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यूपी चुनाव 2017: आखिर, मायावती से ओबीसी झिझकता क्यों है?

ओबीसी के कुछ गिने-चुने उन्हीं नेताओं को महत्व मिला जो पहले से ही मायावती की गुडबुक में थे

Mahendra Narayan Singh Yadav

उत्तर प्रदेश में चल रहे विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के लिए कड़ी चुनौती बनकर उभर रही बहुजन समाज पार्टी मुख्य रूप से दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे सत्ता पाने की कोशिश कर रही है.

बीएसपी ने 106 ओबीसी उम्मीदवारों को टिकट दिया लेकिन कहीं भी मायावती उनको मुसलामानों की तरह रिझाती-लुभाती नहीं दिखतीं. यही हालत पिछड़े वर्ग के वोटरों की भी है, जो बीएसपी के सामाजिक न्याय की लड़ाई में सबसे आगे होने के बावजूद उसका समर्थन करने में कुछ हिचक रहे हैं.


आखिर ऐसा क्यों?

दरअसल, बहुजन समाज पार्टी के प्रति पिछड़े वर्ग की हिचक के कई कारण हैं. ऐतिहासिक कारण तो दलित नेतृत्व को स्वीकारने में असहजता की है, हालांकि यह भी सही है कि अब असहजता पहले जैसी तो नहीं रह गई है. वैसे ये असहजता भी मायावती को नेता मानने में ही ज्यादा रही है.

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कांशीराम के समय भी वही सामाजिक परिस्थितियों के बावजूद अधिक दिक्कत नहीं थी. कांशीराम के समय पिछड़े वर्ग के लोग अधिक व्यापक रूप से बीएसपी से जुड़ने लगे थे. बाद में, मायावती की विशेष और तानाशाही भरी कार्यशैली के कारण ओबीसी तबके को उनसे जुड़ने में कुछ असहजता लगने लगी.

लखनऊ गेस्ट कांड के बाद एसपी-बीएसपी के बीच विवाद गहराया

एसपी-बीएसपी मतभेद

ओबीसी वर्ग की मायावती से दूरी का एक बड़ा कारण तो एसपी-बीएसपी के 1993 के गठबंधन का 1995 में टूटना ही है. एसपी और बीएसपी के मतभेदों के कारण मोटे तौर पर पिछड़े वर्ग ने एसपी का साथ दिया तो दलितों ने बीएसपी का. इसके साथ ही मायावती के मन में भी ओबीसी के प्रति विरोध की भावना पैदा हुई जो किसी न किसी रूप में अब तक कायम है.

मायावती ओबीसी के सबसे ताकतवर तबके यादवों से तो दूरी रखती ही हैं, साथ ही बाकी ओबीसी जातियों के प्रति भी उनका रवैया बहुत उत्साहजनक नहीं रहता है. हालांकि, ये दोष उनकी कार्यशैली का भी रहता है जिसके शिकार दलित पिछड़े और सवर्ण भी होते हैं.

दलित तो इस बात से संतुष्ट होकर सब सह लेते हैं कि कम से कम नेतृत्व तो दलित है, लेकिन ओबीसी इस सबके कारण बीएसपी से एक दूरी बना लेते हैं.

इसमें कोई संदेह नहीं कि मायावती तीन स्तर का आरक्षण और प्रमोशन में आरक्षण जैसे उन मुद्दों को उठाने में सबसे आगे हैं जो ओबीसी को काफी पसंद है. यह भी सही है कि मूल रूप से ओबीसी समर्थक मानी जाने वाली समाजवादी पार्टी का रवैया इस बारे में उत्साहजनक नहीं है. इसके बाद भी ओबीसी बीएसपी का उस तरह से पहली प्राथमिकता के तौर पर समर्थन नहीं करता.

(फोटो: पीटीआई) ओबीसी जातियों के प्रति मायावती कभी भी  उत्साहित नहीं रहीं

मायावती का रवैया

ओबीसी की पहली प्राथमिकता बीएसपी न होने का एक कारण मायावती के शासन में ओबीसी, खासकर यादवों के प्रति एक दमनात्मक रवैया भी रहता है. लोगों की आपत्ति इस बात को लेकर ज्यादा रहती है कि मायावती के मुख्यमंत्री रहते ही ओबीसी को एकदम दबकर रहना पड़ता है, जबकि पिछले तीन-चार दशकों में राजनीतिक रूप से सशक्त हो चुके ओबीसी तबके को इस तरह से रहने की आदत नहीं है.

एक दूसरा बड़ा कारण यह भी है कि मायावती की सरकार में दलित ओबीसी झगड़े में ज्यादातर ओबीसी को ही दोषी मानकर कार्रवाई की जाती है. जाहिर है जैसा यूपी में होता है पुलिस किसी अकेले आदमी पर मुकदमा नहीं दर्ज करती उसके साथ पूरे परिवार और संगी साथी लोग भी होते हैं.

यादवों को तो खास तौर पर लगता है कि मायावती अपने शासन काल में उनका मनोबल तोड़ने की कोशिश करती हैं.

दूसरा कारण है कि, मायावती ओबीसी नेताओं को शक की निगाह से देखती हैं. उसके कारण भी हो सकते हैं. यादवों के पास मुलायम सिंह यादव जैसा नेता होता है, भले ही किसी खास कारण से उन्होंने बीएसपी के यादव प्रत्याशी को वोट दिया हो. इसी तरह से लोधी जाति के लोगों के पास कल्याण सिंह हैं. लगभग हर ओबीसी जाति का एक न एक बड़ा नेता है ही.

