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मायावती का सबसे बड़ा सपना 'दलित-मुस्लिम' वोट हो अपना

'सोशल इंजीनिरिंग' के बाद उनकी निगाह अब 'दलित-मुस्लिम' गठजोड़ पर है.

Sitesh Dwivedi

कहते हैं राजनीति प्रतीकों की पगडंडी पर चलती है. राजनीतिक दल समय और

अवसर के अनुसार प्रतीकों को गढ़ने और बुनने का काम करते रहते हैं. राज्य की राजनीति में पहली बार कम आंकी जा रही मायावती अपनी राजनीति को रणनीतिक बदलाव दे रही हैं.


वहीं राम मंदिर आंदोलन की जमीन अयोध्या से मुस्लिम उम्मीदवार उतार कर मायावती नया प्रतीक गढ़ भी रही हैं. 'सोशल इंजीनिरिंग' के बाद उनकी निगाह अब 'दलित-मुस्लिम' गठजोड़ पर है.

उत्तर प्रदेश में कभी जातीय संतुलन साध सत्ता शीर्ष पर पहुची मायावती खामोशी के साथ इस नए समीकरण पर जमीनी संतुलन ठीक कर रहीं हैं.

सोशल इंजीनियरिंग पार्ट-2 

बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा कहते हैं, 'यह सोशल इंजीनियरिंग पार्ट-2 है, आप देखते जाइए, हम एक बार फिर कमरे में बैठे गणितज्ञों को चौकाने वाले हैं.' वे जोड़ते हैं, 'मीडिया या आंकड़ों की दुनिया ने हमें कभी सही नहीं आंका, इसलिए हम भी उनकी परवाह नहीं करते, हम परिणामवादी हैं परिणाम आने दीजिये फिर देखिएगा'.

मूर्तियों, स्मारकों के लिए चर्चित मायावती अब पुराने प्रतीक से छुटकारा पाने की राह पर हैं. वे कहती हैं, 'अब प्रदेश में बीएसपी सरकार आएगी तो नए स्मारक और संग्रहालय नहीं बनाए जाएंगे और ना ही नई मूर्तियां स्थापित की जाएंगी.' गौरतलब है कि इस्लाम में बुतपरस्ती हराम है.

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साथ ही मायावती एसपी से अपमानित अंसारी बंधुओं को पार्टी की सदस्यता और टिकट देकर, प्रतीक और संदेश की राजनीति को साधने का भी प्रयास कर रहीं हैं.

बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा का परिणामवादी होना महज आशावादिता नहीं है. 18 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले प्रदेश में 99 मुस्लिम प्रत्याशी दे कर मायावती ने मुस्लिमों की रहनुमा बनी एसपी के सामने एक बड़ी लकीर खींची है.

बरेली में मायावती

बीएसपी ने 87 दलितों को भी टिकट दिया है. जबकि, दशक भर पहले मायावती जिस समीकरण के जरिए सत्तासीन हुई थीं, उसके मद्देनजर उन्होंने 113 सवर्ण और 106 पिछड़े वर्ग के नेताओं को भी टिकट दिया है.

अपने सामाजिक समीकरण की ओर इशारा करते हुए मिश्रा कहते हैं, 'प्रदेश में जब एसपी पारिवारिक कलह से दो चार थी, उस समय बीएसपी के प्रत्याशी अपने चुनाव क्षेत्रों में प्रचार करने उतर चुके थे, हम बढ़त ले चुके हैं.'

हालांकि, आंकड़ों की आभासी दुनिया से इतर बसपा में मुस्लिम प्रचारकों की खासी कमी है. पार्टी के घोषित स्टार प्रचारकों में मुस्लिम नेताओ की संख्या महज तीन ही है. इनमें एक पार्टी महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी हैं दूसरे उनके बेटे अफजल. इसी तरह आगरा, अलीगढ़ पार्टी समन्वयक शमशुद्दीन राईन का नाम भी लिस्ट में है.

