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आरएसएस के धोबीघाट पर इतिहास की धुलाई, यहां रफू भी लगाए जाते हैं!

इतिहास के संयोगों ने 130 करोड़ लोगों को एक नक्शे के अंदर ला दिया है

Dilip C Mandal

इतिहास एक खतरनाक चीज है. यूं तो वह लोगों को जोड़ भी सकता है और जोड़ता भी है. राष्ट्रनिर्माण के कई मानदंडों में साझा इतिहास एक महत्वपूर्ण शर्त है. लेकिन यह अनिवार्य शर्त नहीं है.

साझा इतिहास के बिना कई देश बने हैं और अपना प्रिय देश भारत और हमारे मिडिल क्लास के सपनों का देश अमेरिका ऐसे ही देशों में है. इन देशों का नक्शा साझा इतिहास से नहीं बना है.


जहां राष्ट्र निर्माण में इतिहास की भूमिका मानी जाती है, वहीं कई लोग दार्शनिक इतिहास को राष्ट्र के लिए खतरा मानते हैं. फ्रांसिसी फिलॉसफर अर्नेस्ट रेनन ने तो यहां तक कहा है कि अगर आप भूल नहीं सकते तो आप राष्ट्र बना नहीं सकते. इतिहास की पढ़ाई अपने आप में राष्ट्रीय एकता के खिलाफ हो सकती है.

केवल भारत में ही नहीं इटली-अमेरिका में भी हुई है हिंसा

मिसाल के लिए, इटली के एकीकरण और उसके राष्ट्र बनने का मामला लें. उत्तरी इटली ने दक्षिणी इटली को जबरन खुद में एकीकृत किया. बहुत बड़ी हिंसा हुई. बहुत पुराना इतिहास नहीं है. अब अगर उत्तरी इटली वाले इस इतिहास को हमेशा याद रखें कि वे विजेता हैं और दक्षिण इटली के लोग अगर हमेशा इतिहास की इस कुंठा को जीते रहें कि हमें हराया गया है और हमें इसका बदला लेना है, तो इटली कभी राष्ट्र नहीं बन पाएगा.

जो बात इटली के लिए सच है, वह दुनिया के ज्यादातर देशों के लिए भी सच है.

हर राष्ट्र के निर्माण के पीछे एक इतिहास होता है, जो अक्सर रक्तरंजित होता है. उसे जानना बुरा नहीं है. ज्ञान के तौर पर, विद्यार्थियों को उसके बारे में बताया जाना चाहिए.

लेकिन अमेरिका वासी अगर हमेशा यही सोचते रहें कि उन्होंने कैसे नेटिव इंडियंस को हराया, वहां के ब्लैक अगर हमेशा इस पीड़ा के साथ रहें कि उनकी गुलामी की कीमत पर गोरों ने तरक्की की, लैटिनो अगर अपनी बदहाली का कारण इतिहास में ही खोजते रहें, तो अमेरिका का एक नक्शा तो फिर भी होगा, लेकिन एक राष्ट्र के रूप में उसकी नैतिक सत्ता नहीं बचेगी.

अमेरिका में रंगभेद के विरोध में सिविल राइट्स लीडर्स के साथ मार्टिन लूथर किंग. 28 अगस्त 1963 को यह मार्च व्हाइट हाउस तक निकाला गया था. (फोटो: रॉयटर्स)

इसलिए भूलना जरूरी है. खासकर जो कड़वा है, उसका बोझ सिर पर लादना और उसे लेकर वर्तमान में झगड़े पालना राष्ट्रविरोधी बेशक नहीं है, लेकिन इससे कोई राष्ट्रीय हित नहीं सधता.

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अगर हम भारत की ही बात करें, तो यहां के लगभग 2000 साल के ज्ञात इतिहास में कत्लोगारत के जाने कितने किस्से हैं. उससे भी पीछे जाएं तो आर्य आक्रमण का सिद्धांत है. लोकमान्य तिलक ने आर्य श्रेष्ठता के सिद्धांत को स्थापित करने के लिए 'आर्कटिक होम इन वेदाज' जैसे ग्रंथ लिखे और आर्यों को यूरोपीय साबित किया. क्या इससे भारत की राष्ट्रीय भावना मजबूत हुई? मुझे शक है.

आर्य विजेता थे, अलग नस्ल के थे और उन्होंने अनार्यों को हराया वाली बात अगर इतिहास का सच है भी तो इसका जश्न नहीं मनाया जाना चाहिए. देवासुर संग्राम में असुरों की हार अगर हुई भी हो, तो उसका जलसा नहीं होना चाहिए. लगभग 50,000 आबादी वाली भारत की असुर जनजाति को इससे तकलीफ होती है.

बाबा साहेब ने अलग नस्लों के बीच संघर्ष के इस सिद्धांत को खारिज किया है और तिलक के मुकाबले एक समन्वित इतिहास की तस्वीर रखी है.

भारत में लोग आते जाते रहे हैं. कुछ का मकसद भारत को जीतना भी रहा और उन्होंने भारत के बड़े हिस्से पर जीत हासिल भी की. लेकिन इतिहास के उन अध्यायों का हिसाब-किताब करने बैठेंगे, तो इससे कड़वाहट बढ़ने के अलावा क्या हासिल होगा.

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मुगलों ने लोधी नवाबों को हराया था. और उससे पहले आए पठानों और तुर्कों ने हिंदू राजाओं को. उन हिंदू राजाओं ने कभी बौद्ध धर्म का इस देश से सफाया किया होगा. उससे पहले वे भी आए होंगे और सिंधु घाटी सभ्यता की कब्र पर अपनी कुटिया बनाई होगी. इसमें कितना सच है और कितना गप, यह इतिहासकारों के शोध का विषय है. इन विषयों पर निर्णायक, अंतिम बात शायद अभी नहीं कही गई है. लेकिन बेहतर यही है कि हम यह सब भूल जाएं. खुद को एक राष्ट्र का नागरिक मानें.

भूलना ही होगा. हारने वालों को भी और जीतने वालों को भी.

यह भारत के राष्ट्र बनने की अनिवार्य शर्त है. आखिर बाबा साहेब आंबेडकर ने संविधान सभा में बोलते हुए भारत को नेशन इन द मेकिंग यानी बनता हुआ राष्ट्र यूं ही नहीं कहा है. राष्ट्र निर्माण करना पड़ता है. अपने आप नहीं होता.

बाबा साहेब अंबेडकर

आरएसएस और बीजेपी अगर इतिहास के पुनर्लेखन के जरिए किसी खास समुदाय में जीत की भावना पैदा करना चाहती है, तो वह बेशक यह कर सकती है. लेकिन याद रहे. हल्दीघाटी के मैदान में राणा प्रताप, अकबर से नहीं उनके ढेरों सेनापतियों में से एक, राजा मानसिंह से लड़ रहे थे.

वह लड़ाई कभी भी मुसलमान बनाम हिंदू नहीं थी. और अगर थी भी तो उसे खींचकर आज की स्मृति पर थोप देना राष्ट्रहित का काम नहीं हैं.

इतिहास में बहुत कुछ अच्छा बुरा है. लेकिन इतिहास को धोबीघाट पर ले आना और उसकी गंदगी को निकालकर लोगों के दिमाग में भरने की कोशश करने वाले जाने-अनजाने भारतीय राष्ट्र को कमजोर ही करेंगे.

इतिहास के संयोगों ने 130 करोड़ लोगों को एक नक्शे के अंदर ला दिया है. इस संयोग की अच्छी बातों को याद रखें. जो बुरा है, उसे भूल जाएं.