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राजनीति की नई सेल्फी: कीचड़ में धंसते क्षेत्रीय दल और उनके बीच खिलता कमल

पहले कांग्रेस की संगठनात्मक कमजोरियों ने क्षेत्रीय दलों को ताकत दी तो अब क्षेत्रीय दलों की कमजोरियां बीजेपी के लिये रामबाण बन चुकी हैं

Kinshuk Praval

नब्बे के दशक में राजनीति का एक जुमला हुआ करता था. ये जुमला बीजेपी को लेकर था. विरोधी दल बीजेपी को बार-बार सांप्रदायिक कहते हुए संसद की बहस में ये जताना नहीं भूलते थे कि ये पार्टी 84 के चुनावों में 2 सीटों पर सिमट गई थी.

बीजेपी भी नब्बे के दशक में जब सत्ता के केंद्र में पहुंची तो वो भी ये बताने में गर्व महसूस करती थी कि उसने दो सीटों से दो सौ सीटों का सफर तय किया है.


लेकिन कल तक बीजेपी को घोर सांप्रदायिक बताने वाले दल 2017 में इतना पिछड़ चुके हैं कि ये एक रिसर्च का विषय बन गया है. वहीं बीजेपी केंद्र से लेकर अलग राज्यों और यहां तक कि उन इलाकों में भी कमल खिलाने में कामयाब हो गई है जिसकी पहले कल्पना खुद बीजेपी को भी नहीं थी.

90 के दशक में देश की राजनीति ने ली नई करवट

बीजेपी की रणनीति पहले देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी कांग्रेस को निशाने पर लेने की रही. जब एक बार एनडीए का संगठन प्रभावी साबित हो गया तो कांग्रेस की जमीन दहलना शुरू हो गई. लेकिन कमजोर होती कांग्रेस के चलते क्षेत्रीय दलों का उदय होना शुरू हो गया.

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यही क्षेत्रीय दल अपने-अपने इलाकों में सिरमौर बन गए. लेकिन अब इन क्षेत्रीय दलों पर बीजेपी के चलते अपनी जमीन बचाने का संकट खड़ा हो गया है.

हाल के विधानसभा चुनाव और नगर निकाय के चुनावों में मिली बीजेपी की प्रचंड जीत के बाद जहां नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष उमर अब्दुल्ला को कहना पड़ गया कि 2024 तक विपक्ष के पास मोदी का कोई तोड़ नहीं है.

मोदी विरोध के महागठबंधन से रुकेगा बीजेपी का विजय रथ? (फोटो: रॉयटर्स)

वहीं दूसरे राजनीति के प्रकांड और विदुर माने जाने वाले लोगों का कहना है कि सभी दलों को आपसी मतभेद भुलाकर एक सुर में मोदी विरोध का महागठबंधन बनाना होगा तभी साल 2019 के लोकसभा चुनाव से कुछ उम्मीद की जा सकती है.

सवाल यहां बीजेपी की रणनीति का नहीं बल्कि कांग्रेस समेत क्षेत्रीय दलों की भीतरी खींचतान के बाद शुरू हुई दुर्दशा का है जो उन्हें इस अंजाम तक ले आई है.

पहले कांग्रेस की संगठनात्मक कमजोरियों ने क्षेत्रीय दलों को ताकत दी तो अब क्षेत्रीय दलों की कमजोरियां बीजेपी के लिये रामबाण बन चुकी है.

देश की राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले यूपी में जिस तरह से क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज वादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल समेत दूसरे छोटे मोटे दलों का पतन हुआ है वो स्वस्थ राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है. सत्ता के संतुलन के लिये मजबूत विपक्ष हर सरकार के दौर में जरूरी रहा है.

लेकिन खुद क्षेत्रीय दलों की स्थिति पूरे देश में डगमगाहट से भरी हुई लड़खड़ाई नजर आती है.

बहुभाषी, बहुजातीय, बहुक्षेत्रीय और कई धर्मों के प्रजातांत्रिक देश में स्थानीय समस्याओं पर राष्ट्रीय दलों और केंद्रीय नेताओं की अनदेखी की वजह से क्षेत्रीय दलों का उभार हुआ. ये क्षेत्रीय पार्टियां जाति, धर्म और सामुदायिक हितों की आड़ में राष्ट्रीय स्तर का कद रखने लग गई.

90 के दशक में राजनीतिक हालात इस तरह बदले की कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी को भी गठबंधन की तरफ देखना पड़ गया. यहीं से शुरू होता है क्षेत्रीय पार्टियों को ब्लैकमेल का खेल भी.

