अगर आप अटल बिहारी वाजपेयी के महत्व को समझना चाहते हैं, तो श्रीनगर या फिर अनंतनाग की यात्रा करें. जब आप वहां हों, तो कश्मीरी-राजनेताओं, छात्रों, होटलवालों, ड्राइवरों, दुकानदारों, यहां तक कि अलगाववादियों सभी से मिलें- और उनसे पूछें कि वे किस भारतीय राजनेता को सबसे ज्यादा पसंद करते हैं. हर तरफ से एक ही जवाब मिलेगा- अटल बिहारी वाजपेयी.
कश्मीर में आप जहां भी जाते हैं, लोग कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत के वाजपेयी सिद्धांत और उनकी गाई मशहूर मुकामी शायर महजूर के कलाम का जिक्र करते हैं: 'वला हो बागवानो, नव बहारुक शान पैदा कर, फूलों गुल गाथ करन बुलबुल, तिमय सामान पैदा कर.'
कश्मीरियों के दिलो-दिमाग में सबसे ऊंचा दर्जा रखते हैं अटल
कश्मीर में वाजपेयी के लिए इस प्यार को समझने के लिए उनके व्यक्तित्व को अलग-अलग हिस्सों में देखने की जरूरत है. यहां वह उस पार्टी के एक नेता हैं जिसने अनुच्छेद 370 का विरोध किया है, कट्टरपंथी हिंदुत्व का समर्थन किया है और कश्मीर को लेकर नरमपंथी नेहरूवादी मॉडल का हमेशा विरोध किया है. फिर भी, कश्मीरियों के दिलो-दिमाग में, वाजपेयी सबसे ऊंचा दर्जा रखते हैं.
वाजपेयी अपनी किस्म के अकेले शख्स हैं- अंतिम भारतीय राजनेता जिसको सभी प्यार करते थे, सम्मानित और शायद पूजनीय भी.
ऐसा शख्स जो वैचारिक बंटवारों को पीछे छोड़ देता है और एक ऐसे भारत का प्रतिनिधित्व करता है जो उदार, समावेशी और इंसानियत व जम्हूरियत के सिद्धांतों पर भरोसा करता है. जो लोग इस पार्टी या इसके पैतृक संगठन आरएसएस में उनके पहले या उनके बाद आए, वाजपेयी उन सबमें शायद इकलौते समकालीन भारतीय थे, जिनका कोई दुश्मन नहीं था.
उनकी वक्तव्य कला, बिना पहले से सोचे जोश जगा देने वाले भाषण, कविताओं, कटाक्ष और विनोद के अचूक मिश्रण से भरे, खास पहचान वाले ठहराव और नाटकीय प्रभाव के लिए अपने दाहिने हाथ का इस्तेमाल, जनता इन सबकी दीवानी थी. वाजपेयी भी बहुत कुछ वैसे ही थे, जैसा कि एडवर्ड मरो ने विंस्टन चर्चिल के बारे में कहा था कि वह भाषा को लामबंद कर सकते हैं और इसे युद्ध में भेज सकते हैं.
राजनीतिक प्रतिद्वंदी भी मौखिक युद्ध के लिए करते थे उन पर भरोसा
भाषण कला पर ऐसी थी उनकी महारत. यहां तक कि उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने भी बड़े मौखिक युद्धों में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए उन पर भरोसा किया था. ऐसा ही एक ऐतिहासिक उदाहरण था जब पी.वी. नरसिम्हा राव ने संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए वाजपेयी को भेजने का निर्णय लिया था. वह इस बात से आश्वस्त थे कि वाजपेयी के शब्द पाकिस्तानी हमले को बेअसर कर देंगे.
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(यह हमें इन दोनों के बीच की प्रसिद्ध छेड़छाड़ की याद दिलाता है. एक बार राव ने वाजपेयी को अपना गुरु कहा था. वाजपेयी ने तुरंत जवाब दिया, अगर मैं गुरु हूं, तो आप गुरुघंटाल हैं.)
प्रतिद्वंद्वियों के बीच भी वाजपेयी के लिए इस प्यार का एक कारण राजनीतिक विभाजन से ऊपर उठने की उनकी क्षमता थी. अगर उनके प्रतिद्वंद्वी भी उनसे प्यार करते थे, तो ऐसा इसलिए था क्योंकि वह अपने प्रतिद्वंद्वियों को भी ऐसा ही सम्मान देते थे.
अक्सर यह कहा जाता है कि वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा का अवतार कहा था, जिन्होंने बाद में आपातकाल के दौरान उनको जेल भेजा था. जब जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हुई तो वाजपेयी ने संसद में एक भाषण दिया जो भारतीय लोकतंत्र के उस दौर में नेताओं के एक दूसरे के प्रति सम्मान, श्रद्धा और सभ्यता के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है.
उन्होंने नेहरू की तुलना भारतीय नायकों में सबसे पवित्र लोगों से की थी
नेहरू की मौत पर वाजपेयी ने कहा, '... एक गीत खामोश हो गया है और एक ज्वाला अज्ञात में चली गई है.' वाजपेयी ने कहा कि यह नुकसान परिवार या समुदाय या पार्टी का नहीं है. भारत माता शोक में है क्योंकि 'उसका प्यारा राजकुमार सो गया है.' मानवता उदास है क्योंकि उसका सेवक और 'उपासक उसको हमेशा के लिए छोड़ कर चला गया है.' 'वंचितों का संरक्षक चला गया है.' 'विश्व मंच का मुख्य अभिनेता अपनी अंतिम भूमिका निभाने के बाद चला गया है.'
