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देवबंद से पहली बार नहीं जीता है हिंदू, हारता रहा है मुसलमान उम्मीदवार

यह मुस्लिम मतदाताओं को शेष भारतीय मतदाताओं से अलग और खास समझने वाली सोच है

Chandan Srivastawa

जब युद्ध होता है तो पहली मौत सच की होती है- 'आज से ठीक सौ साल पहले यह बात एक अमेरिकी सीनेटर एच वॉरेन जॉनसन ने कही थी.'

20वीं सदी के दूसरे दशक में वे सात सालों तक कैलिफोर्निया के गवर्नर रहे फिर रिपब्लिकन पार्टी की तरफ से 1917 में अमेरिकी सीनेट में पहुंचे. उनके बारे में एक अजीब सी बात यह भी है कि जब वे सीनेटर बने तब पहला विश्वयुद्ध चल रहा था.


लगातर 30 सालों तक सीनेटर बने रहने के बाद जिस दिन उनकी मौत हुई ठीक उस रोज यानी 6 अगस्त 1945 को अमेरिका ने जापान के शहर हिरोशिमा पर एटमी बम गिराया था.

जाहिर है, जॉनसन ने दो-दो आलमी जंग को करीब से देखा था सो वे अपने अनुभव के आधार पर यह कह पाने की हालत में थे कि युद्ध 'सच' को अपना पहला शिकार बनाता है.

चुनाव भी एक युद्ध ही है. सत्ता का फैसला युद्ध भी करता है और चुनाव भी. युद्ध सचमुच के हथियारों से लड़े जाते हैं जबकि चुनाव में हथियार की जगह विचार ले लेते हैं. इस नजरिए से देखें तो अमेरिकी सीनेटर की बात यूपी के देवबंद विधानसभा क्षेत्र के चुनावी नतीजों को लेकर चल रही चर्चाओं पर एकदम ठीक बैठती है.

आईए देखते हैं कि देवबंद के चुनाव-परिणाम को लेकर दरअसल कहा क्या जा रहा है.

 हंगामा है क्यों बरपा

यूपी में बीजेपी की जीत को हर विश्लेषक हैरतअंगेज कह रहा है. इस जीत ने सारे पूर्वानुमानों को ध्वस्त किया है. यूपी में बीजेपी की जीत इतनी बड़ी और गहरी है कि इससे सूबे में बीजेपी का 14 साल का वनवास ही खत्म नहीं हुआ, यह भी साफ हो गया है कि केंद्र में आने वाले कम से कम दो चुनावों तक सत्ता की 'अयोध्या' बीजेपी की ही रहने वाली है.

हैरानी के इसी गाढ़े रंग में डूबते-उतरते होली से ठीक एक दिन पहले अंग्रेजी के मशहूर अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने अपने शीर्षक में पूछा कि 'इस्लामी पुनरुत्थान के गढ़ देवबंद में आखिर बीजेपी की झोली में वोट कुछ इस तरह क्यों गिरे जैसे आंधी में पके हुए आम गिरते हैं?'

एक्सप्रेस में छपी खबर, बड़ी हैरानी से बता रही थी कि देवबंद में तो 65 फीसदr आबादी मुसलमानों की है और यहीं पर 19वीं सदी के आखिर के दशकों से चला आ रहा वह मदरसा भी है जिसने भारत में मुसलमानों को नई पहचान दी है.

खबर का अंदाज सवालिया था कि ऐसा क्या हुआ कि जहां मुसलमानी पहचान का विचार सबसे मजबूत है और मुस्लिम आबादी भी 50 फीसद से ज्यादा है, वहां बीजेपी के प्रत्याशी की जीत हुई?

जवाब के रूप में खबर में सुझाया गया कि, देवबंदी मदरसे के लोग समाजवादी पार्टी की सरकार से नाराज थे. मदरसे में पढ़ने के लिए ट्रेन से जाते वक्त मुजफ्फरनगर के आस-पास कई दफे मदरसे के छात्रों के साथ सांप्रदायिक तत्वों ने अपमानजनक बरताव किया, उनकी दाढ़ी और टोपी को निशाना बनाया गया.