90 के दशक से शुरू हुआ क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा

समर्थन की आड़ में केंद्र की सरकारों के साथ पर्दे के पीछे और सामने की डील ने राजनीति के चेहरे को पूरी तरह बदल दिया. सरकार बनाने और गिराने में क्षेत्रीय दलों का समर्थन ट्रंप कार्ड बन गया. ये पार्टियां संसदीय लोकतंत्र में अपने इलाके की पकड़ की वजह से सिरमौर बनती चली गईं.

अखिलेश के फैसलों से नाराज होकर जनता ने बीजेपी को चुना

सबसे पुरानी क्षेत्रीय पार्टी पंजाब की शिरमोणि अकाली दल है जिसकी स्थापना 1920 में हुई. पंजाब की राजनीति में इस दल की अहमियत केंद्र तक ताकत रखती है.

वहीं आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, दिल्ली, यूपी, ओडिशा, तमिलनाडु, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर और नगालैंड में भी क्षेत्रीय दलों की हुकूमत और धमक बढ़ती चली गई.

एक व्यक्ति और एक परिवार पर केंद्रित ये पार्टियां धीरे-धीरे अपने मतदाताओं पर पकड़ ढीली करती चली गई.

इन पार्टियों को बड़ा वृक्ष बनने में 30 से 50 साल का सफर तय करना पड़ा. लेकिन इनकी जड़े खुदने में वक्त ज्यादा नहीं लगा. कुछ पार्टियां अपने परिवार की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की वजह से अंदरूनी कलह का शिकार बनीं तो कुछ पार्टियां जिस चेहरे के दम पर फली-फूलीं वो बाद में उस चेहरे के न रहने पर बिखराव की तरफ बढ़ गई.

यूपी में समाजवादी पार्टी को मुलायम सिंह यादव ने तीस साल में खड़ा किया. यादव-मुस्लिम गठजोड़ पर बनी ये पार्टी कांग्रेस के विरोध की नींव पर खड़ी हुई. देखते ही देखते ये क्षेत्रीय दल लोकसभा में भी अपनी दावेदारी मजबूत कर गया.

कांग्रेस से छिटके मुसलमानों और अपने कोर वोट बैंक यादवों के जरिए मुलायम सिंह सत्ता पर कई बार काबिज हुए हैं. ओबीसी की अन्य कई पिछड़ी जातियों का उन्हें भारी समर्थन मिला.

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साल 2012 में समाजवादी पार्टी ने यूपी विधानसभा चुनाव जोरदार तरीके से जीत कर देश की दिग्गज पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी को हाशिये पर ला दिया.

लेकिन साल 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी सत्ता में रहने के बावजूद सत्ता की साइकिल से बुरी तरह गिरी. जानकारों की नजर में परिवार की कलह, अंदरूनी वर्चस्व की लड़ाई की वजह से सपा को नुकसान पहुंचा है. लेकिन चुनावी नतीजों से साफ है कि अखिलेश सरकार के 'काम बोलता है' के नारे को जनता ने जवाब दिया है.

अब समाजवादी पार्टी में दो फाड़ हो चुके हैं. शिवपाल यादव अपनी दूसरी पार्टी का ऐलान कर चुके हैं. अंदरूनी लड़ाई से समाजवादी पार्टी को उबरने में बहुत वक्त लगेगा. 78 साल के हो चुके मुलायम जो कभी 'मौलाना' हुआ करते थे आज अपनी ही पार्टी के मुखिया भी नहीं रहे हैं. अखिलेश के फैसलों ने यूपी की जनता को बीजेपी को पूर्ण बहुमत से चुनने का विकल्प दे दिया.

शिवपाल-अखिलेश के बीच लड़ाई के चलते समाजवादी पार्टी में दो फाड़ हुए

यूपी में एंटी इंकंबेंसी ने क्षेत्रीय दलों का चाल-चरित्र-चेहरा ही बदल डाला. न सिर्फ समाजवादी पार्टी बल्कि यूपी की जमीन से खड़ी हुई बहुजन समाजवादी पार्टी का तो वजूद ही खत्म सा हो गया.

