2008 का अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव वह पहला चुनाव था, जिसके बारे में कहा गया था कि इसे सोशल मीडिया पर लड़ा गया.
ओबामा की ट्विटर और फेसबुक की टीम ने वोटरों तक उनका एजेंडा ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इससे पहले के अमेरिकी चुनावों के बारे में कहा जाता था कि वे टेलीविजन पर लड़े जाते थे. चुनाव के नतीजे कई बार कैंडिडेट्स के बीच टीवी बहस में उनकी परफॉर्मेंस से तय हो जाते थे. लेकिन अब यह बदल चुका है.
मास कम्युनिकेशन यानी जनसंचार की दृष्टि से 2008 का साल अमेरिका के लिए एक प्रस्थान बिंदु रहा, जिसके बाद वहां सब कुछ वैसा नहीं रहा, जैसा पहले था.
इस बात पर मुहर लगाते हुए बराक ओबामा की ह्वाइट हाउस में हुई पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहली बार एक ब्लॉगर को बुलाया गया. अब यह एक आम चलन है.
उसी साल कोलंबिया जर्नलिज्म रिव्यू में द बिगर टेंट नाम का एक पेपर छपा था, जिसमें कहा गया है कि पत्रकारिता अब बदल चुकी है और दुनिया अब लाखों पत्रकारों के युग में पहुंच गई है.
भारत के लिए चुनाव प्रचार का नया युग है सोशल मीडिया
भारत में क्या वह समय आ चुका है, जब कहा जाएगा कि यहां के चुनाव भी इंटरनेट पर लड़े जाते हैं?
यह लेख इसी सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश है. इस साल 2 फरवरी को सोशल मीडिया के सबसे बड़े खिलाड़ी फेसबुक ने अपनी चौथी तिमाही के नतीजे जारी किए.
इसमें आमदनी और मुनाफे के हिसाब के साथ यह भी बताया कि किस देश में फेसबुक के कितने यूजर हैं और उसमें बढ़ोतरी की रफ्तार कितनी है.
फेसबुक के ग्लोबल बिजनेस में इस तिमाही में सबसे तेज बढ़ोतरी भारत में हुई है. इतना ही नहीं, भारत में फेसबुक यूजर की संख्या अब 16.5 करोड़ को पार कर चुकी है. यानी भारत का हर 9वां आदमी अब हर महीने कम से कम एक बार फेसबुक का इस्तेमाल करता है.
व्हाट्सएप्प के पिछले साल नवंबर तक के आंकड़े आए हैं और उसके यूजर्स की संख्या भी 16 करोड़ को पार कर चुकी है. जाहिर है कि अब यह संख्या और बढ़ चुकी होगी.
यह एक विशाल संख्या है. भारत अब अमेरिका के बाद फेसबुक का सबसे बड़ा बाजार है. व्हाट्सएप्प का भारत दुनिया में सबसे बड़ा बाजार है.
लेकिन हर 9वें आदमी के फेसबुक या व्हाट्सएप्प से जुड़े होने का यह भी मतलब है कि हर नौ में से आठ आदमी फेसबुक-व्हाट्सएप्प से बाहर हैं. इसमें अगर नाबालिग आबादी को छोड़ दिया जाए, जो वोटर नहीं है, तो भी जितने लोग फेसबुक-व्हाट्सएप्प से जुड़े हैं, उनसे कई गुणा ज्यादा लोग सोशल मीडिया से बाहर है.
मल्टिपल आईडी होने का यह भी मतलब है कि 16.5 करोड़ यूजर दरअसल 16.5 करोड़ लोग नहीं हैं.
क्या सोशल मीडिया की दुनिया उन लोगों के वोटिंग व्यवहार को प्रभावित करती है, जो इससे जुड़े नहीं हैं? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हर 9वें भारतीय के सोशल मीडिया पर होने का मामला इतना सरल भी नहीं है.
भारत के पिछड़े राज्यों से अभी भी दूर है सोशल मीडिया
देश के कई पिछड़े राज्य में यह आंकड़ा इससे भी बुरा है. वैसे राज्यों में सोशल मीडिया चुनावी व्यवहार को कितना प्रभावित कर रहा है?
