चार साल बीतने के बाद पश्चिमी यूपी के जाट और मुसलमानों ने अपने अतीत को मंजूर कर लिया है. उन्हें अपने अतीत के अंधे कुएं में डूबने से इनकार है.
अपने अतीत, अपने इतिहास को स्वीकार करने का मतलब उसमें डूब जाना नहीं होता है. यह बात पचास साल पहले अपने एक झकझोर देने वाले लेख ‘द फायर नेक्स्ट टाइम’ में जेम्स बॉल्डविन ने लिखी थी.
पश्चिम यूपी के जाट और मुसलमानों के सामने उनके हाल का भयावह अतीत आन खड़ा है, लेकिन इस अतीत में डूब जाने का विकल्प वे नहीं चुन सकते.
सांप्रदायिकता ने जलाए खलिहान और रिश्तों की फसल
चार साल पहले, सांप्रदायिकता की तेज आंधी उठी. इस आंधी ने हरे-भरे खेत-खलिहानों में गुंथे-बिंधे उनके रिश्तों को तार-तार कर दिया.
जाट और मुसलमान इस आंधी के आगे असहाय थे. जो लोग बरसों बरस से साथ-साथ रहते आए थे वे एकबारगी एक-दूसरे को शक की नजर से देखने लगे.
जिंदगी चिन्ता के भंवर जाल में उलझ गई. एकबारगी कुछ भी हो सकता था. 'शांति की बात', मुकाबले पर अड़े दो दलों के बीच जैसे फुटबॉल का खेल बनकर रह गई थी.
एक समय तक बड़ा भयानक खेल चला. फिर, अचानक थम गया. चार साल गुजरने के बाद दोनों ने अपने इस अतीत से पटरी बैठा लिया है.
मान लिया है कि यह अतीत दागदार हो चुका है. लेकिन दोनों ने अपने को इस खूनी इतिहास में डूबने से बचा लिया है.
सब भूलने के बाद भी हो रहा है ध्रुवीकरण
बागपत के भीड़ भरे बाजार का एक दड़बानुमा ऑफिस! ऑफिस के खुले दरवाजे से बाजार का शोर-गुल अंदर तक आ रहा है.
इस ऑफिस में बैठा एक तुंदियल मुफ्ती कहता है कि जाटों और मुसलमानों ने अपने पाप भुला दिए हैं.
अपनी पिछली गलतियों को बिसरा दिया है और अब अमन-चैन से रहते हैं. तो फिर ध्रुवीकरण कैसे हो रहा है?
धर्म की जमीन...आखिर मन पर बंटवारे की लकीर क्यों खींच रही है? 'सब बकवास है'- यह कहते हुए मुफ्ती का चेहरा एकदम सख्त हो जाता है, मानो बीते चार साल की चिन्ता और दुश्वारी ने उसके चेहरे पर हमेशा के लिए ठिकाना ढूंढ़ लिया हो.
मुफ्ती वजाहत कासिम ने अपने जिस्म पर मजहबी तकरीर करने वालों जैसा सफेद चोला पहन रखा है, तो फिर उसके मुंह से भगवा लकीर की सियासत करने वालों जैसा तर्क क्यों निकल रहा है?
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एक दावा यह भी था कि उसने राजनाथ सिंह और इंद्रेश कुमार की नजदीकी में रहते हुए काम किया है.
बेसिर-पैर की बातों पर भी सब सहमत
अचरज कीजिए कि सांप्रदायिक सौहार्द्र की उसकी बेसिर-पैर की लंबी बातों पर दबंगई की इस बस्ती में गौर फरमाने वाले बहुत हैं, यहां तक कि हुक्का गुड़गुड़ाने वाले गर्वीले जाटों को भी मुफ्ती की इस बात से इनकार नहीं है.
हां, मुफ्ती का सियासी तर्क यहां लोगों के गले नहीं उतरता, भगवा पार्टी की उसकी खुली और जज्बाती तारीफ से यहां के मुसलमान सहमत नहीं हैं.