देवबंदी मदरसे ने इसे इस्लामी पहचान पर सांगठनिक हमले की तरह देखा और एसपी की सरकार से नाराज हुए कि उसने हिफाजत के इंतजाम नहीं किए.

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लेकिन, खबर की मंशा कुछ और भी बताने की थी. यह 'कुछ और' पहली वजह की तुलना में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है. देवबंद में हुई बीजेपी की जीत के बारे में खबर के आखिरी हिस्से में कहा गया कि, 'इलाके में मदरसे के कारण इस्लामी विचारधारा बड़ी मजबूत है और इस विचारधारा के खिलाफ हिंदुओं में गोलबंदी हुई.'

बात की तफसील के तौर पर कहा गया कि, राष्ट्रप्रेम को लेकर देवबंदी मदरसे पर पहले भी सवाल उठे हैं. यह मदरसा मुसलमानों के इस्लामीकरण पर कुछ ज्यादा ही जोर देता है. साथ ही मुजफ्फरनगर के दंगे के बाद इलाके में हिंदू और मुसलमानों के बीच भेद की खाई चौड़ी हुई है.

इतना पढ़ने के बाद पाठक खुद ही निष्कर्ष निकाल लेगा कि अखिलेश सरकार से नाराजगी के कारण मुस्लिम वोट एसपी-बीएसपी में बंट गये और इस्लामी पहचान पर जोर देने वाली विचारधारा के खिलाफ हिन्दुओं की गोलबंदी के कारण बीजेपी को जीत मिली.

हंगामे की एक और सूरत 

अगर आप देवबंद में हुई बीजेपी की जीत को हैरतअंगेज मानते हैं और ऊपर जिस खबर का जिक्र आया है उसकी व्याख्या से सहमत हैं तो फिर ठहरिए. देवबंदी में हुई बीजेपी की जीत के बारे में आपको एक इंटरव्यू भी पढ़ना चाहिए, शायद यह इंटरव्यू आपको और ज्यादा हैरान करे.

अंग्रेजी वेबसाइट रेडिफ डॉट-कॉम में छपी ये खबर पढ़िए.  यह इंटरव्यू देवबंद की सीट से जीत हासिल करने वाले बीजेपी के विजयी प्रत्याशी ब्रृजेश सिंह का है. जैसा कि इसके शीर्षक से ही जाहिर है, इसमें भी यही गुत्थी सुलझायी गई है कि आखिर बीजेपी ने उस सीट पर कैसे जीत दर्ज की जहां मुस्लिम मतदाता 50 फीसद से ज्यादा हैं?

इसमें संवाददाता देवबंद से विधायक चुने गये ब्रृजेश सिंह से सवाल पूछता है कि, 'जिस सीट पर आपने जीत हासिल की है वहां मुसलमानों की आबादी 70 फीसद से ज्यादा है और मुसलमान वोटर तकरीबन 50 प्रतिशत है. अमूमन माना जाता है कि मुसलमान बीजेपी को वोट नहीं करते तो भी आपने दो मुस्लिम उम्मीदवारों, बीएसपी के माजिद अली और एसपी की टिकट से विधायक चुने गये माविया अली को हराया. आखिर कौन-सी बात आपके पक्ष में गई?'

बीजेपी के विजयी प्रत्याशी का जवाब था, 'देवबंद के लोगों ने एसपी सरकार के गुंडाराज के खिलाफ और मोदी जी के नेतृत्व में केंद्र सरकार के कामकाज और नोटबंदी के पक्ष में वोट किया है.'

वे यह भी कहते हैं कि इस सीट पर पढ़ी-लिखी मुस्लिम महिलाओं ने तीन तलाक के मुद्दे पर मोदी जी के रुख को देखते हुए बीजेपी को वोट किया है.