बीएसपी के सामने एक और चुनौती यह है की उनके मुस्लिम स्टार प्रचारक बुंदेलखंड से आते हैं, जबकि यहां मुस्लिमों की आबादी सबसे कम है. नसीमुद्दीन झांसी से हैं, जबकि राईन बांदा से आते हैं. ऐसे में प्रदेश के मुस्लिम समाज में इनकी स्वीकार्यता को लेकर भी संशय है.

बीएसपी को मुस्लिम-दलित गठजोड़ पर भरोसा 

हालांकि, बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा इसे मुद्दा ही नहीं मानते, वे कहते हैं, 'ज्यादा प्रचारक वे रखते हैं जिन्हें अपने काम को बताने की जरूरत हो, हमने सबसे ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार दिए हैं. हमारी नीयत बताने के लिए यह काफी है.'

मिश्र के मुताबिक, 'बीएसपी के प्रत्याशी अपने आप में प्रचारक हैं, ऐसे समय में जब एसपी में भतीजे को चाचा हरा रहे हैं. मुस्लिम अपना वोट एसपी को देकर खराब क्यों करेगा.'

अपनी बात पूरी करते हुए वे कहते हैं, 'देखते जाइए 'मुस्लिम और दलित' प्रदेश में नई राजनीतिक इबारत लिखने की राह पर निकल चुका है.'

बीजेपी के सवाल पर वे कहते हैं, 'वहां तो अभी टिकट बंटवारे को लेकर ही बात नहीं बन पा रही है. अभी तक पूरे टिकट तक बंट नहीं सके हैं. वे महज टीवी चैनल पर मुकाबले में हैं. जमीन पर हम हैं.'

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पश्चिम उत्तर प्रदेश में सियासी बयार का बदलता रुख बीएसपी के जमीनी होने का संकेत देने भी लगा है. मुकाबले से बाहर बताई जा रही बीएसपी से मुकाबले की बात अब सभी राजनीतिक दल मान रहे हैं.

गठबंधन की बैसाखी थाम इस क्षेत्र में किस्मत आजमा रही कांग्रेस की स्थिति असहज हो चली है. पार्टी को एसपी के कैडर का साथ नहीं मिल रहा. जबकि, 'पहले भाई फिर बीजेपी को कौन हराई' के तहत वोटिंग करने वाला अल्पसंख्यक समाज बीएसपी की ओर खिसकने लगा है.

अयोध्या में मुस्लिम उम्मीवार महज रूपक नहीं है. 2014 के लोकसभा चुनावों में मुंह की खाने के बाद बीएसपी ने जो नया रास्ता चुना है, यह उसकी बानगी है. दो वर्षों से दलित मुस्लिम गठजोड़ को जमीनी हकीकत में बदलने की तैयारी कर रहे बसपा के रणनीतिकार अपने प्रयोग को लेकर आश्वस्त हैं.

जमीनी चुनाव प्रचार में सबसे आगे

 

वैसे भी एसपी में मुलायम की विदाई के साथ ही मुसलमानों में संशय पैदा हो गया था. कांग्रेस से गठबंधन के बाद एसपी में विद्रोह के स्वरों से सशंकित अल्पसंख्यक समाज अब एसपी से छिटकने भी लगा है.

खुद मायावती अपनी हर रैली में मुसलमानों तो ताकीद करते हुए कहती हैं, 'एसपी आंतरिक बगावत से जूझ रही है. चाचा ही भतीजे को हरा रहा है. एसपी को वोट देना मतलब वोट को खराब करना है.’

वे बीजेपी का डर दिखाती है, तो अपने साथ खड़े कैडर के वोटों से जुड़ने पर उन्हें जिताऊ समीकरण का फार्मूला भी समझाती हैं. वहीं चुनाव में सबसे पहले उतर गयी बीएसपी को प्रचार में बढ़त मिलती दिखने लगी है.

पार्टी के ज्यादातर प्रत्यशी 'डोर टू डोर' प्रचार के बाद रैलियों के जरिए प्रचार के दूसरे दौर की तैयारी कर रहे हैं. पार्टी की 'भाईचारा कमेटियों' के समन्वयक हर विधान सभा क्षेत्र में कम से कम तीन सम्मलेन कराने का लक्ष्य पूरा कर चुके हैं.