जाटों में भी कोई-कोई ही होगा जो मुफ्ती के सियासी तर्क से सहमत हो. बागपत से शामली जाने वाली सड़क पर एक हवेलीनुमा घर के आगे बुजर्ग जाटों की एक मंडली जमी बैठी है.
इस हवेलीनुमा घर में एक जिम भी चलता है. हुक्के की नली से इत्मीनान भरे कश खींचती बुजर्गों की यह मंडली राष्ट्रीय लोकदल के अजित सिंह की प्रबल समर्थक है.
यशपाल, सुखपाल, रामपाल...उनके नाम से जाटों के मर्दानेपन का दर्प झलकता है और बुढ़ौती की उनकी देह में अभी इतना कस-बल बाकी है कि उसके आगे शहर का कोई अधेड़ पानी भरे.
नो इफ्स् एंड नो बट्स, ओनली जट्स
जाटों की यह मंडली हैरतअंगेज दोस्तख्याली के साथ हुक्के का जोरदार कश लगा रही है.
'हम जानते हैं कि आरएलडी बड़ा खिलाड़ी नहीं हैं' - सुखपाल ने बोलना शुरू किया तो बाकी बैठी जमात ने सहमति में पूरी संजीदगी से सिर हिलाया, 'हम यह भी जानते हैं कि हमें बीजेपी को वोट करना चाहिए लेकिन हम जाट हैं और हम बटन अजित के नाम पर दबाएंगे. आखिरकार, वह हम लोगों के बीच का है. वो जाट है, चौधरी साहब का लड़का है.'
बड़ा विचित्र तर्क है. इसे सुनकर सन्नी देओल का वह मशहूर डॉयलॉग याद आता है कि ‘नो इफ्स् एंड नो बटस्... ओनली जट्स’.
मुसलमानों से कोई परेशानी? न, कोई नहीं, वे कहते हैं. सबने अब मन को मना लिया है और आगे बढ़ आए हैं.
मुसलमान और जाट यहां सदियों से हिलमिल कर रहते आए हैं और आगे के सालों में भी इसी तरह रहेंगे. इन लोगों ने अपने माजी यानी अतीत को मंजूर कर लिया है और उसमें डूबने से इन्हें इनकार है.
जाट और मुसलमान साथ-साथ
इस मुकाम से कुछ दूर आगे, एक चमचमाता हुआ फौजी ढाबा है. ढाबे के मालिक फैजाद खान भी इस बात से सहमत हैं.
उनके बंदे ढाबे का खाना लेकर दौड़-भाग कर रहे हैं, ग्राहकों को परोस रहे हैं. इस अफरा-तफरी के बीच फैजाद खान भी कहते हैं कि जाट और मुसलमानों को एक ही साथ रहना है.
फैजाद को एक रिटायर्ड फौजी के रुप में ठीक-ठाक पेंशन मिलती है. वे नहीं मानते कि मोदी सरकार को वन-रैंक-वन-पेंशन की योजना से फायदा होगा.
उनका वोट अखिलेश को मिलेगा क्योंकि सबका कहना है कि अखिलेश ने ठीक-ठाक काम किया है.
फैजाद के बंदे ग्राहकों को खाना परोसने में मशगूल हैं और यह बात फैजाद को भी ठीक-ठीक नहीं पता कि इस इलाके में सियासी कामयाबी का नुस्खा किस हींग-हल्दी से बनेगा.
वोट बटेंगे तो कौन जीतेगा?
जाट के वोट बंटेंगे, मुस्लिम के वोट बटेंगे, दलित मायावती की तरफ जाएंगे...फिर जीतेगा कौन?
रोटी की बिगड़ी शक्ल पर वेटर को लानत भेजते हुए फैजाद ने कहा, मुझे नहीं पता कि यहां सियासत की रोटी कौन सेंकेगा.
हालांकि, कई नेता आये हैं और कैराना के राहत-कैंप में अपनी सियासी रोटी भी पकायी है. चार साल पहले जब यह पूरा इलाका हिंसक और जानलेवा दंगों की चपेट में था तो एक राजनेता से उधार ली हुई 22 बीघे की जमीन पर 307 परिवारों का एक कैंप बना.
