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सेकुलर-निंदा कर रहे योगी विकास-पुरुष नरेंद्र मोदी के पीछे का चेहरा हैं

बीजेपी योगी को बहुत सोच-समझकर इस्तेमाल कर रही है. वे नरेंद्र मोदी की विकास-पुरुष की छवि के पीछे का असली चेहरा हैं.

Naveen Joshi

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने धर्मनिरपेक्षता को ‘आजादी के बाद का सबसे बड़ा झूठ’ करार देकर अपने विवादास्पद बयानों की सूची में एक और बयान जोड़ लिया है. उन्होंने यह बयान उत्तर प्रदेश से दूर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दिया. यह सिर्फ संयोग नहीं है.

छत्तीसगढ़ में अगले साल चुनाव होने हैं. विकास के बड़े-बड़े नारों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी को चुनाव जीतने के लिए उग्र हिंदुत्व का सहारा जरूर चाहिए, जिसके सबसे बड़े प्रतिनिधि अब आदित्यनाथ योगी बन गए हैं. अकारण नहीं कि भाजपा योगी को गुजरात और छत्तीसगढ़ में बार-बार भेज रही है. गुजरात में उनके कई दौरे, सभाएं और रोड-शो कराए जा चुके हैं. छत्तीसगढ़ के भी कुछ दौरे वे हाल में कर चुके हैं.


योगी ने सोमवार को रायपुर में कहा कि ‘मेरा मानना है कि आजादी के बाद भारत में सबसे बड़ा झूठ धर्मनिरपेक्ष शब्द है. उन लोगों को माफी मांगनी चाहिए जिन्होंने इस शब्द को जन्म दिया और जो यह शब्द इस्तेमाल करते हैं.’ उनके निशाने पर कांग्रेस समेत सब सेकुलर पार्टियां और इस देश का सेकुलर समुदाय है.

धर्मनिरपेक्ष और पंथनिरपेक्ष पर बहस

यह राजनैतिक निशानेबाजे करते हुए योगी कतई चिंता नहीं करते कि मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने संविधान की शपथ ली है. उनका बयान हमारे संविधान की भावना की खिल्ली उड़ाने वाला है. धर्मनिरपेक्षता उन सर्वोच्च संवैधानिक मूल्यों में शामिल है, भारत गणराज्य के जन-जन में जिनके प्रति आस्था एवं प्रतिबद्धता की अपेक्षा संविधान करता है.

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दो बातें यहां साफ कर देना जरूरी है. पहली यह कि संविधान सभा ने मूल रूप में जिस उद्देशिका को स्वीकार किया था उसमें सेकुलर या धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं था. उसे 1976 में 42वें संविधान संशोधन के रूप में जोड़ा गया. लेकिन यह भी स्पष्ट है कि सेकुलर शब्द मूल उद्देशिका में न होने के बावजूद संविधान निर्माताओं की मंशा भारतीय गणराज्य को सेकुलर बनाए रखने की थी, ऐसा संविधान विशेषज्ञों ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों में भी माना गया है.

दूसरी बात यह कि संविधान के मूल हिंदी अनुवाद में ‘सेकुलर’ शब्द के लिए ‘पंथनिरपेक्ष’ लिखा गया है, धर्मनिरपेक्ष नहीं. धर्मनिरपेक्षता बनाम पंथनिरपेक्षता पर अक्सर बहस भी होती रही है. दोनों शब्दों के आशय पर भी मतभेद रहे हैं. स्वयं हमारे संविधान में इन शब्दों के अर्थ स्पष्ट नहीं किए गए हैं. सुप्रीम कोर्ट भी एकाधिक बार यह व्यवस्था दे चुका है कि संविधान में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ तलाशने की बजाय संविधान निर्माताओं के मूल आशय को समझा जाना चाहिए.

1976 में संविधान की उद्देशिका में ‘सेकुलर’ शब्द जोड़े जाने से भी पहले 1974 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि यद्यपि संविधान में पंथनिरपेक्ष (सेकुलर) राज्य की बात नहीं कही गई है, फिर भी इस पर कोई संदेह नहीं है कि संविधान निर्माता इसी तरह का राज्य स्थापित करना चाहते थे. 1976 के संविधान संशोधन के बाद इसमें कोई संदेह रह भी नहीं गया.

मोहन भागवत से ज्यादा योगी असरदार

आरएसएस को लेकिन इसमें संदेह ही नहीं, घोर आपत्ति है. नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर सवार संघ अब अपने एजेंडे पर तेजी से काम कर रहा है. आज योगी उसे मोहन भागवत की तुलना में ज्यादा असरदार लगते हैं. संघ प्रमुख की बजाय एक सम्माननीय पीठ के महंत जनता में, खासकर हिंदुओं में ज्यादा स्वीकार होंगे, ऐसा उसका मानना बिल्कुल गलत भी नहीं.

