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लोकसभा चुनाव 2019: राहुल गांधी और येचुरी लिखेंगे दोस्ती का नया अध्याय?

सीताराम येचुरी कांग्रेस की अगुवाई में सभी दलों को खड़ा कर सकते हैं. सीपीएम के 22वें कांग्रेस में सीताराम येचुरी सर्वसम्मति से महासचिव चुन लिए गए, जिसकी वजह से कांग्रेस भी खुश है

Syed Mojiz Imam

राहुल गांधी को ऐसे साथी की तलाश है, जो 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले नया यूपीए बनाने में मदद करे. राहुल गांधी की तलाश सीताराम येचुरी पर खत्म हो सकती है. सीताराम येचुरी कांग्रेस की अगुवाई में सभी दलों को खड़ा कर सकते हैं. सीपीएम के 22वें कांग्रेस में सीताराम येचुरी सर्वसम्मति से महासचिव चुन लिए गए, जिसकी वजह से कांग्रेस भी खुश है. कांग्रेस को लग रहा है कि लेफ्ट से जो दोस्ती 2008 में टूटी थी वो फिर से पटरी पर आ सकती है.

हालांकि सीपीएम के सेन्ट्रल कमेटी में अभी भी प्रकाश करात का दबदबा है, जो कांग्रेस के धुर विरोधी माने जाते हैं. राजनीतिक प्रस्ताव में येचुरी कांग्रेस के किसी भी तरह के समझौते से इनकार करने वाली बात को निकलवाने में कामयाब हो गए. यानी कांग्रेस के साथ गठबंधन तो नहीं होगा लेकिन रणनीतिक समझौता हो सकता है. सीताराम येचुरी ने कहा कि राज्यों के राजनीतिक हालात के अनुसार पार्टी रणनीतिक चुनावी लाइन तय करेगी. लेकिन कांग्रेस के साथ गठबंधन से परहेज करती रहेगी.


जो प्रस्ताव पास हुआ है उसमें कहा गया है कि सीपीएम सेक्युलर दलों को एकजुट करेगी लेकिन बगैर कांग्रेस के साथ कोई समझौता किए हुए. हालांकि इसमें गठबंधन की जगह के लिए कोई रास्ता नहीं छोड़ा गया है. लेकिन रणनीतिक तौर पर साथ रहने से इनकार भी नहीं किया गया है. सीताराम येचुरी ने कहा कि बीजेपी को रोकना पहली जिम्मेदारी है, किसी भी तरह साम्प्रदायिक पार्टियों को सत्ता से आने से रोकना होगा.

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बहरहाल कांग्रेस के लिए अच्छी खबर है. विपक्षी दलों मे सीपीएम ही ऐसी पार्टी है जिसका वजूद कई राज्यों में है. कार्यकर्ता भी पार्टी के पास बचे हुए हैं. हालांकि त्रिपुरा का किला बीजेपी ने ढहा दिया और बंगाल ममता बनर्जी के पास है. केरल में लेफ्ट के सामने कांग्रेस है. राहुल गांधी को किसी और नेता से ज्यादा सीताराम येचुरी मुफीद रहेंगे क्योंकि सीपीएम की राजनीतिक ताकत अभी इतनी नहीं है कि राहुल गांधी को चुनौती दे सके. बल्कि शरद पवार ,ममत बनर्जी मुलायम सिंह यादव कभी भी राहुल गांधी के सामने चुनौती बन सकते हैं.

सीताराम येचुरी नहीं हैं हरिकिशन सिंह सुरजीत

सीपीएम के नेता हरिकिशन सिंह सुरजीत का एक कद था. उनकी कही बात कोई कम ही टालता था. सुरजीत ऐसी शख्सियत थे जो किंगमेकर की भूमिका में रहे. यूपीए की 2004 की सरकार बनवाने में भी अहम भूमिका अदा की थी. लेकिन सीताराम येचुरी में ऐसा करिश्मा नहीं है. उनकी बात विपक्ष में कोई मानेगा ऐसी संभावना ज्यादा नहीं है. पार्टी के भीतर भी प्रकाश करात और उनके समर्थक येचुरी को चुनौती देते रहेंगे.

जाहिर है कि सीपीएम की ताकत भी हाल के दिनों मे घटी है. बंगाल में ममता बनर्जी ने सीपीएम को तीसरे नंबर की पार्टी बना दी है. त्रिपुरा में भी हाल बुरा है. सीताराम के सामने पहले अपनी पार्टी को मजबूत करने का चैलेंज है. खासकर के बंगाल में जो कभी सीपीएम की लाइफलाइन थी. हालांकि इसके बरअक्स दिल्ली में गठबंधन की पारी सीताराम अच्छे से खेल सकते हैं. दिल्ली में काफी अच्छी नेटवर्किंग है. विपक्षी दलों के बीच पुल काम कर सकते हैं. और दलों को कांग्रेस के साथ लाने में मदद कर सकते हैं. लेकिन सवाल ये है कि सीपीएम जिस गठबंधन की सूत्रधार बनेगी तो उसमें ममता बनर्जी कैसे शामिल हो सकती हैं?इसके विरोध में तर्क ये दिया जा रहा है कि 2004 से 2014 के बीच जिस तरह से समाजवादी पार्टी और बीएसपी ने कांग्रेस का समर्थन किया था.

