सालगिरह अच्छे, बुरे और खराब के आकलन का मौका होता है. लेकिन जब बात ऐसे नेताओं की हो जो तीखी प्रतिक्रिया पैदा करते हैं तो मूल्यांकन करते वक्त उनका गुणगान किया जाता है अथवा उन्हें सिरे से खारिज कर दिया जाता है.
प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के तीन साल के प्रदर्शन का आकलन #तीनसालबेमिसाल से लेकर #तीनसालगोलमाल जैसे परस्पर विपरीत ट्विटर हैशटैग के रूप में सामने आया है.
ऐसे में यह विवेकपूर्ण होगा कि इन सब से अलग हटते हुए और सिर्फ सरकार के कामकाज पर ही ध्यान केंद्रित करने की बजाय मोदी की मौजूदा अपराजेय स्थिति के लिए जिम्मेदार दूसरे कारक यानी उनकी पार्टी के प्रदर्शन का भी मूल्यांकन किया जाए.
अमित शाह ने बंद कमरों की बैठकों की परंपरा को त्यागा
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी की शानदार जीत के बाद एक हेडलाइन में उसे भारतीय जगरनॉट पार्टी बताया गया. इस हेडलाइन का लेखक बीजेपी में होता तो शब्दों के इस सुनार को काफी शाबाशी मिलती.
पार्टी में इस तरह के अलंकारों का सृजन बेहद पसंदीदा मानसिक कसरत मानी जाती है. ‘जगरनॉट’ शब्द का अर्थ है- 'एक विशाल और बेहद निर्मम शक्ति जो अपने रास्ते में आने वाली हर चीज को कुचल देती है' जिस संदर्भ में इस शब्द का इस्तेमाल किया गया था, उसके लिए इससे उपयुक्त कोई और शब्द नहीं हो सकता था.
हम पिछले तीन साल में एक नई बीजेपी के उद्भव के साक्षी रहे हैं, जिसने सम्मेलन या गोष्ठी जैसे लगने वाले बंद कमरों की बैठकों की परंपरा को त्याग दिया. इस दौर में देश ने बीजेपी अध्यक्ष के रूप में अमित शाह के उदय को भी देखा, जिनमें निर्ममता और अभूतपूर्व प्रशासनिक कौशल के साथ राजनीतिक होशियारी का बेजोड़ सम्मिलन है.
वे एक ऐसी शख्सियत हैं जो प्रशंसा के मुकाबले भय ज्यादा पैदा करते है. उनके लिए भी कई उल्लेखनीय सुर्खियां बनीं. 'शाह ऑफ परमानेंट वार’ इन्ही सुर्खियों में एक है.
उनके और उनकी पार्टी के लिए चुनाव सचमुच युद्ध से कुछ कम नहीं होते. वह जब भी किसी लड़ाई में उतरते हैं, जबरदस्त जीत हासिल करना ही उनका एकमात्र उद्देश्य होता है. उत्तर प्रदेश के चुनावों से पहले उन्होंने कथित तौर पार्टी के सहयोगियों से कहा था, 'चुनाव स्पष्टता से लड़ा जाता है और चुनाव का लक्ष्य जीत होता है.'
अचरज की बात है कि जिस शख्स की चर्चा किए बगैर बीजेपी के बारे में कोई बात न तो शुरू होती और न ही खत्म, वह मई 2014 में लोकसभा चुनाव के नतीजे घोषित होने के बाद पार्टी अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर खुद आश्वस्त नहीं था. उसे प्रधानमंत्री कार्यालय में संभावित जूनियर मंत्री के रूप में भी देखा गया. शुरुआत में राजनाथ सिंह के सरकार से बाहर रहने और पार्टी अध्यक्ष बने रहने की उनकी महत्वाकांक्षा को लेकर अटकलें लगती रहीं.
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लेकिन यह व्यवस्था नरेंद्र मोदी के लिए उपयुक्त नहीं थी, क्योंकि इससे सत्ता के दो केंद्र पैदा हो सकते थे. मोदी पार्टी और सरकार को परस्पर विरोधी दिशा में जाने की इजाजत नहीं दे सकते थे.
