डॉ. राही मासूम रज़ा ने पूर्वांचल की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति को देखते हुए इसे 'ऊंघता क्षेत्र' कहा था. लेकिन समय के साथ यहां कोई रज़ा के उपन्यास ‘टोपी शुक्ला' का नायक 'बलभद्र नारायण' नहीं रह गया है जो आदर्श के चक्कर में मिल रहे फायदे को गंवा दे.
क्या नेता, क्या कार्यकर्ता हर कोई खुली आंखों से अपने फायदे के लिए हर दांव आजमा रहा है. रजा ने जिनको देखकर पूर्वांचल को ऊंघता क्षेत्र कहा था आज उन्हीं की वजह से यहां के सियासी माहौल में गर्माहट भर गई है. फागुन की हवाओं के साथ पूर्वांचल में चुनावी पारा भी दिनोंदिन चढ़ रहा है.
दलगत और जातिगत आंकड़ों से इतर यहां जीत-हार के नतीजे में बड़ा फैक्टर अपनों का भितरघात का दिख रहा है. भितरघात को लेकर सभी दलों की कमोबेश स्थिति एक जैसी ही है. तीनों प्रमुख दल एसपी, बीएसपी और बीजेपी में असली-नकली, नए-पुराने को लेकर घमासान मचा हुआ है.
टिकट वितरण के बाद से ही पार्टी कार्यकर्ताओं के भीतर आग सुलग रही है. यह आग कहीं बगावत का तो कहीं भितरघात का रूप ले चुकी है. बात अगर बीजेपी की करें तो पूर्वांचल में बीजेपी की परेशानी की वजह बहनजी और ' यूपी के लड़के' से बढ़कर उनके अपने साबित हो रहे हैं.
बीजेपी की लड़ाई असली और नकली बीजेपी पर जा पहुंची
पार्टी के अंदर असली बीजेपी और नकली बीजेपी और नए बनाम पुराने को लेकर झगड़ा शीर्ष तक पहुंच गया है. यह कहना गलत नहीं होगा कि झगड़े ने गृहयुद्ध का रूप आख्तियार कर लिया है. 2014 चुनाव के बाद 'अच्छे दिन' की आस में बहुत नेताओं ने बीजेपी का दामन पकड़ लिया है.
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कई पूर्व विधायक भी इस फेहरिस्त में शामिल हुए. लिहाजा सभी विधानसभा क्षेत्रों में टिकट के दावेदारों में ज्यादा तादाद बीजेपी में ही है. बीजेपी आलाकमान ने सभी को आश्वस्त किया था कि सर्वे के हिसाब से टिकट बाटे जाएंगे. लेकिन दूसरे दल से दलबदल कर आए नेताओं और बदलते राजनीतिक समीकरण की वजह से पूर्वांचल में ये फॉर्मूला सिर्फ किताबी ही रह गया.
ऐसे भी नेता कमल के निशान को लेकर चुनाव मैदान में हैं, जो सवेरे बीजेपी में आये और शाम तक टिकट हासिल कर लिया. नाते-रिश्तेदारों को पीएम के फॉर्मूले को ठेंगा बताते हुए भी खूब टिकट दिए गए हैं. लिहाजा उम्मीद टूटने के साथ ही सब्र का बांध टूट गया और सीट दर सीट बागी और विभीषण की तादाद बढ़ गई.
आलम यह है कि वाराणसी से लेकर गोरखपुर तक बीजेपी की आधी ऊर्जा इन विभीषणों के भितरघात से निपटने में भी लग रही है. बीजेपी के जिस बॉस तक नेताओं की पहुंच तक नहीं थी, उन तक अब अध्यक्षजी खुद पहुंच रहे हैं. भले ही सात बार से विधायक रह चुके श्यामदेव राय चौधरी और फायरब्रांड सांसद योगी आदित्यनाथ को मना लेने की बात सामने आ रही है पर उनके समर्थक घूम-घूम कर बीजेपी की बैंड बजाने में जुटे हैं.