राजनेता की एक कार-दुर्घटना में मौत हो चुकी है. कैंप क्या है, जोड़-तोड़ से बनायी गई जर्जर झोपड़ियों का एक झुंड है बस.
कोई भी झोपड़ी पचास यार्ड से ज्यादा बड़ी नहीं और इन्हें जानते-बूझते बदहाली में रखा गया है.
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यहां देवबंद की मदद और भरपूर आर्थिक सहायता से बनी एक मस्जिद भी है. लेकिन बिजली मस्जिद में भी रह-रह कर आती है.
रंग-पुताई के इंतजार में मस्जिद अब भी सीमेंट का एक खुरदरा ढांचा भर है. शायद कोई आर्थिक मदद मिले तो इसके दिन बदलें.
कुरान जरूरी है या अंग्रेजी
मस्जिद के भीतर इमरजेंसी लाइट की मद्धिम रोशनी में कुछ बच्चे कुरान पढ़ रहे हैं. उनका सिर एक साथ उठ और झुक रहा है, तकरीबन मशीनी अंदाज में वे अपना पाठ दोहरा रहे हैं.
वे पाठ याद नहीं कर रहे बस दोहराए चले जा रहे हैं. यह रट्टामार पढ़ाई है. किसी-किसी बच्चे को पढ़ते-पढ़ते बोरियत में झपकी आ जाती है तो घुटने मोड़कर बैठा मौलवी उन्हें डांट लगाता है.
अरबी की लिखावट मद्धिम रोशनी में ठीक से नजर नहीं आ रही, लेकिन मौलवी का कहना है कि कैंप के बच्चों के लिए मस्जिद आना और कुरान पढ़ना जरुरी है.
अंग्रेजी? 'हां जी, इसके लिए एक स्कूल बनवाया जा रहा है', मौलवी कहता है. बच्चे जिस चटाई पर बैठे हैं वह जाड़े की शाम में भींगकर ठंढी हुई जा रही है.
बाहर, सियासी माहौल भले सरगर्म हो रहा हो लेकिन देखभाल की कमी की मार से दोहरी हुई जा रही इस मस्जिद के भीतर पढ़ रहे बच्चे अपने तार-तार स्वेटर और फटी शॉल लपेटे धीरे-धीरे बढ़ती ठंढ़ से बचने की जद्दोजहद में जुटे हैं.
बच्चों का रटंत जारी है. इस रटंत के बीच बाहर खड़ा आदमी चार साल पहले की भयावह कहानियां सुना रहा है.
तनाव में कमी आई लेकिन घर जाना दुश्वार
उसका कहना है कि तनाव में कमी आयी है, लेकिन हमारे लिए घर जाना अब भी दुश्वार है.
उनके बीच के कुछ लोग तो जाना ही नहीं चाहते. कुछ और हैं जो अपने रुकने की बड़ी विचित्र वजह गिनाते हैं.
उनके परिवारों ने उन्हें ठुकरा दिया है और, इसी कारण वे यहां रुके हुए हैं. हर कैंप की तरह यहां भी कहानियां आपबीती की शक्ल में सुनायी जा रही हैं, लेकिन बात जैसे ही जगबीती की होती है, उसका चेहरा नाटकीय ढंग से बदल जाता है.
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कैंप का हर शख्स सियासत पर गर्मजोशी से बात करता दिख रहा है. राजनीति बड़ी अजीब शगल है. कभी यह तोड़ती है, कभी जोड़ती है.
राजनीति अच्छी हो सकती है, बुरी और बदरूप भी लेकिन अपने हर रूप मे वह हमारे लिए अपने भयावह अतीत से भेंट का जरिया साबित होती है ताकि हम अपने इतिहास को अपना सकें.
जो अपने इतिहास को मंजूर नहीं करते वे इसके भीतर गर्क हो जाते हैं.
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