आखिरकार मोदी ने राजनाथ सिंह को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया और अमित शाह को पार्टी अध्यक्ष नियुक्त कर दिया. इसके पीछे के कारणों को अमित शाह के मौलिक गुणों को पार्टी अध्यक्ष पद के दूसरे प्रतियोगी जे. पी. नड्डा से तुलना कर समझा जा सकता है.
कभी बीजेपी के लिए यूपी पूरी तरह बिखरा हुआ था
लंबे समय से मोदी के वफादार रहे नड्डा एक मिलनसार व्यक्ति और सदाबहार क्षत्रप हैं, लेकिन मोदी को कभी न थकने वाले एक ऐसे शख्स की जरूरत थी जो पूरी तरह अपना ध्यान लक्ष्य पर केंद्रित करे और जिसमें किसी के भी सामने खरी-खरी बोलने की हिम्मत हो.
2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त अमित शाह ने उत्तर प्रदेश की कमान संभाली तो सूबे में पार्टी पूरी तरह बिखरी हुई थी. स्थानीय नेता एक दूसरे से लड़ रहे थे और संगठन का पूरा नेटवर्क छिन्न-भिन्न था.
संघ परिवार के जुड़े संगठन हतोत्साहित थे, क्योंकि पार्टी नेताओं ने उनमें भागीदारी की भावना को पैदा करने के लिए बहुत कुछ भी नहीं किया था. पार्टी ने पुरानी रणनीति पर चुनाव लड़ना जारी रखा था. वह तकनीकी कौशल का इस्तेमाल करने में पूरी तरह असमर्थ थी, जैसा कि गुजरात में पार्टी ने किया गया था. नतीजतन, अमित शाह ने कई बदलाव किए और जिनके परिणाम असाधारण निकले.
जब वह बीजेपी के अध्यक्ष बने तो राष्ट्रीय स्तर पर भी पार्टी की तस्वीर बहुत अलग नहीं थी और उन्होंने इसी तरह के कई बदलाव किए. इनमें पार्टी के ढांचे के आधुनिकीकरण के अलावा तकनीकी आधारित जन सदस्यता अभियान और सबसे निचले पायदान पर संगठन को महत्व देने जैसे नए प्रयोग शामिल थे.
पार्टी की क्षैतिज प्रकृति के विपरीत अमित शाह ने कॉर्पोरेट शैली में अलग-अलग कार्यक्रम के लिए प्रमुख नियुक्त किए. काम आवंटित किए गए और लक्ष्य निर्धारित हुए.
बिहार में हुए चुनावी नुकसान के बाद चार वरिष्ठ नेताओं - लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, अरुण शौरी और शांता कुमार ने अमित शाह पर निर्णय लेने की प्रक्रिया को केंद्रीकृत करने का आरोप लगाया. यह आरोप एक हद तक सही भी था, लेकिन इसे संघ परिवार के भीतर मौजूद नेतृत्व और कामकाज के परस्पर विरोधी सिद्धांतों की पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए.
के. बी. हेडगेवार ने एक “चालक अनुवर्तित्व” (एक नेता का अनुसरण) के सिद्धांत पर आरएसएस की स्थापना की थी. इसी सिद्धांत का पालन एम.एस. गोलवलकर ने भी किया. लेकिन बालासाहेब देवरस ने “सह चालक अनुवर्तित्व” (कई नेताओं का अनुसरण) और “सर्व सम्वेषक” या समावेशी नेतृत्व की अवधारणा की शुरुआत की.
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जाहिर है कि मोदी-शाह की जोड़ी संगठन के आंतरिक कामकाज में हेडगेवार-गोलवलकर के सिद्धांत की मुरीद थी. यह जनता पार्टी के बिखराव के बाद पैदा हुई बीजेपी की निर्वाचक मंडल कार्यशैली में एक निर्णायक बदलाव था.
निस्संदेह बीजेपी में मोदी देवों के देव की तरह हैं और उनके लिए अमित शाह उसी तरह हैं जैसे भगवान राम के लिए हनुमान थे. सरकार ने अपनी प्राथमिकताएं तय कर ली हैं और पार्टी को समय-समय पर उसकी उपलब्धियों का प्रचार-प्रसार करना है. जब भी पार्टी नेता ढिलाई बरतते दिखाई देते हैं, अमित शाह उन्हें उन्हें आगाह कर देते हैं.
