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केजरीवाल के मोबाइल पर बजी उस घंटी ने देश की राजनीति में 'भूचाल' ला दिया!

भष्टाचार के खिलाफ चले आंदोलन से निकली पार्टी की सरकार को दिल्ली में तीन साल पूरे हो गए हैं

Sumit Kumar Dubey

करीब सात साल पहले साल 2011 में दिल्ली के भाई वीर सिंह मार्ग पर स्थित चेतनालय भवन में दोपहर के वक्त एक मीटिंग चल रही थी. अरविंद केजरीवाल अपने एनजीओ परिवर्तन और उसके सहयोगी एनजीओ से जुड़े देश भर से आए करीब 30-40 वॉलंटियर्स के के साथ मीटिंग कर रहे थे. मीटिंग का एजेंडा था कि कैसे सरकारी प्रस्तावित लोकपाल की तुलना में ज्यादा प्रभावशाली जनलोकपाल के बारे में देश के लोगों को अवगत कराया जाए.

मीटिंग में कई सुझाव आ रहे जिन्हें संशोधनों के साथ नोट किया जा रहा था. कोशिश एक ऐसी रणनीति बनाने की थी जिसके चलते लोगों को जनलोकपाल के बारे में जागरुक करके सरकार पर दबाव बनाया जा सके. अचानक केजरीवाल का फोन घनघनाता है और वह बात करने के लिए मीटिंग से बाहर चले जाते हैं. करीब 10 मिनट बाद जब वह मीटिंग में वापस लौटते हैं उनके चेहरे की चमक कई गुना बढ़ी हुई थी.


वापस आते ही केजरीवाल ऐलान करते हैं कि महाराष्ट्र के विख्यात समाजसेवी अन्ना हजारे लोकपाल के मसले पर उनके साथ मिलकर दिल्ली में अनशन करने को तैयार हो गए हैं. यानी अब तक बनी सारी रणनीतियां खत्म... अब एक ही रणनीति बनेगी और वह अन्ना के अनशन को कामयाब बनाने की रणनीति होगी.

चेतनालय में हुई उस मीटिंग के बीच में केजरीवाल को आए उस फोन ने एक ऐसे आंदोलन की नींव रख दी जिसने आगे चलकर इस देश की राजनीति करने के सालों पुराने तौर तरीकों को बदलकर रख दिया. आंदोलन से निकली पार्टी आज दिल्ली की सत्ता में हैं और केजरीवाल उसके मुखिया हैं. यूं तो आम आदमी पार्टी का वजूद दिल्ली या पंजाब तक ही सीमित है लेकिन इस पार्टी ने देश में वैकल्पिक राजनीति ऐसी असीम संभावनाओं को जन्म दे दिया जिसके बारे कुछ सालों पहले तक सोचा भी नहीं जा सकता था.

कैसे बना जनलोकपाल आम आदमी का मुद्दा

राइट टू इंन्फॉर्मेश यानी सूचना के अधिकार पर बेहतरीन काम करके के लिए केजरीवाल रेमन मैग्सेसे पुरस्कार हासिल करके जाना पहचाना नाम बन चुके थे.  लेकिन वह वहीं रुकना नहीं चाहते थे. केजरीवाल ने अपने एनजीओ के जरिए दिल्ली के करावल नगर जैसे इलाके में में स्वराज अभियान भी चलाया लेकिन बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ सकी.

इसी दौरान केजरीवाल के हाथ यूपीए सरकार के प्रस्तावित लोकपाल विधेयक की एक ड्राफ्ट कॉपी लगी. इसमें उन्हें कई लूप-होल्स नजर आए. इसकी तुलना में केजरीवाल ने मशहूर वकील शांति भूषण भूषण, प्रशांत भूषण और कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े के सहयोग से एक सशक्त जनलोकपाल का ड्राफ्ट तैयार कराया और इसी मांग लिए अन्ना हजारे को दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनशन के लिए बैठने को राजी किया गया.

बेहद मुफीद थे राजनीतिक हालात

केजरीवाल और उनकी टीम ने जिस वक्त जनलोकपाल के के मुद्दे को उठाया उस वक्त के राजनीति हालात उनके लिए एकदम मुफीद थे. पहला कार्यकाल पूरा करके मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार दूसरा चुनाव जीतकर और ज्यादा ताकतवर हो चुकी थी.

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2009 का लोकसभा चुनाव हार चुकी भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता अगले चुनाव के लिए लीडरशिप की आंतरिक लड़ाई की शह-मात में उलझे थे. यूपीए सरकार के दौरान हुए टूजी और कोयला घोटालों की खबरें लगातार सुर्खियां बटोर रही थीं. जनता की नजरों में भ्रष्टाचार एक ज्वलंत मसला बन रहा था और ऐसे में केजरीवाल –अन्ना हजारे की जोड़ी ने इंडिया अगेंन्स्ट करप्शन का गठन करके पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया. किरण बेदी और जनरल वीके सिंह, स्वामी रामदेव और कुमार विश्वास जैसे कई जाने माने चेहरों ने इस आंदोलन में जनता का भरोसा कायम करवाने में अहम योगदान किया.