इस बारे में अब तक कोई ऐसा सर्वे शायद नहीं हुआ है, जिसमें इस सवाल की पड़ताल की गई हो. इसलिए पक्के तौर पर, कुछ भी कहने का कोई आधार नहीं है.
ऐसी स्थिति में, राजनीतिक दल सोशल मीडिया पर प्रचार करने पर जो करोड़ों रुपए खर्च कर रहे हैं, उसके पीछे क्या औचित्य है. क्या वे अपना पैसा पानी में डाल रहे है? शायद नहीं.
फेसबुक, व्हाट्सएप्प, ट्विटर या यूट्यूब जैसे माध्यमों पर राजनीतिक दलों का जैसा जोर है, उसके पीछे जनसंचार की एक थ्योरी काम कर रही है. इसके मुताबिक, लोग जानकारी के लिए या विचारों के लिए सीधे जनसंचार के किसी स्रोत पर कम ही निर्भर रहते हैं.
लोग अपनी जानकारी समाज के ही किसी और व्यक्ति से लेते हैं. वह व्यक्ति ओपिनियन लीडर होता है, जिसकी बात सुनी और कई बार मानी जाती है. इसे टू स्टेप थ्योरी कहते हैं. सीधे मीडिया ने कुछ कहा या दिखाया और लोगों ने उसे मान लिया, यह कम ही होता है.
दरअसल राजनीतिक दल जब सोशल मीडिया पर प्रचार करने पर इतना जोर दे रहे होते हैं, तब उनका मकसद इन ओपिनियन लीडर्स तक पहुंचना होता है.
भारत जैसे देश में यह माना जा सकता है कि जिस आदमी की सोशल मीडिया तक पहुंच है, उसे आर्थिक और सामाजिक तौर पर एक दर्जा हासिल है. किसी व्यक्ति के सोशल मीडिया तक पहुंच का मतलब है कि उसके पास मोबाइल फोन या कंप्यूटर और इंटरनेट होगा.
इसके अलावा उसे इंग्लिश भाषा की न्यूनतम जानकारी जरूर होगी. ऐसा आदमी अपने समाज, बिरादरी में ओपिनियन लीडर होगा, इसकी संभावना बहुत ज्यादा है. इसलिए भारत में जब एक राजनीतिक दल सोशल मीडिया के जरिए 16.5 करोड़ लोगों तक पहुंचने का इरादा रखता है, तब उसकी नजर उन बाकी लोगों पर भी होती है, जो खुद सोशल मीडिया से जुड़े नहीं हैं, लेकिन हो सकता है कि वे ऐसे लोगों से प्रभावित होते हों.
सोशल मीडिया का प्रचार आसान और सस्ता भी है
सोशल मीडिया के वर्चुअल कैंपेन का रियल दुनिया में विस्तार की संभावना कई रास्ते खोल रहे है और ढेरों सवाल भी खड़े कर रही है. मिसाल के तौर पर, क्या जो पार्टी सोशल मीडिया में आगे रहेगी, उसके चुनाव जीतने का ज्यादा संभावना होगी? या क्या किराए पर लोग रखकर सोशल मीडिया में बनाई गई चुनावी हवा मतदाताओं के वोटिंग व्यवहार को प्रभावित करती है? या जिन सामाजिक समूहों में अभी इंटरनेट का ज्यादा विस्तार नहीं हुआ है, जैसे दलित, आदिवासी, मुसलमान और ग्रामीण, उन समाजों में यह परिघटना किस रूप में असर दिखाएगी?
इंटरनेट का विस्तार जब इन समुदायों में भी समरूप में हो जाएगा, तो क्या इसका असर राजनीतिक प्रक्रिया पर पड़ेगा? और वह किस रूप में होगा?
फिलहाल इनमें से ज्यादातर सवाल अनुत्तरित है. ऐसे और कई सवाल आने वाले हैं. भारत में मीडिया के क्षेत्र में रिसर्च करने वालों के लिए ये कुछ चुनौती भरे प्रश्न हैं.
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