अस्सी के दशक में दलितों के नाम पर बनी बीएसपी को इस बार दलित वोट भी ज्यादा नहीं मिले. बीएसपी पूरी तरह जाति वर्ग पर आधारित क्षेत्रीय पार्टी है. शुरुआत में खुद पार्टी के संस्थापक कांशीराम कहा करते थे कि उनकी सभा से सवर्ण जाति के लोग जा सकते हैं. सवर्ण विरोध की विचारधारा और दलित सम्मान को लेकर बनी बीएसपी  हालांकि सोशल इंजीनियरिंग के जरिये ब्राह्मण और मुस्लिम वोटरों को अपनी तरफ खींचने में कामयाब हुई.

लेकिन इस बार 2017 के चुनाव में अति मुस्लिम प्रेम ने उसके दलित कोर वोटर का मोहभंग करने का काम किया. सौ मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारने वाली बीएसपी को न खुदा ही मिला और न विसाल ए सनम. चुनाव में मिली करारी हार के बाद रही सही कसर पार्टी के नंबर दो चेहरे रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी की बर्खास्तगी ने पूरी कर दी.

जयललिता के बाद बदली तमिलनाडु की राजनीति

नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने मायावती पर गंभीर और तीखे आरोप लगाए. उन्होंने ये तक कहा कि हारने के बाद बीएसपी सुप्रीमो ने मुस्लिमों को गद्दार और दूसरी दलित और पिछड़ी जातियों के लिये अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया. ये आरोप बीएसपी के ताबूत में आखिरी कील ठोंक सकते हैं.

जिस पार्टी के प्रेरणा स्त्रोत बाबा साहब भीमराव अंबेडकर, पेरियार ईवी रामासामी और महात्मा ज्योतिबा फूले रहे हैं वहीं पार्टी कांशीराम के न रहने के बाद किसी भी कीमत पर सत्ता के फॉर्मूले पर जा टिकी.

कांशीराम ने अपना उत्तराधिकारी मायावती को बनाया जो कभी एक शिक्षिका हुआ करती थीं लेकिन आज खुद मायावती ने दूसरे क्षेत्रीय दलों की तरह ही अपने भाई आनंद कुमार को उपाध्यक्ष बनाया. ये उन दलित समर्थकों के लिये करारा आघात है जिन्होंने कांशीराम को देखा था और उनके भीतर भी कहीं मायावती की तरह ही एक मौके का सपना टहल रहा था.

कांशीराम ने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था तस्वीर: यूट्यूब

जाहिर तौर पर क्षेत्रीय दलों के पतन की एकमात्र वजह ये रही कि परिवार, रिश्तेदारों और मित्र मंडली में सिमटे ये दल आपसी हितों और हितों के टकराव के चलते जनता से दूर होते चले गए.

इन सबसे परे जिस बीजेपी को यूपी में क्षेत्रीय दलों की राजनीति ने हाशिए पर पहुंचा दिया था आज वहीं पर क्षेत्रीय दल आपस में कीचड़ उछालते दिख रहे हैं तो कमल खिला हुआ सामने है.

तमिलनाडु में साल 1949 में अन्नादुरै ने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम डीएमके की स्थापना की. पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने. 1972 में मशहूर फिल्म कलाकार एमजी रामचंद्रन ने पार्टी छोड़कर एआईएडीएमके का गठन कर लिया.

आज तमिलनाडु की राजनीति इन्हीं दो पार्टियों पर आधारित है. लेकिन जयललिता के न रहने के बाद एआईएडीएमके के हालात अगले चुनाव में जयललिता के करिश्मे की कमी को महसूस करेंगे. यही हाल डीएमके का भी है क्योंकि करुणानिधि के बीमार रहने के बाद पार्टी की कमान बेटे स्टालिन के पास है. लेकिन एक परिवार की जागीर में बदली इन पार्टियों में वर्चस्व की लड़ाई जारी है.

खुद को जयललिता का उत्तराधिकारी घोषित करने वाली शशिकला नटराजन जेल जा चुकी हैं. पार्टी के भीतर दो गुट बन चुके हैं. पन्नीरसेल्वम और मुख्यमंत्री पलानिसामी के बीच तनाव साफ देखा जा रहा है. जिसका पार्टी के भविष्य पर असर जरूर पड़ेगा.

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कमजोर होती एआईएडीएमके और डीएमके की वजह से बीजेपी तमिलनाडु में अपने लिये रणनीति तैयार करने में जुटी हुई है. माना जा रहा है कि बीजेपी पन्नीरसेल्वम को मुख्यमंत्री बनाना चाहती है. ऐसे में तमिलनाडु में राजनीति के नए दौर की शुरुआत तय है.

