view all

यूपी निकाय चुनाव नतीजेः अब तो अल्ला-मियां भी भाजपाई हो गए हैं...

मोदी-शाह की जुगलबंदी और उनकी मेहनत उन्हें चली आ रही चुनावी परंपराओं से अलग कर देती है

Nazim Naqvi

निकाय चुनाव के नतीजों के बाद अपने दोस्त मिस्बाह फारूकी से बात हो रही थी, लखनवी मिजाज की बस यही दिक्कत है कि आप जो बात करना चाहते हैं बस वही नहीं कर पाते और हर बात हो जाती है.

लिहाजा मिस्बाह साहब से गुफ्तुगू का यह सिलसिला उत्तर-प्रदेश के निकाय चुनाव पर आकर टिक गया. लगभग ऐलान करते हुए कहने लगे, यहां बस एक ही पार्टी है, एक ही दल है, एक ही बल है, और वो है बीजेपी. मैंने कहा फारूकी साहब ये तो आपके नए तेवर हैं, आप भी... फ़ौरन तुनक के बोले, आप भी से आपका क्या मतलब है? मेरी क्या बिसात, अब तो अल्ला-मियां भी भाजपाई हो गए हैं.


जाहिर है कि इस जुमले के बाद हम दोनों ही थोड़ी देर के लिए कहकहों में डूब गए. लेकिन मिस्बाह दरअसल मथुरा के वार्ड 56 का जिक्र कर रहे थे जहां वोटों की गिनती ने सबकी सांसें थाम दी थीं. हुआ यूं कि बीजेपी की मीरा अग्रवाल ओर कांग्रेस उम्मीदवार को बराबर-बराबर (874) वोट मिले थे. इसके बाद लाटरी से फैसला करने का फैसला हुआ और जब पर्ची निकली तो वह बीजेपी के हक में थी. मुझे नजीर अकबराबादी का एक शेर बेसाख्ता याद आ गया –

क़त्ल पर बांध चुका वो बुत-ए-गुमराह मियां

देखें अब किसकी तरफ होते हैं अल्लाह मियां

2014 के चुनाव परिणामों के बाद मेरे एक वरिष्ठ पत्रकार सहयोगी ने जो कहा था वह कितना सच था इसका अंदाजा हर बीतते साल के साथ और गहरा होता जा रहा है. 2014 में हम एक न्यूज चैनल में कार्यरत थे, चुनाव परिणाम वाले दिन हम सभी केंद्रीय कक्ष में खड़े थे जहां एक दीवार पर कतार से टेलीविजन सेट लगे थे और हर बीतते मिनट के साथ बीजेपी के स्कोर में बढ़ोत्तरी हो रही थी. सेंचुरी, डबल सेंचुरी, ट्रिपल सेंचुरी.

मेरे पत्रकार मित्र ने स्वभावतः पास पड़े एक पन्ने पर मेरा स्केच बनाकर मुझे दिखाया. मैंने उनकी कला की दाद देते हुए कहा, इस पर अपने ऑटोग्राफ भी दे दीजिए. उन्होंने कागज मेरे हाथ से लेकर उस पर अपने हस्ताक्षर किए ओर साथ ही यह भी लिख दिया ‘आज देश बदला’, साथ ही तारीख भी अंकित कर दी 16 जून 2014.

ये भी पढ़ें: उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव नतीजेः कांग्रेस के लिए पैदा हुईं गुजरात में मुश्किलें

वह दिन और अब ये यू.पी. के निकाय चुनाव के परिणाम का दिन. इस बीच कितना पानी बह गया. देश तो बदल गया लेकिन जो नहीं बदले, उनकी दिलचस्पी हर बीतते चुनाव में बस यही रही कि देखते हैं, इस बार मतदाता का रुख क्या रहता है? और हर बार मतदाता पहले से कहीं ज्यादा स्पष्टता से उन्हें ये बताता रहा कि उसका रुख क्या है.