वाजपेयी ने जवाहरलाल नेहरू की तुलना सभी भारतीय नायकों में सबसे पवित्र लोगों से की. उन्होंने कहा, 'हमने पंडितजी के जीवन में वाल्मीकि की गाथा में पाए जाने वाली महान भावनाओं की एक झलक पाई है.' राम की तरह, नेहरू 'असंभव और अकल्पनीय के सृष्टा' थे. वह भी 'समझौता करने से डरते नहीं थे, लेकिन कभी भी किसी दबाव में समझौता नहीं किया.'
स्वर्गीय प्रधानमंत्री को याद करते हुए, वाजपेयी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि वह ऐसे इंसान थे जिसकी 'कोई भी जगह नहीं ले सकता.' उन्होंने टिप्पणी की, उनके 'व्यक्तित्व की ताकत, वह जीवंतता और मस्तिष्क की स्वतंत्रता, प्रतिद्वंद्वियों और दुश्मनों को भी मित्र बना लेने में सक्षम होने का गुण, वह सज्जनता, ऐसी महानता है- जो शायद भविष्य में फिर नहीं दिखेगी.'
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अगर आज नेहरू जीवित होते, तो शायद वह भी वाजपेयी के लिए ऐसा ही प्रशंसा-पत्र पढ़ते, और उन्हें भारत का ऐसा महान सपूत कहते, जो इस महान भूमि के लिए प्रेम, करुणा, आदर्शवाद और मानवता के मूल्यों के प्रति बेहिचक समर्पण का प्रतिनिधित्व करता था.
लेकिन प्रेम और करुणा की बात करने वाली शख्सियत को किसलिए याद किया जाता है?
लेकिन विडंबना है कि एक ऐसे व्यक्ति, जिसने प्रेम और करुणा की बात की, उसकी राजनीति का मूल्यांकन भारतीय राजनीति के दो सबसे हिंसक प्रकरणों से किया गया. पहला, रामजन्मभूमि आंदोलन जिसने रक्तपात और सांप्रदायिकता के धब्बे के साथ भारतीय राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया. दूसरा, गुजरात के दंगे जिन्होंने देश के बीजेपी को देखने के नजरिए को बदल दिया.
लेकिन, यह शायद वाजपेयी की प्रतिष्ठा थी कि पूर्व प्रधानमंत्री इन विनाशकारी घटनाओं से भी उबरने में कामयाब रहे. नेतृत्व की तिकड़ी का हिस्सा होने के बावजूद बीजेपी का कमंडल आंदोलन हमेशा लालकृष्ण आडवाणी का राजनीतिक अभियान माना गया. हालांकि उस वक्त इसे जोखिम भरा माना गया था, लेकिन वाजपेयी मुखौटे की आड़ में उग्रवादी बीजेपी के असली चेहरे से दूर रहकर उस हिंसक दौर से खुद को अलग-थलग रखने में कामयाब रहे.
और, हालांकि वह प्रधानमंत्री थे, फिर भी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों के दौरान वाजपेयी 'राज धर्म का पालन करने' की नसीहत देने के लिए याद किए जाते हैं. पता नहीं कैसे, वाजपेयी की चचा-ताऊ की खुशहाल-खुशकिस्मत आदमी की छवि बनी रही, जिसने उसे घृणा, शत्रुता से ऊपर उठने में मदद की और वह इकलौते ऐसे शख्स बने रहे जिस पर भरोसा किया जा सकता था और जिसे राजनीतिक विभाजन से ऊपर उठकर सबने प्यार दिया.
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यह विरोधाभास उनके कार्यकाल में भी स्पष्ट था. वाजपेयी को पोकरण-II का श्रेय दिया जाता है, लेकिन कंधार-आत्मसमर्पण और आतंकवादियों के साथ-साथ लेन-देन के लिए निंदा भी की जाती है. उनकी सरकार कारगिल में चूक की जिम्मेदार थी, लेकिन फिर भी इसने परमाणु युद्ध में तब्दील होने से पहले युद्ध भी जीता था. लेकिन आक्रमण, आत्मसमर्पण, घुसपैठ, कूटनीति की चूकों से भरी लाहौर यात्रा और आगरा में परवेज मुशर्रफ को आमंत्रण के बाद भी वाजपेयी ने एक ऐसे राजनेता के आभामंडल को बरकरार रखा, जिसका जिंदगी में मुख्य उद्देश्य प्रेम और शांति था.
भारत के लिए उनके प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि उनके हिंदुस्तानियत, इंसानियत और जम्हूरियत के सिद्धांतों को याद रखना होगा. इन सभी को आज एक वाजपेयी की जरूरत है- अंतिम भारतीय जिसने न तो दुश्मन बनाए, न ही दुश्मनी रखी. ऐसा शख्स जिसे कश्मीर से कन्याकुमारी तक प्रेम और सम्मान हासिल था- शायद हिंदुत्व विचारधारा के अपने अनुयायियों, जिनके प्रतिनिधित्व का दावा उनका मातृ संगठन करता है, की तुलना में प्रतिद्वंद्वियों में ज्यादा.