वाराणसी में श्यामदेव राय 'दादा' के समर्थक जहां 'दादा' के टिकट कटने को अपमान से जोड़कर चौराहे-चौराहे बगावती तेवर बनाए हुए है. वहीं योगी के हिन्दू युवा वाहिनी के पंद्रह नेता बीजेपी उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं. आलम यह है कि वाराणसी की तीन और गोरखपुर की आठ में से सात सीटों पर पार्टी अपनों के बगावत से जूझ रही है.
संभावना है कि कुछ पार्टी के बड़े नेताओं के आश्वासन पर भले ही मान जाएं. पर ज्यादातर दावेदार समर्थकों के साथ भीतर ही भीतर खिचड़ी पकाने में जुटे हुए हैं. वे पार्टी और घोषित उम्मीदवार को सबक सिखाने के लिए रणनीति बनाने में व्यस्त हैं.
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समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की स्थिति भी कुछ खास नहीं है. एसपी के पारिवारिक झगड़े का सबसे ज्यादा असर पूर्वांचल की सियासत पर ही पड़ा है. झगड़े के केंद्र में सबसे अधिक पूर्वांचल के ही नेता रहे. अंबिका चौधरी, ओमप्रकाश सिंह, शादाब फातिमा, नारद राय, विजय मिश्रा सभी इसी क्षेत्र से आते हैं.
सपा के बागी नेताओं की कहानी
गाजीपुर की जमानियां सीट से पूर्व मंत्री ओमप्रकाश सिंह को अपवाद मान लें तो पूर्वांचल की अधिकांश सीटों पर अखिलेश ने दिग्गज सपा नेताओं को नजरअंदाज कर उम्मीद से हटकर ही उम्मीदवारों को तरजीह दी है.
अखिलेश ने पूर्वांचल के 4 मौजूदा और दिग्गज विधायकों का टिकट काट दिया. अंबिका चौधरी, नारद राय, विजय मिश्रा और सुब्बा राम घरेलू झगडे़ में उलझ कर बेटिकट हो गए. टिकट कटते ही अंबिका चौधरी, नारद राय, विजय मिश्रा तो साइकिल छोड़ हाथी पर सवार हो गए. इनके अलावा इलाके के कई बड़े समाजवादी दिग्गज भी टिकट की उम्मीद लगाए बैठे थे.
लेकिन गठबंधन में उनकी सीट कांग्रेस के पाले में चले जाने से वो आलाकमान के फैसले से नाराज चल रहे हैं. कुछेक नेताओं ने तो पार्टी लाइन से बगावत करते हुए नामांकन भी कर दिया है. कुछ खुलकर बगावत तो नहीं कर रहे हैं लेकिन भीतर ही भीतर अपनी ताकत दिखाने में जुटे हुए हैं.
हाथी की कदमताल भी पूर्वांचल में संतुलित नहीं है...बीएसपी ने 2016 के शुरुआत में ही अपने उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया था...अपने उम्मीदवारों को आश्वस्त भी करती रही कि उम्मीदवारों के टिकट नहीं बदले जाएंगे. टिकट बदलने की खबरों का पार्टी के कॉर्डिनेटर भी खंडन करते रहे. लेकिन पूर्वांचल में टिकट नहीं बदलने का बीएसपी का वादा दलबदल कर पार्टी में आए नेताओं के आगमन के साथ ही बिखर गया.
बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने दूसरे दलों से आए अंबिका चौधरी, नारद राय, विजय मिश्रा, सिबगतुल्लाह अंसारी, मुख्तार अंसारी और उनके बेटे अब्बास अंसारी को न केवल अपनी पार्टी में लिया बल्कि इनको मनचाही सीट से टिकट भी दे दिया. एक रात में ही बाहुबली अंसारी बंधुओं के लिए मायावती ने तीन प्रत्याशियों के टिकट काट दिए.