पर स्वाभाविक तौर पर मनुष्य (और यहां तो नेताओं की बात हो रही है) अपनी हार को जरा देर से स्वीकार करता है, जितने किंतु-परंतु उसे आते हैं उन सबका इस्तेमाल कर लेने के बाद, जब कोई चारा नहीं रह जाता, तब कहीं जाकर वो मानता है कि दरअसल मतदाता का यकीन उस पर से उठ चुका है.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ

इस देश की सबसे बड़ी व्यस्तता ही चुनाव-प्रचार है

इसकी सबसे ताजा मिसाल यह तर्क है कि पहली बार किसी निकाय चुनाव में प्रदेश का मुख्मंत्री हेलीकाप्टर से उड़-उड़ कर मोहल्ले-मोहल्ले गया और वोट मांगे. पहले कभी ऐसा नहीं हुआ. अब इन तर्क देने वालों को कौन समझाए कि पहले तो बहुत कुछ नहीं हुआ. और फिर इस प्रचार को गलत क्यों ठहराया जाए? इस देश की सबसे बड़ी व्यस्तता ही चुनाव-प्रचार है. पहले कभी इसे इतना सीरियसली नहीं लिया गया लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने इसकी गंभीरता को समझा, अपनाया और परिणाम सबके सामने हैं. जो मेहनत करेगा, माल-पुए पर हक भी उसी का होगा.

इस देश का सबसे बड़ा पर्व, चुनाव-पर्व है. पहले यह प्रादेशिक समझा जाता था लेकिन जबसे देश बदला है, यह केंद्रीय हो गया है. पहले चुनाव लड़वाने वाले पांच साल में एक बार मेहनत करते थे, अब एक चुनाव खत्म होते ही दूसरे चुनाव पर लग जाते हैं. चुनाव इस देश में उद्योग की शक्ल ले चुका है. विपक्ष कह रहा था कि यूपी निकाय चुनाव एक तरह से जीएसटी पर रेफरेंडम होंगे, तो फिर मान लीजिए हो गया रेफरेंडम. अब उसके सामने दिक्कत ये है कि कुछ दिन बाद गुजरात के नतीजों को किस चीज का रेफरेंडम कहा जाए.

ये भी पढे़ं: राहुल गांधी रजिस्टर एंट्री विवाद: कांग्रेस को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है

याद कीजिए, 14 के लोकसभा के बाद मोदी का दूसरा बड़ा पड़ाव था, बिहार. मोदी ने 30 से ज्यादा रैलियां की. नतीजे बहुत अच्छे नहीं रहे फिर भी मोदी दूसरों की तरह निराश नहीं हुए, अगले चुनावों में फिर उसी शिद्दत के साथ जुटे दिखाई दिए. गुजरात में भी मोदी-शाह जोड़ी एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है.

यह एक सेट-फार्मूला है कि तीन-चार टर्म सत्ता में रहने के बाद विरोधी लहर स्वतः चलने लगती है. कांग्रेस होती तो इस फार्मूले को ऐसे गले से लगा लेती कि हारने से पहले ही हार जाती. लेकिन यहीं पर मोदी-शाह की जुगलबंदी और उनकी मेहनत उन्हें चली आ रही चुनावी परंपराओं से अलग कर देती है.

नरेंद्र मोदी

अब चुनाव लड़ाने वालों की सत्ता है

यकीनन देश बदल चुका है. पहले चुनाव लड़ने वालों का बोलबाला रहता था, अब चुनाव लड़ाने वालों की सत्ता है. जिसके सबसे माहिर खिलाड़ी अमित शाह हैं. वह कहते हैं, ‘बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर मेरा काम है अपनी पार्टी की जीत के लिए हर कोशिश करना, मैं वही करता हूँ और पूरी मेहनत के साथ करता हूं. दूसरे दलों को भी ऐसा ही करना चाहिए.’

मुझे लगा कि उनका भावार्थ ये था कि अब बैठ के ना खाऊंगा न खाने दूंगा. जीतना है तो आइए मैदान में, उतनी ही मेहनत कीजिए, जितनी हम कर रहे हैं. यह तर्क अजीब नहीं होगा कि विपक्ष ये कहे कि मेहनत तो कर लें, लेकिन पैसा कहां है, इधर से उधर उड़ते फिरने के लिए.

अब जो नहीं है उसका रोना रोने से क्या फायदा, जो है उसी के साथ जो कर सकते हैं कीजिए. लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका को मजबूत कीजिए, इसके लिए मेहनत कीजिए क्योंकि न आपके पास कोई संगठन है न ही वैचारिक मंथन. मिस्बाह भाई सही कह रहे थे, यहां सब कुछ बीजेपी का है यहां तक कि अल्ला-मियां भी.

22 साल की हुकूमत के बाद चुनाव जीतने के लिए उतनी मेहनत कोई नहीं करता जितनी मोदी और अमित शाह करते हैं... साथ ही किसी को कुछ सोचने-समझने और संभलने का मौका ही नहीं देते.