याद करिए जब उन्होंने सांसदों और अन्य नेताओं को अपने निर्वाचन क्षेत्रों में नोटबंदी के सकारात्मक पहलुओं का प्रचार करने के लिए कहा था. पार्टी के भीतर निर्णय लेने की प्रक्रिया का केंद्रीकरण, नेताओं की आकांक्षाओं से निपटने में दृढ़ता का परिचय (टिकट वितरण में योगी आदित्यनाथ की सीमित भूमिका याद करिए) और नॉनसेंस बर्दाश्त न करने की कार्यशैली संगठन में कार्यकर्ताओं के स्तर तक तेजी से पहुंची.
पूरे परिवार में भागीदारी की भावना विकसित करना और यह सुनिश्चित करना कि सबसे निचले स्तर पर मौजूद प्रमुख व्यक्ति भी बीजेपी की निर्बाध प्रगति में हिस्सेदार बने, मोदी-शाह की जोड़ी की सबसे बड़ी उपलब्धि है.
वर्तमान में बीजेपी अकेले या अपने सहयोगियों के साथ मिलकर 17 राज्यों में सरकार चला रही है, जो देश की जनसंख्या का लगभग दो-तिहाई हिस्सा है. यह 2012 के अंत तक बिखराव से जूझ रही पार्टी के लिए कोई छोटी उपलब्धि नहीं है.
बीजेपी के लिए परेशानी बन सकती हैं राज्य पार्टियां
पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को झटका लगा होगा, लेकिन यह वह कीमत है जो हर कोई चुकाने को तैयार है. वैचारिक प्रभुत्व और राजनैतिक वर्चस्व बगैर कीमत चुकाए हासिल नहीं होते. इसके लिए अगर रणनीतिक चुप्पी जरूरी है तो ऐसा करना होगा. अमित शाह को अब सिर्फ यह सुनिश्चित करना है कि पार्टी छल-कपट से दूर रहे, पार्टी में सबको समुचित श्रेय मिले और कड़ी मेहनत को पुरस्कृत किया जाए.
अगले संसदीय चुनावों से पहले दस राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. बीजेपी का गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस से सीधा मुकाबला होगा, जबकि कर्नाटक में तिकोने मुकाबले की संभावना है.
पूर्वोत्तर के चार राज्यों - मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा - में से लेफ्ट के गढ़ त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश में बीजेपी सत्ता हासिल करने के लिए ठोस प्रयास कर रही है. लिहाजा यहां नीति में बदलाव की खास वजह नहीं है.
लेकिन मजबूत क्षेत्रीय दल वाले राज्य बीजेपी के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं. बीजेपी को एक प्रभावशाली पार्टी के रूप में स्थापित करने के लिए अमित शाह के आक्रामक प्रयासों से पार्टी के क्षेत्रीय सहयोगियों को दिक्कत हो सकती है. यह काम हर राज्य में समान रूप से आसान भी नहीं होगा. यह पश्चिम बंगाल में हाल ही में हुए स्थानीय चुनावों के नतीजों ने साबित भी कर दिया है.
जब भी मोदी का उल्लेख होता है, बातचीत 2019 में उनके फिर से चुने जाने और 2024 तक सत्ता में बने रहने की बेहतर संभावना पर शिफ्ट हो जाती है. इस दौरान जो बात नजरअंदाज हो जाती है वह यह है कि अमित शाह का पार्टी अध्यक्ष के तौर पर पहला कार्यकाल अगले लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले जनवरी 2019 में खत्म होगा.
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चुनाव के करीब पार्टी नेतृत्व में बदलाव की कम संभावना है और अगर चुनावी नतीजे सकारात्मक रहे तो अमित शाह के 2022 या उसके बाद तक पार्टी अध्यक्ष बने रह सकते हैं. तब तक बीजेपी भी भारतीय राजनीति में मजबूत पकड़ बना चुकी होगी.
अमित शाह के पास एक स्पष्ट एजेंडा है- देश में सिंगल पार्टी का वर्चस्व स्थापित करने के लिए काम करना. उनका लक्ष्य एक ऐसी पार्टी का नेतृत्व करना है जो वास्तव में “एक और कांग्रेस” हो, लेकिन अतीत की कांग्रेस जब जवाहरलाल नेहरू नियमित रूप से चुनावी मैदान मार लिया करते थे.