मायावती ने मुख्तार अंसारी को मऊ सदर, सिब्बगतुल्लाह अंसारी को गाजीपुर की मुहम्मदाबाद और मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास अंसारी को घोसी से टिकट दे दिया. इन सीटों पर पहले से घोषित उम्मीदवार एक झटके से चलता कर दिए गए. कुछ नेताओं को तो पार्टी से भी बाहर का रास्ता भी दिखा दिया गया.
नाराज नेताओं ने तो अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में रोड शो और जनसभा कर अपनी ताकत भी दिखाई. लेकिन फिर भी गोटी लाल नहीं हुई. वे अब हाथी को रोकने में लगे हुए हैं.
पूर्वांचल की राजनीति में कांग्रेस की भूमिका को किसी लिहाज से अहम नहीं कहा जा सकता. कांग्रेस का किला यहां मलबे का ढेर हो चुका है...और उस मलबे का अधिकांश हिस्सा अपनी जरूरत के मुताबिक दूसरे राजनीतिक दलों ने जमा कर लिया है.
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यहां कांग्रेस के राजनीतिक वारिसों के पास सिवाय औपचारिक संघर्ष के अब कुछ बचा नहीं है. जिसे चुनावी राजनीति में बतौर उपलब्धि हासिल करें. यही वजह है कि इस महासमर में भी एसपी से गठबंधन के बावजूद कांग्रेस के अधिकांश उत्तराधिकारी यहां सिर्फ खानापूर्ति करते दिख रहे हैं.
भितरघात के संक्रमण से सभी दल समान रूप से पीड़ित हैं. आलम यह है कि रातभर जागकर पार्टी के बड़े नेता रूठों को मनाने में लगे हैं. किसी से सरकार बनने पर बड़ी जिम्मेदारी देने का वादा कर रहे हैं. तो कुछ को आश्वासन दे रहे हैं कि "आज मदद करो, हमने आपके लिए कुछ सोच रखा है". लेकिन आश्वासन और वादे फिलहाल बहुत कारगर होते नहीं दिख रहे हैं.
अखिलेश का कामकाज अभी काफी दूर है
पूर्वांचल की राजनीति समझने वाले ये जानते हैं कि मोदी के विकास और कामकाज से यहां के मुस्लिम-यादव और दलित वोटरों को कोई खास मतलब नहीं है, अखिलेश के विकास और कामकाज दलित और अगड़ी जातियों के वोटरों को दिल नहीं जीत सकता है.
वहीं मायावती का चुस्त-दुरुस्त कानून-व्यवस्था भी यादव जाति और अगड़ी जाति का पैमाना नहीं है लिहाजा सारा पैमाना जाति-धर्म, अगड़े-पिछड़े की पतली गली से ही निकलता है.
एकतरफ कांग्रेस-एसपी का गठबंधन और दूसरी तरफ अंसारी बंधुओं के बीएसपी में जाने से मुस्लिम वोट का बंटना तो यहां तय है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यहां धर्म के नाम पर हिंदू वोटों ध्रुवीकरण हो जाएगा. यहां मुस्लिम वोट के बंटने का सीधा अर्थ सभी दलों का गणित फेल होना है. तिकोने मुकाबले और मुस्लिम वोट में बंटवारे के बाद भितरघात पूर्वांचल में जीत-हार का अहम फैक्टर होगा.
आखिरी चरण में चुनाव होने के कारण बागी दावेदारों के पास अंजाम के विचार-विमर्श के लिए लंबा वक्त भी है...और वो यह भी जानते हैं कि कुछ नहीं हुआ तो आखिरी में भितरघात का तीर तो उनके पास मौजूद ही है. इतना तय है कि पूर्वांचल की अधिकाशं सीटों की केमिस्ट्री इन विभीषणों पर निर्भर करेगी.