मायावती का आत्मविश्वास अपने वफादार वोटबैंक के कारण बना हुआ है

सवर्णों को प्राथमिकता

सरकार बनने पर मायावती की प्राथमिकता दलितों के बाद सवर्ण ही हो जाते हैं, ओबीसी नहीं, जबकि बीएसपी के निर्माण के समय ही 85 प्रतिशत बनाम 15 प्रतिशत और जिसकी जितनी संख्या भारी – उसकी उतनी भागीदारी का नारा दिया गया था.

इस बार के चुनावों में भी मुस्लिमों को एसपी-कांग्रेस गठबंधन की तरफ रोकने के लिए बीएसपी ने मुस्लिमों को 98 टिकट दे डाले. हालांकि दलितों को उन्होंने करीब उतने ही टिकट दिए जितनी सीटें उनके लिए आरक्षित थीं. ओबीसी तबके को केवल 106 ही टिकट दिए जबकि आबादी में बहुत कम होने के बावजूद सवर्णों को 113 टिकट बीएसपी से मिल गए.

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बीएसपी चाहती तो खासकर कुर्मियों को अपनी ओर लुभा सकती थी, लेकिन टिकट वितरण में इस तबके को तवज्जो न देकर उन्होंने ये मौका गंवा दिया.

इस समय बीएसपी में कोई बड़ा और प्रमुख कुर्मी नेता भी नहीं है जिसके नाम पर कुर्मी वोट बीएसपी को मिल सकें. कुर्मी वोट जेडीयू और नीतीश कुमार की तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे थे, लेकिन उनको उत्तर-प्रदेश में पैर जमाने का ही मौका नहीं मिल सका. ऐसी स्थिति में कुर्मी वोटों का बड़ा हिस्सा एसपी-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा की ओर जाता दिख रहा है.

यादवों और कुर्मियों के बाद ओबीसी में तीसरी प्रभावी जाति कुशवाहा, मौर्य सैनी आदि जातियों की है. कुशवाहा वोट बीएसपी को मिलते भी रहे हैं, लेकिन ओबीसी समुदाय पर ध्यान न देने की आदत के चलते बीएसपी ने इसे भी इस बार गंवा दिया.

मायावती ने कुशवाहा और लोधी जातियों को हमेशा से नजरअंदाज किया

कुशवाहा समुदाय में एक तो पूर्व स्वास्थ्य मंत्री बाबूसिंह कुशवाहा के साथ मायावती के व्यवहार को लेकर थी ही. रही-सही कसर बीजेपी ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग में लोध समुदाय के बजाय कुशवाहा और मौर्य समुदाय को महत्व देकर पूरी कर दी.

बहुजन समाज पार्टी में बड़ी हैसियत रखने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य का भी निकलना इसी समय हुआ, और उसके कुछ ही समय पहले केशव प्रसाद मौर्य को भाजपा प्रदेशाध्यक्ष बना ही चुकी थी.

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उधर बाबूसिंह कुशवाहा जन अधिकार मंच बनाकर मायावती के हाथों अपने अपमान का बदला लेने के लिए निकल ही पड़े थे. ऐसी स्थिति में कुशवाहा समाज का बसपा से चल रहा पुराना तालमेल भी मिट सा गया.

दलित विचारकों का योगदान

बहुजन समाज पार्टी से ओबीसी की दूरी बढ़ाने में बीएसपी समर्थकों और दलित विचारकों का भी बड़ा योगदान है. कुछ अति-उत्साही बीएसपी समर्थक तो हर समय सवर्णों से ज्यादा ओबीसी को जातिवाद और ब्राह्मणवाद का दोषी बताते रहते हैं. ओबीसी को हर समय ब्राह्मणवाद की पालकी ढोने वाला, दलितों पर अत्याचार करने वाला और अपराधी बताते रहते हैं.

चंद्रभान प्रसाद जैसे दलित चिंतक तो ओबीसी को उग्र-शूद्र तक लिखने लगे थे और दलित-सवर्ण गठजोड़ की पुरजोर वकालत करने लगे थे. शूद्र का ऐतिहासिक अर्थ जो भी रहा हो, लेकिन आम ओबीसी प्रचलित अर्थ में शूद्र को एससी ही मानता है और शूद्र या उग्र शूद्र कहे जाने पर अपमानित महसूस करता है.

मायावती की राजनीति काफी हद तक दलित चिंतकों की सोच से प्रेरित है

बीएसपी सरकार के पिछले कार्यकाल में ऐसी शब्दावली का प्रयोग जान-बूझकर बार-बार किया गया, जिससे ओबीसी के मन में ये ख्याल बना ही रहा कि बीएसपी आखिरकार उनकी पार्टी है नहीं.

बीएसपी को 2007 में मिले पूर्ण बहुमत का श्रेय भी दलितों और सवर्णों को ही दिया गया और सत्ता में प्रमुखता भी इन्हीं तबकों को मिली. ओबीसी की बड़ी आबादी ने बीएसपी को वोट दिया लेकिन बीएसपी नेतृत्व ने उसका कोई खास नोटिस नहीं लिया.

ओबीसी के कुछ गिने-चुने उन्हीं नेताओं को महत्व मिला जो पहले से ही मायावती की गुडबुक में थे. इस बार भी दलित-मुस्लिम एकता के नारे के कारण पहले से तय माना जा रहा है कि बीएसपी सरकार अगर बनती है तो इसका श्रेय दलितों और मुस्लिमों को ही मिलना है.

और ओबीसी के हाथ एक बार फिर से कुछ नहीं आने वाला.