अन्ना हजारे बने ब्रैंड

जंतर मंतर पर अप्रेल 2011 हुए अन्ना के अनशन ने सरकार को झुकने पर मजबूर किया. लोकपाल बिल को ड्राफ्ट करने के लिए सिविल सोसाइटी के सदस्यों को भी शामिल किया गया. लेकिन बात बनी नहीं. टीम अन्ना ने इसी साल अगस्त में दिल्ली के ही रामलीला मैदान में अन्ना के अनशन के साथ इतना बड़ा आंदोलन खड़ा किया कि उसकी तुलना 70 के दशक के जेपी आंदोलन से होने लगी. यूपीए सरकार की गलतियों ने इस आंदोलन को बढ़ाने और ज्यादा योगदान किया.

इस आंदोलन में जिस तरह से अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के विरोध में एक ब्रैंड के तौर पेश किया गया वह इस देश इतिहास में एक अनोखा प्रयोग था. एक 70 साल के बूढ़े को देश हित में अपनी जान की परवाह ना करते हुए अनशन पर बैठते देख पूरे देश में सत्ता के खिलाफ एक लहर पैदा हो गई.

आखिरकार लोकपाल विधेयक पास तो हो गया लेकिन इतने बड़े आंदोलन की कामयाबी को केजरीवाल इस मुकाम पर छोड़ना नहीं चाहते थे. राजनीति में एंट्री के केजरीवाल के फैसले ने अन्ना को इस आंदोलन से अलग कर दिया. अन्ना तो अलग हुए ही लेकिन किरण बेदी और जनरल वीके सिंह जैसे लोग भी केजरीवाल का साथ जोड़कर बीजेपी के खेमे में शामिल हो गए.

अनूठे थे आम आदमी पार्टी के तौर तरीके

नवंबर 2012 में टीम केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के नाम से देश की राजनीति में दस्तक दे दी. राजनीति को बदलने के दावे के साथ राजनीति शुरू करने वाली आमआदमी पार्टी के तौर तरीकों और मुद्दों ने हर राजनीतिक दल को चौंका दिया.

दिल्ली की जनता की परेशानियों को केजरीवाल ने कुछ इस तरह से उठाया कि कभी वह बिजली के खंबे पर कनेक्शन जोड़ते दिखे तो कभी ऑटो वालों के सुपरस्टार बन गए.

सोशल मीडिया का इस्तेमाल किस तरह से चुनावी फायदे के लिए किया जाता है इसकी पहली नजीर इस देश को आम आदमी पार्टी ने ही पेश की. देश में आ चुकी इंटरनेट क्रांति का सबसे समझदारी भरा और कामयाब प्रयोग सबसे पहले आम आदमी पार्टी ने किया.

पहली बार देश की किसी पार्टी में प्रोफेशनल्स को बतौर वॉलंटियर्स तनख्वाह पर रखा गया. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की डोर-टू-डोर कैंपेन ने विरोधियों को चौंका दिया. पार्टी को मिलने वाले चंदे को ऑनलाइन शो करके अपनी साख को मजबूत किया गया. इलेक्शन से एक-दो महीने पहले ही उम्मीदवारों के नाम का ऐलान किया गया. ये सारे तरीके भारतीय राजनीति के लिए नए थे.

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साल भर बाद ही आम आदमी पार्टी को कामयाबी का स्वाद भी चखने को मिला. साल 2013 दिल्ली के विधानसभा चुनाव में 28 सीटों जीतकर जब कांग्रेस के सहयोग से उन्होंने पहली बार दिल्ली की सरकार बनाई तो रामलीला मैदान में हुए उनके शपथ ग्रहण समारोह पर पूरी दुनिया की नजर थी.

48 दिन की सरकार में केजरीवाल ने बिजली और पानी के बिलों को लेकर अपने वादे को पूरा करके दिल्ली की जनता के भरोसे को एक नया आधार दिया.

गलतियां कीं, मिली सजा

इसी कामयाबी के भरोसे केजरावाल ने ऐसी गलतियां भी कीं जिनसे पार्टी के अस्तित्व पर संकट मंडरा गया. दिल्ली सरकार को गिराकर आम आदमी पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में पूरी ताकत के साथ ताल ठोकी. खुद केजरीवाल नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने बनारस पहुंच गए. मोदी लहर में आम आदमी पार्टी दिल्ली सातों लोकसभा सीटों पर साफ हो गई. उस वक्त लगा था कि भारतीय राजनीति का यह अनूठा प्रयोग अब अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है लेकिन पिक्चर भी बाकी थी.

दिल्ली में 2015 में हुए विधानसभा चुनाव के वक्त मोदी की बीजेपी की जीत का घोड़ा पूरे देश में सरपट दौड़ रहा था. लेकिन आम आदमी पार्टी का जादू दिल्ली में एक बार फिर चल गया.

केजरीवाल ने इस बार बेहद सघन प्रचार किया करके दिल्ली की गली-गली में जाकर माफी मांगी. दिल्ली की जनता से केजरीवाल को माफी के साथ-साथ 70 में से 67 सीटों का इनाम भी मिला.

दिल्ली विधानसभा में मिले इस प्रचंड बहुमत के बाद बनी आम आदमी पार्टी की सरकार को तीन साल पूरे हो गए हैं. इन तीन सालों में कितने वादे पूरे हुए और कितने अधूरे हैं इसका फैसला तो दिल्ली की जनता चुनाव के वक्त ही करेगी. लेकिन इतना तय कि भारतीय राजनीति में आम आदमी पार्टी की एंट्री ने बाकी राजनीतिकि पार्टिंयों को कई नई चीजें सिखा दी हैं.