिसको देखो वो यही कह रह था, 'हमारा काम है वोट देना, बाकी कुछ होना-हवाना तो है नहीं, ये आएं चाहे वो आएं.'
फिर भी मैं पूछती रही कि वोट क्यों दे रहे हैं, तो दो बड़ी बातें निकल कर आईं. एक तो ये की 'बदलाव' के लिए वोट है और दूसरी ये कि वोट दे रहे हैं क्योंकि लोग वोट मांग रहे हैं.
सबके पास है अपना-अपना प्रोडक्ट
अब मांग रहे हैं तो उदार भाव से देना ही है. इस बात से मुझे नेतागण उस सेल्स वाले की तरह लगे जिसका सामान किसी काम का न हो फिर भी उसकी दौड़-भाग और मेहनत देख कर हम दया भाव से 'मसाजर' खरीद ही लेते हैं.
ये जानते हुए भी की मसाजर 24 घंटे भी नही चलेगा, या तो प्लास्टिक पिघल जाएगा, या तार जल जाएगा. इसी तरह नेता भी कुछ बेच रहे हैं, 'तुम हमे वोट दो, हम तुम्हे श्मशान देंगे या फिर स्मार्टफोन देंगे'.
और कुछ तो सीधे-सीधे मांग रहे हैं, 'दलित और मुसलमान हमें वोट दो हम तुम्हें कुछ तो देंगे.'
शायद इनका प्रॉडक्ट अभी आइडिया के स्तर पर पहुंचा नहीं. बदलाव की बात जब लोगों से सुनी तो लगा कि लोग बदलाव शब्द को शाब्दिक तौर पर ले रहे हैं. इस बदलाव से बेहतरी का कोई लेना-देना नहीं है.
जैसे कुछ का कहना था कि माया सरकार में प्रशासन अच्छा रहता है, लेकिन इस बार मोदी को ट्राई करेंगे. इलाहाबाद के आदित्य श्रीवास्तव कांग्रेस के अनुग्रह नारायण की तारीफों के पुल बांधने, उनकी साफ छवि और ईमानदारी की मिसालें देने के बाद कहने लगे की इस बार वो बीजेपी को ट्राई करेंगे.
ऐसी बातें सुनकर मुझे लगा कि यह किसी दुकान में कपड़े ट्राई करने जैसा है. ऐसा लगा कि पोलिंग बूथ ट्रायल रूम बन गए.
हर तरफ छाया है राजनीतिक तंगी का माहौल
घरों मे काम करने वाली कुसुम ने कहा वो अपने पति से पूछ कर वोट देने जाएंगी. कुसुम को अपने पति पर भरोसा है कि उनका कहना है कि वो बारहवीं पास हैं.
कुसुम के पति ज्वाला सिंघ यादव विकलांग हैं. वो अपना वोट खुद जा कर नहीं डाल पाते हैं. पिछली बार एसपी समर्थक आए थे और उन्हें वोट दिलवाने ले गए थे. इस बार नहीं आए. शायद इस बार एसपी को ज्वाला सिंघ जैसे लोगों के वोट की जरूरत गठबंधन में महसूस नहीं हो रही.
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रेलवे लाइनों के किनारे बसे बस्तियों में रहने वाले जरूरतमंद लोगों की शिकायत थी कि आबादी बहुत बढ़ गई है और सड़कों पर गाड़ियां बहुत आ गई हैं. इस वजह से फ्लाइओवर बनना ठीक रहेगा जिसके नीचे से वो जाएं और ऊपर से गाड़ी वाले.
वो लोग ये बात सड़क हादसों के मद्देनजर कह रहे थे. उनका कहना है कि सड़क हादसों मे पैदल और साईकिल पर चलने वाले बहुत मारे जाते हैं और कई बार उनकी लाश भी नहीं मिलती क्योंकि पुलिस उनको लावारिस घोषित कर देती है
अब मैं सोच में पड़ गई कि जिनके परिवारजनों की लाशें तक नहीं मिल रही हैं, क्या वो फिर भी श्मशान लेना पसंद करेंगे? शायद 'हां', ये सोच कर कि कुछ नहीं से कुछ सही, लाश नहीं तो श्मशान ही सही.
उस श्मशान में लाश न भी मिलने पर अपने परिवारजनों का प्रतीकात्मक पुतला तो जलाया ही जा सकेगा, और राख गंगा में बहाने भर मिल ही जाएगी.
जहां एक तरफ लावारिश लाश और सड़क हादसे मुद्दा थे. वहीं एक ऐसा मुद्दा सुनाई पड़ा जिसकी कल्पना भव्य विकास की दृष्टि से मानना मुश्किल था. इलाहाबाद में घरों में काम करने वालों की बस्ती में जब नेता वोट मांगने आए तो उनका मुद्दा था 'मच्छर'.
अपनी मांग में कहा, 'हमें मच्छर बहुत काटते हैं. इन नाले-नालियों का कुछ करो जो हमारे बस्तियों में बहते हैं.' पार्टी वालों ने कहा, 'बहन सब हो जाएगा. चिंता मत करो.' लक्ष्मी ने कहा, 'हां, हमेशा की तरह.'
राजनीतिक तंगी का ये रूप इसी तरह मुझे उत्तर प्रदेश के इलेक्शन में हर दूसरी जगह नजदीक से देखने को मिल रहा है.