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सुप्रीम कोर्ट विवाद: आंतरिक लोकतंत्र के जरिए ही निकलेगा समाधान

जनता न्यायाधीशों के दरवाजे पर फरियाद करती है ताकि उन्हें न्याय सुनिश्चित हो लेकिन इस बार उल्टा हुआ है- न्यायाधीशों ने ही जनता और मीडिया के बीच जाकर फरियाद की है

Sushil K Tekriwal

भारत के न्याय-तंत्र की जड़ें काफी गहरी हैं. मानव सभ्यता के विकास के समय से लेकर आज तक इस न्यायिक व्यवस्था तंत्र ने वक्त के थपेड़ों व झंझावाती चक्रवातों को सहा है और फिर भी यह संस्थान टस से मस नहीं हुआ. भारतीय न्यायपालिका ने समय दर समय जिस परिपक्वता से संवैधानिक संकटों का निपटारा किया है, निश्चित रूप से इसका हल भी आंतरिक लोकतांत्रिक तरीके से ही निकलेगा.

पूर्व में सर्वोच्च न्यायालय ने कई ऐतिहासिक फैसले दिए हैं जिसके न्याय-दर्शन और न्याय-विज्ञान को समझने की जरूरत है. यहां के न्यायाधीशों के पांडित्य और विद्वत्व पर हमें निष्ठा रखनी चाहिए. बहुत जल्द इस संकट की घड़ी पर यह संस्थान बगैर किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता के खुद ही अपनी सक्षमता और समर्थता से काबू पा लेगा.


हालांकि अति उत्साह में माननीय न्यायाधीशों ने गलत तरीके से सार्वजनिक मंच पर भले ही अपना विरोध दर्ज किया है लेकिन जो मौलिक प्रश्न उठाए गए हैं, उनका निदान और समाधान भी वक्त की मांग है जो आने वाले दिनों में निश्चित ही ढूंढ लिए जाएंगे. 12 जनवरी को हुई घटना भारतीय लोकतंत्र का कोई भी बाल बांका नहीं कर पाएगी क्योंकि हमारा लोकतंत्र भी एक वटवृक्ष की तरह काफी मजबूती से खड़ा है और हमेशा ही खड़ा रहेगा. संक्षिप्त समय का विचलन निश्चित ही आम लोगों को हिला सकता है लेकिन डिगा नहीं सकता.

कानून-व्यवस्था ने कायम रखी है देश की एकता

भारत की संपूर्ण न्यायिक-व्यवस्था इस समय विश्व की कई सर्वश्रेष्ठ और आदर्श व्यवस्थाओं में से एक मानी जाती है. विश्व के किसी भी विकसित देश को हमारी न्यायपालिका के गौरवशाली अतीत पर ईर्ष्या हो सकती है. भारत की न्याय प्रणाली दुनिया की सबसे प्राचीनतम न्याय प्रणालियों में से एक है. भारत का प्रत्येक नागरिक देश की न्याय-व्यवस्था में आंख मूंदकर यकीन करता है. देश में कानून को लोकतांत्रिक तरीके से लागू किया गया है.

हमारा एक ऐसा संविधान है जो देश के प्रत्येक नागरिकों के लिए गीता और कुरान से कम नहीं है. इसी संविधान और न्यायपालिका ने देश को अखंडित रखने का काम किया है. भारतीय कानून व्यवस्था ने ही देश को अनेकता में एकता की सुंदर काया को बनाए रखने का काम भी किया है.

हर व्यवस्था में अनिवार्यताएं होती हैं, साथ में बाध्यताएं भी. मतभेद होना भी स्वाभाविक है. मतभेद को मनभेद में तब्दील होने से रोकने के सकारात्मक और स्वस्थ प्रयास भी न्यायपालिका खुद ही कर लेगी, इसकी सक्षमता पर निश्चित ही कोई संदेह नहीं होना चाहिए. इसका समाधान चारदीवारी के अंदर ही ढूंढना जरूरी है ताकि विनाशकारी तत्व इस प्रकार के मौके का फायदा उठाकर न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सर्वोच्चता पर छेद न कर सकें.

सार्वजनिक मंचों से नहीं निकलेगा हल

सार्वजनिक मंच पर इनका समाधान कतई हो भी नहीं सकता बल्कि इन मुद्दों का समाधान खोजने का छोटे से छोटा प्रयास भी एक गलत परंपरा को जन्म देगा. बल्कि न्याय-शास्त्र के इन पारंगत और धुरंधर ज्ञानी न्यायमूर्तियों को राजनीतिज्ञता और राजमर्मज्ञ चातुर्यता का इस्तेमाल कर आपसी विवाद को सुलझाना होगा. सत्य की खोज मीडिया के माध्यम से नहीं हो सकती और न ही सार्वजनिक मंचों से हो सकती है. अगर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ही इतने मजबूर दिखे तो आम लोगों को न्याय और इंसाफ कैसे मिलेगा.

सर्वोच्च न्यायालय का मूल कार्यक्षेत्र उन गंभीर से गंभीरतम विवादों का निबटारा करना भी है जो केंद्र सरकार और किसी एक या कई राज्यों के बीच हों या एक ओर केंद्र सरकार और कोई एक या कई राज्य तथा दूसरी ओर एक या कई राज्यों के बीच हो अथवा दो या कई राज्यों के बीच हो. साथ ही देश के हर उच्च न्यायालयों को निर्णयों को भी चुनौती दी जाने वाली याचिकाओ की भी सर्वोच्च न्यायालय सुनता है. लेकिन यहां के विद्वान न्यायाधीश अपने बीच पनप रहे छोटे से विवाद को नहीं सुलझा पाए तो बड़े-बड़े विवाद कैसे सुलझेंगे.

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जनता न्यायाधीशों के दरवाजे पर फरियाद करती है ताकि उन्हें न्याय सुनिश्चित हो लेकिन इस बार उल्टा हुआ है- न्यायाधीशों ने ही जनता और मीडिया के बीच जाकर फरियाद की है. यह उल्टी बयार न्यायपालिका जैसे देश के सबसे सुंदर संस्थान को संरक्षित रखे, यह सुनिश्चित किए जाने की भी जरूरत आज महसूस की जा रही है. लिहाजा, न्यायपालिका को जल्द से जल्द सचेत होने की जरूरत है ताकि इसकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता कायम रहे.

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई महत्वपूर्ण फैसलों में लोगों और संस्थानों को विवादों का निपटारा खुद की चारदीवारी के भीतर करने और मीडिया में बातों को सार्वजनिक न करने को कहा है लेकिन यह उपदेश खुद के आचार-व्यवहार में भी आत्मसात करना जरूरी नहीं समझा.

परिपक्वता, संयम और ठहराव का केवल उपदेश नहीं बल्कि इसे व्यवहार में अमल में लाना होगा ताकि कथनी और करनी में फर्क न्यायाधीशों के व्यवहार में नहीं रहे, तभी संस्थान की विश्वसनीयता दोबारा से कायम हो पाएगी. मिथ्या दंभ हाहाकार ही लाता है, विद्वान न्यायाधीशों को इसे समझने की जरूरत है. कामना है कि न्यायपालिका का अब तक का अक्षुण्ण इतिहास न्यायाधीशों के लिए इस विवाद को निबटा लेने की कोशिश में एक सशक्त मार्गदर्शक बनेगा.

(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं और रायन स्कूल मामले में प्रद्युम्न पक्ष से मुकदमा लड़ रहे हैं.)