कुछ ऐसी ही स्थिति ओडिशा में भी होती दिख रही है. लोकसभा चुनाव में तो बीजेपी ने राज्य में अच्छा प्रदर्शन किया ही था. हाल ही में हुए निकाय चुनावों में भी पार्टी का प्रदर्शन बेहतरीन रहा है. यहां भी एक क्षेत्रीय दल बीजू जनता दल की ही सरकार है. बीजेपी के राज्य में बढ़ते हुए कद को सीएम नवीन पटनायक महसूस कर रहे हैं. 2019 के आगामी विधानसभा चुनाव में बीजेपी की धमक इस राज्य में भी दिखाई दे सकती है.

आने वाले चुनावों में दिल्ली में खिल सकता है कमल

बीजेपी की नजर दक्षिण भारत के पांच राज्यों पर है. माना जा रहा है कि बीजेपी ने आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, केरल, और कर्नाटक के लिए खास मिशन का ब्लूप्रिंट तैयार किया है. इस साल के आखिर में कर्नाटक में होने वाले चुनाव बीजेपी के मिशन का असली इम्तिहान होंगे.

आंध्र प्रदेश में तेलगू देशम पार्टी की कमान चंद्रबाबू नायडू के हाथ में है. नायडू आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं.

एनडीए के साथ टीडीपी का पुराना रिश्ता है. आंध्र प्रदेश में बीजेपी की भी पकड़ मजबूत होती जा रही है.

वहीं तेलंगाना राष्ट्र समिति की तेलंगाना में सरकार है. पृथक तेलंगाना राज्य के आंदोलने से टीआरएस का जन्म हुआ है.  चंद्रशेखर राव राज्य के पहले सीएम हैं तो पार्टी  के अध्यक्ष भी हैं. यहां भी क्षेत्रीय दल एक ही परिवार में सिमटा हुआ है.

पश्चिम बंगाल भी एक ही चेहरे और एक ही नाम की पार्टी की राजनीति की गिरफ्त में है. तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी का ही फैसला अंतिम मुहर होता है. लेकिन विधानसभा के उपचुनाव में कमल खिलने के बाद बीजेपी के मिशन में पश्चिम बंगाल भी शामिल हो गया है. विधानसभा उपचुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार शमिक भट्टाचार्य ने तृणमूल कांग्रेस के दीपेंदु विश्वास को हरा कर सबको चौंका दिया है.

पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा उपचुनाव में खिला कमल

मणिपुर में इकराम इबोबी सिंह ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग के बूते 15 साल राज किया. लेकिन इस बार वहां भी कमल खिल गया. जनता ने पंद्रह साल पुरानी इबोबी सरकार को उखाड़ फेंका. पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में बीजेपी की पहली दफे सरकार बनी.

जम्मू कश्मीर में भी क्षेत्रीय पार्टी पीडीपी सत्ता में है. बीजेपी उसकी जूनियर पार्टनर है. इससे पहले कश्मीर में पहले मुस्लिम कान्फ्रेंस बनी थी जिसका बाद में नाम नेशनल कान्फ्रेस हो गया था. घाटी में नेशनल कान्फ्रेंस और पीपल्स डेमेक्रेटिक पार्टी का वर्चस्व है. लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मिला कामयाबी क्षेत्रीय दलों की घंटी बजाने का काम कर रही है.

तमाम राज्यों में क्षेत्रीय दलों के प्रति जनता की उदासीनता दिखाई देने लगी है. क्षेत्रीय दलों पर से उठता जनता का विश्वास बीजेपी को एकमात्र विकल्प के तौर पर देख रहा है. कांग्रेस के साथ मुश्किल उसके संगठन की कमजोरी है जिसने क्षेत्रीय दलों को देश की राजनीति बदलने का मौका दिया.

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वैचारिक तौर पर बनीं और आंदोलन से जुड़ी पार्टियों का भविष्य कम वक्त में ही साफ दिखाई देने लगा है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी भी आंदोलन से खड़ी हुई थी. भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाकर इसने अलग राजनीति की पहचान बनाई. लेकिन अब इसी पार्टी पर भ्रष्टाचार के आरोप आप की ही सरकार के पूर्व मंत्री ने लगाए हैं. आम आदमी पार्टी भले ही आरोपों को साजिश करार दे रही है लेकिन जनता का भरोसा डगमगा जरूर गया है.

एमसीडी के चुनावों में बीजेपी को मिली जीत इशारा कर रही है कि दिल्ली अगले चुनाव के लिये क्या सोच रही है?