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बृजेश सिंह का इशारा बड़ा साफ है कि इस्लामी पुनरुत्थान के गढ़ देवबंद में मुस्लिम आबादी के बीच आधुनिकता की बयार बह रही है. ये भी कि देवबंद में रहने वालीं पढ़ी-लिखी मुस्लिम महिलाएं अपनी धार्मिक पहचान की घेरेबंदी को तोड़कर उस पार्टी को वोट कर रही हैं जो उन्हें हक की लड़ाई में अपना साथ देता लग रहा है.

क्या देवबंद का चुनाव परिणाम सचमुच हैरतअंगेज है?

ऊपर जिन दो खबरों का जिक्र आया है उनमें एक बात समान है और एक बात एकदम ही अलग. दोनों ही खबरों की जमीन एक है. दोनों में खबरनवीस इस बात पर हैरान है कि मुस्लिम बहुल सीट पर आखिर बीजेपी को जीत कैसे मिली? इस हैरत की व्याख्या दोनों खबरों में जुदा-जुदा है.

एक में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को प्रमुख कारण बताया गया है तो दूसरे में मोदी सरकार की ‘सबका साथ-सबका विकास’ की नीति को. इसी कारण दूसरी खबर में देवबंद की मुस्लिम महिलाओं के कुछ वोट बीजेपी को मिलने की बात कही गई है.

लेकिन क्या सचमुच देवबंद सीट के चुनावी नतीजे हैरानी के काबिल हैं? जवाब के लिए जरा इन मोटे-मोटे तथ्यों पर गौर कीजिए.

पहली बात तो यह कि देवबंद की सीट पर अब तक 18 बार चुनाव हुए हैं. (यूपी की 16वीं विधानसभा के लिए इस सीट से समाजवादी पार्टी के राजेन्द्र सिंह राणा चुने गये और 2015 के अक्तूबर में उनकी मृत्यु के बाद इस सीट पर उपचुनाव हुए तो 2016 की फरवरी में कांग्रेस प्रत्याशी माविया अली विजयी हुए).

माविया अली से पहले देवबंद की सीट से सिर्फ एक बार किसी मुस्लिम प्रत्याशी को जीत हासिल हुई है.

यूपी की 7वीं विधानसभा के लिए देवबंद की सीट से जनता पार्टी के प्रत्याशी मोहम्मद उस्मान 1977 में विधायक बने थे. मतलब ये कि देवबंद की सीट पर 18 दफे हुए चुनाव में 16 दफे किसी ना किसी दल के हिन्दू प्रत्याशी को जीत मिली.

यह तथ्य बताता है कि मुस्लिम बहुल देवबंद की सीट पर किसी मुस्लिम का जीतना हैरतअंगेज हो सकता है जबकि हिन्दू उम्मीदवार का जीतना एक नियम की तरह चला आ रहा है.

दूसरी बात यह कि अगर देवबंद की सीट के चुनावी इतिहास को नजर में रखें तो इस सीट से बीजेपी के उम्मीदवार का जीतना भी कतई हैरतअंगेज नहीं है. बृजेश सिंह से पहले देवबंद की सीट से बीजेपी के दो उम्मीदवारों को जीत हासिल हुई है.

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यूपी की 12 वीं विधानसभा के लिए इस सीट से शशिबाला पुंडीर को जीत हासिल हुई थी जबकि सुखबीर सिंह पुंडीर बीजेपी प्रत्याशी के रूप में यूपी की 13वीं विधानसभा के लिए विजयी रहे. वे पूरे पांच साल (1996 से 2002) तक इस सीट से पार्टी के प्रतिनिधि रहे.

तीसरी बात यह कि देवबंद की सीट से बृजेश सिंह की जीत इतने ज्यादा वोटों से नहीं हुई है कि उसे शशिबाला पुंडीर और सुखबीर सिंह पुंडीर को मिली जीत की तुलना में हैरतअंगेज कहा जा सके.