बंगाल, केरल और त्रिपुरा में गणित

तीनों राज्य मिलाकर 65 लोकसभा की सीट हैं, जिसमें सिर्फ 9 सांसद सीपीएम के हैं. ममता बनर्जी के टीएमसी के पास 34 सांसद हैं. बंगाल के कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी लेफ्ट के साथ गठबंधन के हिमायती हैं. अधीर रंजन चाहते है कि बीजेपी को रोकने के लिए लेफ्ट का साथ लिया जाए ना कि ममता बनर्जी का समर्थन किया जाए.कांग्रेस की बंगाल की यूनिट ज्यादातर ममता बनर्जी के खिलाफ रही है. लेकिन हाल के राज्यसभा चुनाव में ममता बनर्जी के समर्थन से अभिषेक मनु सिंघवी राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए हैं, जिससे साफ होता है कि अभी कांग्रेस आलाकमान ममता को नाराज नहीं करना चाहता है क्योंकि अधीर रंजन चाहते थे कि लेफ्ट के साथ मिलकर साझा उम्मीदवार खड़ा किया जाए, जिसको कांग्रेस ने नहीं माना अब ये हवा ये भी उड़ रही है कि नाराज़ अधीर रंजन बीजेपी का दामन थाम सकते हैं.

बहरहाल कांग्रेस का लेफ्ट के साथ 2016 के विधानसभा चुनाव में समझौता हुआ था. जहां तक केरल की बात है इस राज्य में लेफ्ट गठबंधन और कांग्रेस के गठबंधन के बीच सीधा मुकाबला है. यहां पर किसी भी तरह के गठबंधन की संभावना नहीं है क्योंकि यहां अभी बीजेपी दुश्मन नंबर वन नहीं बन पाई है. त्रिपुरा में कांग्रेस और लेफ्ट के बीच संभावना बन सकती है. वहां बीजेपी ने इस साल की शुरूआत में प्रचंड बहुमत की सरकार बनाई है. लेकिन दोनों ही लोकसभा सीट पर सीपीएम के सांसद हैं. जाहिर है कि इसके बीच में रास्ता निकालना आसान नहीं है.

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2008 में क्या हुआ था?

अमेरिका के साथ सिविल न्यूक्लियर डील के विरोध में लेफ्ट ने यूपीए सरकार से समर्थन वापिस ले लिया था, जिसके अगुवा उस वक्त के सीपीएम महासचिव प्रकाश करात थे, जिसके बाद 2008 के जुलाई महीने में मनमोहन सिंह सरकार ने समाजवादी पार्टी के सहयोग से विश्वास मत हासिल कर लिया था. ये वही समाजवादी पार्टी थी जिसके मुखिया मुलायम सिंह यादव भी सरकार के खिलाफ थे. लेकिन अचानक प्रकाश करात के हाथ से बाजी निकल गयी. ये भी समझना पड़ेगा कि जिस बीजेपी को रोकने के लिए सीपीएम की सेन्ट्रल कमेटी ने प्रस्ताव पारित किया है. इस बीजेपी ने लेफ्ट का साथ देते हुए सरकार के खिलाफ वोट भी किया था. हालांकि राजनीति में स्थायी दोस्ती दुश्मनी नहीं होती है. ये बात सबको पता है. लेकिन इस वक्त हालात 2008 वाले नहीं हैं. बीजेपी के पास लोकसभा में बहुमत है तो 20 राज्यों एनडीए की सरकारें चल रहीं है.

कैसे बन सकते हैं येचुरी खेवनहार?

सीपीएम ऐसी पार्टी है जिसका कोई भी नेता बिना सेन्ट्रल कमेटी के अनुमति के की बड़ा फैसला नहीं ले सकता है. इसलिए सीताराम येचुरी राहुल गांधी के लिए रास्ता हमवार कर सकते हैं. लेफ्ट के साथ आने में कई दल सहज हैं. लेकिन राहुल गांधी के साथ उतनी आत्मीयता नहीं है. एनसीपी के शरद पवार डीएमके के एम के स्टॉलिन, मायावती, अखिलेश यादव, आरजेडी के तेजस्वी इन सबको कांग्रेस के साथ खड़ा करने में सहयोग दे सकते हैं. वहीं दूसरी तरफ यूपीए में जो भूमिका पहले हरिकिशन सिंह सुरजीत ने निभाई वो भूमिका निभा सकते हैं. जो दल अभी बीजेपी के साथ एनडीए में हैं, उनको भी कांग्रेस के साथ लाने में सीताराम येचुरी सक्षम हैं. वहीं कांग्रेस के साथ जाने में सेन्ट्रल कमेटी ने उनके हाथ बांध रखे हैं. ऐसे में किंगमेकर तो हो सकते हैं. लेकिन किंग की भूमिका में आने से गुरेज रहेगा.

सीपीएम की सेन्ट्रल कमेटी की ताकत

इस कमेटी ने 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया, जिसके लिए बाद में पार्टी के लोग खेद जताते रहे हैं.अगर सीपीएम का कोई नेता भारत का प्रधानमंत्री बनता तो ये ऐतिहासिक भी होता और पार्टी की राजनीतिक दिशा भी बदल सकती थी. लेकिन उस वक्त भी प्रकाश करात गुट ने ज्योति बसु को रोक दिया था. आईपीएस अरुण प्रसाद मुखर्जी ने अपनी किताब अननोन फेसेट्स ऑफ राजीव गांधी, ज्योति बसु, इन्द्रजीत गुप्ता में दावा किया है कि 1990-1991 में राजीव गांधी ने कई बार ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने की सलाह दी थी. लेकिन सीपीएम के भीतर इसको लेकर सहमति नहीं बन पाई थी.