योगी ने रायपुर में यह तर्क दिया कि हमारा राज्य पंथनिरपेक्ष तो हो सकता है, धर्मनिरपेक्ष बिल्कुल नहीं हो सकता. उनका तर्क है कि ‘सेकुलर’ शब्द यूरोपीय अवधारणा है, जहां राज्य को चर्च से अलग करने की बात कही गई. हमारे यहां ‘धर्मतंत्रवादी (थियोक्रेटिक) राज्य नहीं रहा, इसलिए सेकुलर शब्द हमारे लिए बेमानी है.’

लेकिन दिक्कत योगी की सेकुलर शब्द की व्याख्या में नहीं, उस मंतव्य से है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पुरानी सोच और मांग है. संघ न केवल ‘सेकुलर’ भावना का विरोधी है बल्कि राष्ट्र-ध्वज के तीन रंगों को भी खारिज करता है. संघ की राय में राष्ट्र-ध्वज में सिर्फ एक ही रंग होना चाहिए- भगवा. संघ तिरंगे की बजाय भगवा ध्वज ही फहराता रहा है. संविधान में सेकुलर शब्द उसे मंजूर नहीं. उसे सेकुलर देश नहीं, हिंदू राष्ट्र बनाना है.

'सेकुलर' और 'भक्त' की लड़ाई

सन 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्त्व में बीजेपी की भारी जीत के बाद ‘सेकुलर’ और ‘सेकुलरवादी’ संघ और बीजेपी के मुख्य निशाने पर रहे हैं. सोशल साइटों पर हिंदूवादी खेमे की ओर से वामपंथियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों के लिए ‘सेकुलर’ सबसे बड़ी गाली पिछले तीन वर्षों में ही बना, जैसे कि ‘भक्त’ जवाबी गाली बनकर उभरा. सेकुलर या धर्मनिरपेक्ष होना चूंकि हिंदूवादियों के खास निशाने पर आना हो गया, इसलिए सेकुलर खेमे ने अपने लिए नया शब्द ‘बहुलतावादी’ गढ़ लिया.

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योगी ने सेकुलर शब्द पर हमला पहली बार नहीं बोला है. वे उत्तर प्रदेश में अनेक अवसरों पर यह कहते रहे हैं कि सेकुलर होने का अर्थ हिंदुओं की धार्मिक मान्यताओं की निंदा करना और अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करना है. वे यह भी कहते रहे हैं कि राष्ट्रवादियों को साम्प्रदायिक कहना सेकुलरों का फैशन है. असल में अपने को सेकुलर कहने वाले साम्प्रदायिक हैं. ठीक यही बात आरएसएस के बड़े नेता कहते रहे हैं कि भारत में सेकुलरिज्म की अवधारण इतनी भ्रष्ट बना दी गई कि राष्ट्रवादियों को साम्प्रदायिक कहा जाने लगा, जबकि साम्प्रदायिक तो सेकुलर लोग हैं.

मोदी के बाद योगी की जरूरत

तथाकथित सेकुलर दलों ने वोट की राजनीति के लिए जिस तरह ‘तुष्टीकरण’ का सहारा लिया, उससे भी सेकुलर शब्द बदनाम हुआ. इसी वजह से मूलत: सेकुलर रहती आई बहुसंख्यक जनता में सेकुलर शब्द के प्रति नाराजगी पैदा हुई. नरेंद्र मोदी के उभार के पीछे यह नाराजगी भी एक बड़ा कारण बनी, जिसे उग्र हिंदुत्व ने खाद-पानी दिया. अब जबकि मोदी की लोकप्रियता ढल रही है, बीजेपी को सेकुलर शब्द के प्रति जनता की नाराजगी और उग्र हिंदुत्त्व को भड़काने की और भी जरूरत पड़ रही है. योगी इसके लिए बहुत उपयुक्त लगते हैं.

योगी के चंद महीने पुराने बयानों को याद करें तो यह धारणा और पुष्ट हो जाती है. जन्माष्टमी पर उनका बयान था कि ‘अगर मैं ईद पर लोगों को सड़क पर नमाज पढ़ने से नहीं रोक सकता तो पुलिस थानों में जन्माष्टमी मनाने से भी नहीं रोक सकता.’ बीते सावन में उनकी टिप्पणी थी कि ‘अगर कांवड़ यात्रा में लाउडस्पीकर नहीं बजेंगे तो कहां बजेंगे?’ अल्पसंख्यकों में भय व्याप्त होने के सवाल पर एक चैनल के कार्यक्रम में वे बोले थे- ‘अगर उस तरफ से दंगा नहीं होगा तो बहुसंख्यक भी हमला नहीं करेंगे.’

संकेत तो यही मिल रहे हैं कि बीजेपी योगी को बहुत सोच-समझकर इस्तेमाल कर रही है. वे नरेंद्र मोदी की विकास-पुरुष की छवि के पीछे का असली चेहरा हैं.