शशिबाला पुंडीर को इस सीट पर कुल 49.91 फीसद वोट हासिल हुए थे तो सुखबीर सिंह पुंडीर को 40.07 फीसद. बृजेश सिंह को भी 50 फीसद से थोड़े ही कम वोट हासिल हुए हैं. मतलब यह कि देवबंद की सीट से अबतक बीजेपी को तीन दफे जीत हासिल हुई है और तीनों दफे बीजेपी के प्रत्याशी को 40 से 50 फीसद वोट हासिल हुए.

चौथी, और सबसे अहम बात यह कि देवबंद की सीट पर मुस्लिम वोटर की तादाद अच्छी-खासी तो है लेकिन इतनी ज्यादा नहीं कि उसे झट से 50 फीसद बता दिया जाय. मतलब देवबंद में मुस्लिम वोटर इतनी तादाद में नहीं हैं कि बगैर किसी अन्य जाति या समुदाय के वोटर के साथ के अकेले अपने दम पर किसी प्रत्याशी को जीत दिला दें.

चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक देवबंद की विधानसभा सीट पर तकरीबन साढ़े 3 लाख (3,52,340) मतदाता हैं. इसमें 30 फीसद तादाद अनुसूचित जाति के मतदाताओं की है, 27 फीसद मुस्लिम वोटर की और ब्राम्हण, ठाकुर, गुज्जर जैसी रसूखदार जाति के मतदाता 26 फीसद हैं.

सीट से विजयी प्रत्याशी बृजेश सिंह को लगभग 1 लाख 2 हजार वोट मिले हैं. यह एसपी और बीएसपी की ओर से खड़े मुस्लिम प्रत्याशियों के कुल वोटों के योग से 26 हजार ज्यादा है.

चूंकि देवबंद की सीट पर हिन्दू मतदाताओं की संख्या तकरीबन पौने दो लाख है. इसलिए न तो यह कहा जा सकता है कि इस्लामी विचारधारा का गढ़ समझकर हिन्दू वोटों का यहां ध्रुवीकरण हुआ और ज्यादातर हिन्दुओं के वोट बीजेपी को प्रत्याशी को मिले.

और न ही इस बात का पुख्ता दावा किया जा सकता है कि पढ़ी-लिखी मुस्लिम महिलाओं ने तीन तलाक के मुद्दे पर बीजेपी को समर्थन दिया. देवबंद को लेकर ज्यादातर विश्लेषणों में जब मुस्लिम मतदाताओं की संख्या बतायी जा रही है तो सहारा जनगणना के आंकड़ों का लिया जा रहा है.

देवबंद नगर- नगरपालिका क्षेत्र के जनसंख्या में अलग-अलग धर्मों के लोगों का जो अनुपात है उसे ही पूरे देवबंद विधानसभा क्षेत्र (इसमें देवबंद शहर सहित पांच इलाके हैं) के लिए भी सही मानकर पेश किया जा रहा है.

देवबंद सिर्फ मदरसे का नाम नहीं है

देवबंद की सीट के चुनावी इतिहास से जुड़े ये तथ्य अगर कुछ कहते हैं तो बस यही कि इस सीट से बीजेपी प्रत्याशी की जीत हैरतअंगेज कतई नहीं है. सीट पर वोटिंग सामान्य ढर्रे पर हुई और मसला एंटी-कंबेंसी का हावी रहा ना कि हिन्दू-मुसलमान का.

देवबंद के चुनाव-परिणाम अचंभित करने वाले लग सकते हैं बशर्ते आप उसमें अपनी तरफ से यह धारणा जोड़ दें कि इस सीट पर मुसलमानों की तादाद बहुत ज्यादा है.

या फिर ये कि वहां दशकों से देवबंदी मदरसा कायम है. साथ ही यह भी सोच लें कि देवबंद के सारे मुसलमान देवबंदी मदरसे के फतवे के अनुकूल चलते हैं.

यह मुस्लिम मतदाताओं को शेष भारतीय मतदाताओं से अलग और खास समझने वाली सोच है. ऐसी सोच जो मुसलमानों को पराया मानकर चलती है. दरअसल देवबंद के चुनावी नतीजे इस सोच के खिलाफ हैं.