मध्य यूपी में चुनाव के तीसरे चरण की धमक के बीच बहस का मुद्दा कुछ अलग है. इस चुनाव का मुद्दा ये नहीं है कि अपने मजबूत गढ़ पर यादव-परिवार का दबदबा कायम होगा या नहीं, बल्कि बहस का मुद्दा यह है कि यादव-परिवार में चले सत्ता-संघर्ष का चुनावी होड़ में उतरे उम्मीदवारों के भविष्य पर क्या असर पड़ेगा.
ताकतवर शिवपाल यादव भतीजे अखिलेश के हाथों पटखनी खाने के बाद धूल झाड़कर उठ खड़े तो हो गये हैं...लेकिन अब उनमें पहले सा बल नहीं दिख रहा.
ये भी पढ़ें: मोदी की याद्दाश्त ने मुलायम के अतीत की याद दिला दी
परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव इन दिनों बुझे-बुझे से हैं, चर्चा में आने से कन्नी काट रहे हैं. परिवार के कुछ अन्य सदस्य अब भी इस सच्चाई को समझने और पचाने में लगे हैं कि उठा-पटक के बाद पार्टी पर दूसरी पीढ़ी की बादशाहत कायम हो गई है.
असमंजस में यादव समुदाय
यादव समुदाय के लोग बीते दो दशक तक मुलायम सिंह यादव के कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे लेकिन इस बार कुछ असमंजस में दिखते हैं.
अखिलेश ने पार्टी में बगावत की और बहुत लोगों को लगा कि इससे पिता मुलायम सिंह यादव का अपमान हुआ है.
मेरठ के एक होटल में काम करने वाले राजेन्द्र यादव कहते हैं कि 'नेताजी को इज्जत के साथ रिटायर होने देना चाहिए था.
हमारी जाति में परिवार के मुखिया के साथ ऐसा सलूक नहीं किया जाता. वे बूढ़े हो रहे हैं. अखिलेश अपनी बारी का इंतजार कर सकते थे.'
राजेन्द्र जसवंतनगर के निवासी हैं और कहते हैं कि, 'फिर भी हमलोग अखिलेश के ही साथ हैं. हम समाजवादी पार्टी से बाहर के विकल्प के बारे में सोच भी नहीं सकते.'
हालांकि, ऐसे लोग बहुत कम मिले जो फिक्रमंद हों कि शिवपाल यादव का क्या होगा?
इलाके के कई लोगों से बात करने के बाद धारणा यही बनती है कि लोगों के मन में शिवपाल यादव की छवि एक मौकापरस्त नेता की है.
कुछ को तो यह भी लगता है कि शिवपाल यादव गुपचुप बीजेपी से हाथ मिला चुके हैं.
वे समाजवादी पार्टी के मजबूत किले जसवंतनगर से प्रत्याशी हैं.
घमासान का असर
देवेंद्र यादव कहते हैं 'जो लोग अपराध करते हैं, वे शिवपाल यादव को याद करते हैं. शिवपाल उनकी तरफदारी करते हुए दखल देते हैं और ठीक इसी कारण पार्टी अपराधियों को संरक्षण देने के लिए बदनाम हुई है.'
देवेंद्र ड्राइवर हैं और कहते हैं कि मैं भी यादव-परिवार के दूर-दराज के रिश्तेदारों में ही हूं और मुझे भी इटावा के बाकी यादव परिवारों की तरह मुलायम के घरेलू आयोजनों में आने का न्योता मिलता रहता है.
बहरहाल, ऐसा नहीं लगता कि मुलायम सिंह यादव के परिवार में मचे घमासान का मध्य यूपी की 69 सीटों पर होने वाली वोटिंग पर कोई असर पड़ेगा.
मध्य यूपी में होने वाली वोटिंग का यह इलाका 12 जिलों में फैला है. 2012 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने तकरीबन 80 फीसद के स्ट्राइक रेट के साथ 55 सीटों पर कब्जा जमाया था.
ये भी पढ़ें: मटमैली रायबरेली में राहुल, शाहरुख़ और गो टू हेल
बीएसपी को उम्मीद दलित-मुस्लिम वोट-बैंक से है. उसे यह भी उम्मीद है कि अगड़ी जाति के कुछ वोट उसकी झोली में गिरेंगे. पिछली बार 44 सीटों पर बीएसपी दूसरे नंबर पर थी और किसी-किसी विधानसभा सीट पर हार-जीत का फैसला बहुत कम वोटों के अन्तर से हुआ.
बहुत कुछ इस बात पर निर्भर है कि इलाके के मतदाता के मन में अखिलेश की उपलब्धियों को लेकर क्या धारणा बनी है.
इसी से तय होगा कि सीटों पर जीत दर्ज करने के मामले में अखिलेश की पार्टी कितना आगे या पीछे साबित होती है. इस मोर्चे पर अखिलेश कमजोर नहीं जान पड़ते.
मलाल का भाव
वरिष्ठ पत्रकार हैदर नकवी का कहना है कि, 'अखिलेश का कामकाज अच्छा रहा है, इसको लेकर शक नहीं किया जा सकता.' ज्यादातर मोर्चों पर उनकी सरकार के भीतर जवाबदेही का भाव झलका है सड़कें बनी हैं. अखिलेश ने गांवों और शहरों में बिजली पहुंचाने पर खास जोर दिया है.
दरअसल, कुछ लोगों से बात कर के ये भी लगा कि मुलायम के खिलाफ बगावत करने पर यादव जाति के लोगों में अखिलेश को लेकर कुछ मलाल का भाव अगर है भी तो वह उनके अच्छे कामकाज से खत्म हो जाएगा.
पारिवारिक कलह के नकारात्मक असर को देख यादव-परिवार चौकन्ना हो गया है और अपनी एकजुटता दिखाने में लगा है. अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव कन्नौज से सांसद हैं और दो दिन पहले वे परिवार की छोटी बहू अपर्णा यादव के लिए चुनाव-प्रचार करती दिखीं.
अपर्णा यादव लखनऊ कैंट से चुनाव लड़ रही हैं. अपर्णा यादव, मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी साधना के लड़के प्रतीक की पत्नी हैं. माना जाता है कि यादव-परिवार के इस गुट को शिवपाल की शह हासिल है.
जसवंतनगर में मुलायम ने भाई शिवपाल यादव के लिए प्रचार किया, पार्टी के लिए वोट मांगे और कांग्रेस के साथ हुए गठबंधन का कोई जिक्र नहीं छेड़ा.
ये भी पढ़ें: यूपी चुनाव कोई भी जीते, बुंदेलखंड तो हारता ही है
शिवपाल सिंह यादव कांग्रेस से गठबंधन के खिलाफ थे. शिवपाल अब भी अखिलेश के सलूक से नाराज जान पड़ते हैं. पहले तो उन्होंने यह भी कह दिया था कि चुनाव बाद वे नई पार्टी बनायेंगे.
अपने घरेलू मैदान पर समाजवादी पार्टी को सिर्फ सीटें ही नहीं जीतनी बल्कि छवि पर लगे दाग-धब्बे को हटाकर नये सिरे चमकाना भी है.
तीसरे चरण के चुनाव के नतीजों से साफ होगा कि यादव-समुदाय ने अखिलेश को उनके किये के लिए माफ किया भी या नहीं.